अमृतसर शहर से क़रीब बीस कि.मी. दूर अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास एक गांव है जो कभी साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था और प्रेम तथा स्नेह के लिए जाना जाता था। प्रीत नगर नामक गांव को आज लगभग भुलाया जा चुका है और ज़्यादातर लोगों को इसकी समृद्ध विरासत के बारे में पता ही नहीं है।
अपने तरह के इस अनोखे गांव का श्रेय 20वीं सदी के पंजाबी साहित्यकार सरदार गुरबक्श सिंह प्रीतलड़ी को जाता है जिन्हें आधुनिक पंजाबी गद्य का जनक माना जाता है। उन्होंने पचास से ज़्यादा किताबें लिखीं जिन में कई उपन्यास और कथाएं लिखी। गुरबक्श सिंह का जन्म 26 अप्रैल सन 1895 को सियालकोट (अब पाकिस्तान के पंजाब में) में हुआ था। उनके पिता का नाम पशोरा सिंह और माता का नाम मालिनी था। बहुत कम उम्र में उनकी शादी जगजीत कौर से हो गई।
गुरबख्श सिंह सियालकोट में एफ़.एससी.(फ़ेकल्टी आफ़ साइंस) प्री इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे लेकिन वित्तीय संकट की वजह से उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। परिवार की आमदनी के लिए उन्होंने क्लर्क की नौकरी कर ली। बाद में उन्होंने थॉम्सन कॉलेज ऑफ़ सिविल इंजीनियरिंग (अब आई.आई.टी.रुड़की) में दाख़िला ले लिया जहां से उन्होंने सन 1917 में सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा की पढ़ाई पूरी की।
उस समय प्रथम विश्व युद्ध अपने पूरे ज़ोर पर था। सन 1918 में गुरबक्श सिंह बतौर इंजीनियर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में शामिल हो गए और उन्हें भारतीय सैनिकों के साथ मेसोपोटामियां (इराक़ के आसपास) भेज दिया गया। उसी साल संयुक्त सेना ने युद्ध जीत लिया। कुछ समय तक सेना में नौकरी करने के बाद गुरबक्श सिंह ने सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी करने के लिए सन 1922 में अमेरिका में मिचिगन विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया।
अमेरिका में पढ़ाई के दौरान वह हेनरी डेविड थोरो, वाल्ट व्हाइटमैन और रैल्फ़ वाल्डो एमरसन जैसे 19वीं सदी के अमेरिकी चिंतकों के लेखन से बहुत प्रेरित हुए। ये सभी सार्वभौमिक अपनत्व के हिमायती थे। थोरो के उपन्यास वाल्डन या लाइफ़ इन द वुड्स (1854) का, गुरबक्श सिंह पर इतना असर पड़ा कि जल्द ही उन्होंने ऐसा ही कुछ महत्वपूर्ण करने का ठान लिया। ये उपन्यास प्रकृति में सादा जीवन गुज़ारने के बारे में थे। इसके अलावा गुरबक्श सिंह पर अमेरिका में छह साल के प्रवास के दौरान स्वच्छता, उदारतावाद, वैज्ञानिक प्रवर्त्ती , प्रेम और प्रसन्नता का भी बहुत असर पड़ा। पंजाब में ऐसा कुछ नहीं था और इसे बदलने के सपना के साथ उन्होंने वापस स्वदेश लौटने का फ़ैसला किया।
सन 1924 में वह भारत वापस आ गए और सन 1925 में उन्होंने ब्रिटिश इंडियन रेल्वे में बतौर इंजीनियर नौकरी कर ली। उन्होंने पश्चिमी उपन्यास की तर्ज़ पर पंजाबी साहित्य में प्रयोग करते हुए एक नाटक “प्रीत मुक्त” लिखा जो सन 1926 में प्रकाशित हुआ। लेकिन फिर वह दोहद (अब गुजरात में) में एक रेल्वे वर्कशाप और चेनाब नगर (अब पंजाब, पाकिस्तान में राबवाह) में रेल्वे पुल बनाने में अगले छह साल तक के लिए व्यस्त हो गए।
