देहरादून की ख़ूबसूरत दून घाटी में स्थित है, भारतीय सैन्य इतिहास में सर्वप्रथम सैनिक संस्थान राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज, जिसने राष्ट्र को बेहतरीन और क़ाबिल सैन्य अफ़सर देने में हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इस संस्थान ने ब्रिटिश राज के दौरान सन 1922 से लेकर सन 1947 तक भारतीय युवाओं को रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट, (इंग्लैंड) में दाख़िला दिलाने और ब्रिटिश भारतीय सेना में अधिकारी बनने के लिये उन्हें उपयुक्त शिक्षा और प्रशिक्षण दिया था।
आज़ादी मिलने के बाद, भी ये सैन्य संस्थान, युवाओं को ट्रैनिंग देता रहा है। ये संस्थान 25 कैडेट के साथ शुरू हुआ था और अब भारत के सभी राज्यों से साढ़े ग्यारह साल से लेकर 18 साल के बीच के 250 कैडेट इस संस्थान में होते हैं।
राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज के शताब्दी वर्ष के अवसर पर हम आपको उस संस्थान के गठन में आई परेशानियों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे “श्रेष्ठता का पालना” कहा जाता है।
अधिकारियों का भारतीयकरण
18वीं शताब्दी के दौरान उत्तर भारत में क्षेत्रीय शक्तियां सत्ता के लिए संघर्ष कर रही थीं, क्योंकि मुग़ल साम्राज्य का पतन शुरू हो चुका था। इस दौरान भारतीय प्रायद्वीप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रवेश हुआ, जो शुरु में सिर्फ़ व्यापार करने आई थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की अपने व्यापार के हितों की सुरक्षा के लिए एक छोटी-सी सेना थी।
स्थानीय राजनीति में बढ़ते प्रभाव के साथ अंग्रेज़ों ने बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता में स्थित अपनी ‘प्रेसीडेंसी आर्मी’ में भारतीय लोगों को भर्ती करना शुरू कर दिया था।
इस सेना में भारतीयों के लिये अवसर बहुत सीमित थे। ऊंचा पद पाने की कोई गुंजाइश नहीं होती थी। वे अंग्रेज़ कप्तान के मातहत ही काम करते थे, जो हिंदुस्तानी यानी हिंदी, उर्दू और फ़ारसी की मिली-जुली भाषा बोलता था। अंग्रेज़ कप्तान की मदद के लिये भारतीय कमांडर होते थे, जिनका दर्जा सुबेदार और जमादार तक ही सीमित था।
यह व्यवस्था वक़्ती तौर पर तब समाप्त हुई, जब सन 1760 के दशक की शुरुआत में मोहम्मद यूसुफ़ ख़ां को ईस्ट इंडिया कंपनी की मद्रास सेना के भारतीय सिपाहियों का कमांडेंट बनाया गया।
लेकिन अंग्रेज़ों का ये फ़ैसला तब उल्टा पड़ गया, जब मोहम्मद यूसुफ़ ने ख़ुद को मदुरै और तिरुनेलवेली का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और अंग्रेजों और उनके स्थानीय सहयोगियों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। आख़िरकार सन 1764 में उसे पकड़कर मौत के घाट उतार दिया गया।इसके बावजूद, वह स्थानीय तमिल लोक कथाओं का हिस्सा बन गया, जिनमें वह मरुधनायगम के नाम से जाना जाता है।
अंग्रेज़ों ने भारतीय सिपाहियों के लिये एक नया पद “सूबेदार मेजर” बनाया जिसके आगे पदोन्नति की कोई गुंजाइश नहीं थी। हालांकि भारतीय सिपाहियों ने, भारतीय उपमहाद्वीप में लड़ी गई लड़ाइयों में अपनी क़ाबिलियत साबित की और 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में,इस क्षेत्र में अंग्रेज़ों के हाथ मज़बूत किये थे, लेकिन इसके बावजूद वे सूबेदार मेजर के आगे नहीं बढ़ पाते थे।