नौकरी के दौरान वह एक बड़ा सरकारी घर छोड़कर दूर एक मिट्टी के घर में रहने लगे। उन्होंने बहुत सरलता से अपने साधारण से घर को एक अनोखा रुप दे दिया जिसे देखकर मेहमान हैरान रह जाते थे।
इसी दौरान उन्हें मेहसूस हुआ कि सरकारी नौकरी में हालंकि अच्छा वेतन मिल रहा था, सुविधाएं भी मिल रही थीं लेकिन संतुष्टि नहीं थी और इसलिए उन्होंने सन 1932 में नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। चूंकि वह आधुनिक सोच के हिमायती थे, उन्होंने यांत्रिक किसानी के लिए नौशेरा (अब पाकिस्तान के ख़ेबर पख़्तूनख्वाह में) में समाधी बाबा अकाली फूला सिंह से सौ एकड़ ज़मीन हासिल कर ली। ये ज़मीन शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की थी। इस तरह वह देश में, विदेश से एक ट्रैक्टर आयात करने वाले पहले भारतीय बन गए।
लेकिन कई पुरातनपंथी सिखों ने इस नई पहल को, ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि जब पहले सिख गुरु नानक देव जी ख़ुद अपने हाथों से खेत जोतते थे तो उनके अनुयायी किसानी के पवित्र काम के लिए मशीनों का प्रयोग कैसे कर सकते हैं। यहां ये उल्लेख करने की ज़रुरत नहीं है कि उस समय का समाज इस इंजीनियर के खुले विचारों को स्वीकार करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था, जिसने अमेरिका में पढ़ाई की थी।
अपनी दृष्टि और जीवन दर्शन को साझा करने के लिए उन्होंने सन 1933 में एक मासिक पत्रिका “प्रीत लड़ी” शुरु की जिसके वह ख़ूद संस्थापक संपादक थे। पत्रिका में पश्चिमी सोच, उसकी व्याखा, और उसके अनुवाद प्रकाशित होते थे। इसके अलावा उन्होंने आधुनिक रौशनी में स्वदेशी संस्थानों को दोबारा जीवित करने की भी कोशिश की। उन्होंने दक़यानूसी नैतिक मूल्यों, साम्प्रदायिक सोच और भोंडेपन को नकारते हुए सभी तरह के शोषण और भेदभाव का विरोध किया। ये पत्रिका सामाजिक-साहित्यिक क्रांति का हथियार बन गई जिसने तर्कहीन आस्थाओं और अंधविश्वासों की बखियां उधेड़ दी।
“प्रीत लड़ी” पत्रिका जल्द ही लोकप्रिय हो गई। इस पत्रिका की वजह से पंजाबी भाषा में कई नए शब्द भी बने। बहुत जल्द ये पत्रिका चार भाषाओं में छपने लगी और डाक के ज़रिए इन्हें उन देशों में भेजा जाने लगा जहां पंजाबी लोग रहते थे। इसने सांस्कृतिक क्रांति लाने में मदद की। लोग उन्हें गुरबक्श सिंह “प्रीतलड़ी” नाम से बुलाने लगे। फिर ये नाम ताउम्र उनके साथ जुड़ा रहा।
सन 1936 में गुरबक्श सिंह लाहौर की आलीशान कालोनी मॉडल टाउन में रहने लगे थे। वहां उन्हें समान विचारों के कई कवि और लेखक मिले जिनके साथ मिलकर वह पंजाब में बाल्डन का अपना रुप बनाना चाहते थे। वह प्रीत नगर बनाना चाहते थे जो पंजाब का पहला सुनियोजित और आत्मनिर्भर शहर हो सकता था।
अपने प्रिय प्रोजेक्ट के लिए गुरबक्श सिंह, लाहौर और अमृतसर से दूर कहीं जगह लेना चाहते थे। उस समय लाहौर और अमृतसर आधुनिक कविता और साहित्य के शक्तिशाली प्रतीक बन चुके थे। इस तरह दोनों शहरों से बीस कि.मी. दूर एक ज़मीन ली गई। यहां मुग़ल बादशाह जहांगीर का एक मुग़ल स्मारक “आरामगाह” था जहां जहांगीर अपनी प्रिय बेगम नूरजहां के साथ कश्मीर जाते समय ठहरा करते थे।
यह स्मारक कभी बहुत भव्य हुआ करता था। इसके इर्द-गिर्द मज़बूत दीवारें हुआ करती थीं और चार बुर्ज (सुरक्षा चौकी) होते थे। इसके अलावा शायद एक विशाल प्रवेश-द्वार भी था और परिसर में चारबाग़ गार्डन भी था। परिसर की बाहरी दीवार के पास एक तालाब भी था। जिसमें गहराई तक उतरने के लिए सीढ़ियां भी थीं।