लेकिन अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों के नतीजे में, भारतीय सिपाहियों ने जब सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह किया , तो विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेज़ों ने भारतीयों के अधिकारियों का दर्जा बढ़ाने का विचार छोड़ दिया।
दर्जा बढ़ाने के बजाए, अंग्रेज़ों ने सेना में अधिकारियों के दो वर्ग बना दिये- अंग्रेज़ सेना से किंग के कमीशन प्राप्त अधिकारी और भारतीय अधिकारी जिन्हें सब-ऑफ़िसर्स कहा जाता था। ये भारतीय अधिकारी पहले ब्रिटिश सेना का ही हिस्सा हुआ करते थे।
आशा की किरण
एक तरफ़ जहां भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ रहा था, वहीं 19वीं सदी के अंत में अधिकारियों के ‘भारतीयकरण’ की मांग भी उठने लगी थी।
दिलचस्प बात यह है, कि वायसराय की परिषद के सैन्य सदस्य मेजर जनरल जॉर्ज चेस्नी (1830-1895) जैसे कई ब्रिटिश सैन्य प्रशासकों ने भी भारतीयों को उनकी क़ाबिलियत के आधार पर पदोन्नत कर अधिकारी बनाने का मुद्दा उठाया। लेकिन यह विचार उन के नकारात्मक सोच रखने वाले समकालीनों को पसंद नहीं आया।
इंपीरियल कैडेट कोर
इस बहस का अस्थायी रूप से 4 जून सन 1900 को तब अंत हुआ, जब भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न, भारतीयों की नियुक्ति के लिये एक ज्ञापन (मेमोरेंडम ऑन कमीशंस फ़ॉर इंडियंस) लाए जिसके तहत मेरठ और देहरादून में इंपीरियल कैडेट कोर का गठन हुआ।
वायसराय ने स्वदेशी भारतीय अधिकारियों की कमीशन पर नियुक्ति की अनुमति दे दी जिन्हें वायसराय कमीशन ऑफ़िसर (या वीसीओ) के रूप में जाना जाता था, और वे ‘शाही महामहिम की भारतीय थल सेना’ का हिस्सा बन गए।
लेकिन यह व्यवस्था ज़्यादा समय तक नहीं चल सकी। इसका मुख्य कारण, इसका युद्धरत रियासतों या सामंती परिवारों तक सीमित होना था, जिनके हित स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश सरकारके साथ जुड़े हुए थे। साथ ही, अंग्रेज़ों ने भारतीयों के प्रति कठोर रवैया भी अपना रखा था।
इस व्यवस्था का एक और नुक़सान यह था, कि कमीशन हुए अधिकारियों के पास सिर्फ़ स्थानीय राज्य बलों की कमान थी। ब्रिटिश सैनिक इकाई उनके मातहत नहीं थी। इसके अलावा, उन्हें उनके ब्रिटिश समकालीन अधिकारियों की तरह कमीशन भी नहीं मिलता था। ब्रिटिश अधिकारियों को सम्राट से एक नियमित कमीशन मिलता था।
सन 1905 में जब कर्ज़न भारत से गये, तो ये व्यवस्था चरमराने लगी। लॉर्ड मिंटो (वायसराय: 1905-1910) के आने के बाद , भारतीय सेना के अंग्रेज़ कमांडर-इन-चीफ़, जनरल सर ओ’ मूर क्रेग की सिफारिशें मानी गईं। इन सिफ़ारिशों में स्वदेशी भारतीयों को अधिकारी बनने के लिए उचित प्रशिक्षण देने की वक़ालत की गई थी, ताकि वे उन रेजिमेंटों (सेना की एक टुकड़ी) का नेतृत्व कर सकें, जो भारतीयों सेनिकों के लिये ये बनाई जानी थीं।
हालांकि मिंटो के बाद आये वायसराय लॉर्ड हार्डिंग (1910-1916) के शासन काल में इस प्रस्ताव पर काम होने लगा था, लेकिन पहले विश्व युद्ध (1914-1918) शुरू होने के कारण इसे रोकना पड़ा।
लॉर्ड मिंटो के जाने के बाद इम्पीरियल कैडेट कोर अपनी चमक खोने लगा था और अंत में सन 1914 में इसे भंग कर दिया गया।
भारतीयों के लिए वरदान
भारतीय सैनिकों के लिये पहला विश्व युद्ध एक वरदान साबित हुआ। युद्ध में उनकी वफ़ादारी और बहादुरी की ब्रिटिश प्रशासन ने प्रशंसा की और उसे मूल भारतीयों के लिए एक सैन्य संस्थान बनाने की आवश्यकता का एहसास हुआ।
दो घटनाओं के कारण यह सब हुआ था- पदोन्नति के वादे के साथ सेना में ‘गैर-युद्धरत’ भारतीय वर्गों से बड़े पैमाने पर भर्ती और भारतीय सैनिक में राजनीतिक जागरूकता। इस जागरुकता की वजह से एक भारतीय सैनिक में उच्च पदोन्नति और राजनीतिक आज़ादी की इच्छा मज़बूत हो गई थी।
मोतीलाल नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे प्रमुख नेताओं ने भी सशस्त्र बलों में स्वदेशी भारतीय अधिकारियों की नियुक्ति की मांग का समर्थन किया था।
मोंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिफ़ॉर्म्स, 1919 के दौरान अन्य प्रावधानों के अलावा, रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट से निकलने वाले भारतीय कमीशन अधिकारियों को सेना में भर्ती करने का भी प्रावधान था, जिसके लिए भारत में इंग्लिश पब्लिक स्कूल की तर्ज़ पर संस्थोओं की स्थापना की जानी थी।
पहले विश्व युद्ध के ख़त्म होते-होते उत्तरी भारत में जलियांवाला बाग़ नरसंहार, तीसरा अफ़ग़ान युद्ध (दोनों सन 1919 में), और सन 1920-21 में अकाली बब्बर आंदोलन की वजह से सिख सैनिकों के बीच आक्रोश जैसी कुछ नया रास्ता दिखाने वाली घटनाएं सामने आईं।
ऐसे हालात को ध्यान में रखते हुए सन 1921 में तत्कालीन कमांडर-इन-चीफ़ लॉर्ड रॉलिन्सन (1864-1925) ने सैन्य आवश्यकताओं को देखते हुये एक “सैन्य अवश्यकता समिति” का गठन किया।
इस तरह रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट (इंग्लैंड) में नियमित प्रशिक्षण के लिए भारतीयों को शामिल करने की योजना शुरु हो गई।
समिति ने अंग्रेज़ अधिकारियों की जगह अंतत: भारतीय अधिकारियों की नियुक्ति और उनकी आत्मनिर्भरता का भी प्रस्ताव रखा। यह उद्देश्य तीन चरणों में हासिल किया जाना था और प्रत्येक चरण 14 साल का था, हालांकि समय अंतराल में लचीलेपन का भी प्रस्ताव था।
नयी ब्रिटिश सैनिक रेजिमेंटों के गठन पर भी काम शुरु हो गया, जिनका नेतृत्व केवल भारतीय अधिकारियों के हाथों में होना था।
संस्थान के लिए भर्ती का काम ज़ोरों-शोरों से शुरु हो गया और इस काम में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर भी शामिल थे। उन्होंने पूरे पंजाब का दौरा किया और वहां के लड़ाकू नस्लों के युवकों को संस्थान में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया।
एक संस्थान का उदय
इस तरह देहरादून में पूर्व इंपीरियल कैडेट कोर के परिसर में प्रिंस ऑफ़ वेल्स रॉयल इंडियन मिलिट्री कॉलेज के रूप में एक ‘प्री-सैंडहर्स्ट’ संस्थान अस्तित्व में आया, जिसमें 27 कैडेट थे, जो छह साल में अपनी शिक्षा पूरा कर रहे थे।
13 मार्च, सन 1922 को, प्रिंस ऑफ़ वेल्स (बाद में किंग एडवर्ड-VIII) ने पी डब्ल्यू आर आई एम सी संस्थान का उद्घाटन किया। अपने उद्घाटन भाषण में कहा,
“यह जीवन पर पड़ने पहले कुछ प्रहार होते हैं, जो मानव हथियार को ऐसा स्वभाव देते हैं, जो उसे जीवन में संघर्ष करने में मदद करता है।”
संस्थान के पहले कमांडेंट सिख रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल एच एल ह्यूटन थे, जिन्होंने 22 फ़रवरी, सन 1922 को कार्यभार संभाला था। जे.जी.सी. स्कॉट हेडमास्टर थे। कक्षों के नाम थे – रॉलिन्सन, रॉबर्ट्स और किचनर, जिनमें कैडेट रहते थे। ट्यूडर वास्तुकला शैली में बना संस्थान आज भी मौजूद है।
कैडेट की पहली बैच में जनरल के एस थिम्य्या शामिल थे, जिन्होंने कोरिया युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सायप्रस में संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना के कमांडर बनें, जहां उनका निधन सन 1965 में हुआ। प्रत्येक वर्ष साइप्रस में उनकी पुण्यतिथि आज भी मनाई जाती है।
इस बैच में असगर खान और अन्य शामिल थे, जिन्होंने अपने फ़ौजी करिअर में ऊंचे मुक़ाम हासिल किये। तब से, ये संस्थान कई सेनाध्यक्षों के सैन्य जीवन का शुरूआती हिस्सा रहा है।
दिलचस्प बात यह है, कि दूसरे विश्व युद्ध के दो हीरो- नेताजी सुभाष चंद्र बोस के क़रीबी सहयोगी जनरल शाहनवाज़ ख़ां और मित्र देशों की सेना के लिए लड़ने वाले लेफ्टिनेंट जनरल पी.एस. भगत (जिनको बहादुरी के लिए प्रतिष्ठित विक्टोरिया क्रॉस मिला था), दोनों इसी संस्थान से निकले थे।
परमवीर चक्र का संबंध
स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय भारतीय सैनिक कॉलेज के पूर्व छात्र मेजर जनरल हीरा लाल अटल को,परम वीर चक्र (पीवीसी) पदक शुरु करने का काम सौंपा था। मेजर अटल भारतीय सेना के एडजुटेंट जनरल थे।
अटल ने एक सैनिक अधिकारी की पत्नी सावित्री बाई खानोलकर (स्विस मूल की महिला) से पीवीसी पदक डिज़ाइन तैयार करने का अनुरोध किया। संयोग से पहला पीवीसी मरणोपरांत सम्मान मेजर सोमनाथ शर्मा को मिला, जो खानोलकर की बेटी के देवर थे। मेजर सोमनाथ शर्मा भी इसी संस्थान के थे।
मेजर शर्मा, 3 नवंबर सन 1947 को कश्मीर में, भारत-पाक युद्ध के दौरान,पाक घुसपैठियों को खदेड़ते हुए शहीद हो गये थे। नयी दिल्ली में एक प्रमुख सड़क का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है।
आज़ादी मिलने के बाद, भारतीयकरण के लोकाचार को ध्यान में रखते हुए, पी डब्ल्यू आर आई एम सी का नाम बदल कर राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज कर दिया गया। कक्षों के भी नाम बदल कर प्रताप, रंजीत और शिवाजी रख दिये गये। बाद में एक कक्ष और बनाया गया, जिसका नाम चंद्रगुप्त रखा गया।
ब्रिटिश शासन के दौरान इस संस्थान के शिखर पर प्रिंस ऑफ़ वेल्स राज्य चिन्ह के शुतुरमुर्ग के तीन पंख लगे हुए थे, जिस पर आदर्श वाक्य ‘इश डीन’ (मैं सेवा करता हूं) लिखा हुआ था।सन 1964 में इसे बदलकर वहां अशोक चक्र लगा दिया गया। जिसके ऊपर मोर के तीन पंख भी लगा दिये गये।आदर्श वाक्य को बदलकर ‘बल विवेक’ कर दिया गया था।
तब से राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज तीनों सेनाओं- थल सेना, नौसेना और वायुसेना के सैन्य संस्थानों के लिए युवाओं को तैयार कर रहा है। स्थापना से लेकर सन 1947 में विभाजन तक इसने पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान के लिए अधिकारियों की ट्रेनिंग में भी योगदान किया था।
सन 1997 में संस्थान की प्लेटिनम जयंती के मौक़े पर पाकिस्तान से भी यहां के कई पूर्व छात्र अपने गौरवशाली पुराने संस्थान को देखने के लिए आए थे। भारत ने 13 मार्च सन 1997 को संस्थान के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।
अपने 100 वर्षों के इतिहास में राष्ट्रीय भारतीय सैनिक हमारे देश की तीन सेवाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ सैन्य अफ़सर तैयार करने की आवश्यकता को पूरा करता आ रहा है। जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध की सभी लड़ाइयों और बाद में सन 1947,1962,1965,1971 तथा 1999 के पांच युद्धों में नेतृत्व किया है। रिमकोलियन की विरासत आज भी जारी है और उनकी वीरता की गाथाएं भारत के लिए लड़े गए युद्धों के इतिहास में अंकित हैं।
सन 1955-59 के बैच के संस्थान के पूर्व छात्र , विशिषिट सेवा मैडल विजेता कमोडोर विभु के. मोहंती ने इस लेख के लिए सम्बंधित जानकारी हमसे साझा की।
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