जहांगीर की मृत्यु के बाद ये महल वीरान हो गया और फिर धीरे धीरे जर्जर भी हो गया। इस स्मारक सहित यहां की ज़मीन एक मैनेजर को मिल गई थी जिसकी मृत्यु हो गई। मैनेजर की कोई औलाद नहीं थी इसलिए ये ज़मीन उसकी पत्नी के परिवार को मिल गई। तीन सदियों के बाद इस परिवार के लिए काम करने वाला एक एकाउंटेंट प्रसिद्ध पंजाबी लेखक धनी राम चात्रिक के चचा और गुरबक्श सिंह का क़रीबी सहयोगी थे। उन्होंने सन 1938 में एक पैसा प्रति स्क्वैयर गज़ रामबाग़ सहित उस ज़मीन का सौदा करवा दिया।
गुरबक्श सिंह प्रीतलड़ी ने अपने असर-रसूख़ के ज़रिए नानक सिंह (प्रसिद्ध पंजाबी उपन्यासकार जो यहां बसने वाले पहले व्यक्ति थे), शोभा सिंह (प्रसिद्ध कलाकार), बांग्लादेश युद्ध के हीरो लेफ़्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के पिता दीवान सिंह, बलवंत गार्गी, बलराज साहनी, प्यारा सिंह सहराई आदि जैसे कई नामी-गिरामी लोगों को प्रीत नगर में बसाया गया। इस बस्ती की ख़ासियत ये थी कि मकान की डिज़ाइन और वास्तुकला ऐसी थी कि उससे अपनेपन का एहसास होता था। 175 मकानों में से 125 मकान तो गुरबक्श सिंह ने साहित्य की दुनिया के लोगों को देखते ही देखते ही बेच दिए लेकिन बाक़ी मकानों के लिए प्रीत लड़ी पत्रिका में इश्तहार निकाला गया।
प्रीत नगर कलाकारों, लेखकों और अभिनेताओं के आराम करने की जगह थी जहां वे समय समय पर आते रहते थे। यहां धर्म, जाति, वर्ग या स्त्री पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। पुरुष और महिलाएं बारी बारी से एक ही रसोई में खाना पकाते थे। इसी से प्रेरित होकर बाद में जाने-माने पंजाबी लेखक बलवंत गार्गी ने प्रसिद्ध नाटक “सांझा चूल्हा” लिखा। सन 1939 में पहला स्वच्छ सार्वजनिक शौचालय अभियान शुरु किया गया। आज का सुलभ सार्वजनिक शौचालय इसी से प्रभावित है।
शुरु में बादशाह जहांगीर के आरामगाह की मरम्मत कर इसे थोड़ा-सा आधुनिक रुप दिया गया और इसका इस्तेमाल प्रीत लड़ी के कार्यालय और प्रिटिंग प्रेस के लिए किया जाने लगा लेकिन बाद में प्रिंटिंग प्रेस को कहीं और शिफ़्ट कर दिया गया और आरामगाह को प्रेम नगर के क्लब हाउस में तब्दील कर दिया गया।
प्रेम नगर कालोनी में कई दुकानों वाला एक शॉपिंग कॉम्पलेक्स, सैलानियों के लिए रेस्ट हाउस, सांझी मिल्क डेयरी और गोपाल सिंह प्रीत आर्मी अस्पताल बनाया गया। यहां कई नलों वाला एक कुआं भी बनवाया गया।
सन 1940 में यहां एक स्कूल खोला गया। एक्टिविटी स्कूल के नाम से प्रसिद्ध ये शैक्षिक संस्थान आठ एकड़ ज़मीन पर फैला हुआ था जिसमें लड़के और लड़कियां, दोनों पढ़ते थे। हालंकि स्कूल कच्चा बना हुआ था लेकिन इसकी दीवारों पर पलस्तर था। छत सरकंडों की थी लेकिन वहां पानी नहीं टपकता था। यहां पढ़ाने का तरीक़ा अनोखा था। वर्णमाला सिखाने के पहले बच्चे को वे शब्द लिखने को कहा जाता था जो उसे पहले से ही आते थे। इस तरह उसे पूरी वर्णमाला याद हो जाती थी।
शहर का प्रमुख आयोजन था प्रीत मिलनिस (पंजाबी में प्रेम मिलन)। ये मिलन मुशायरे की तरह का सांस्कृतिक मिलन हुआ करता था। उस समय पूरे देश में मुशायरे बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे। स्थानीय निवासियों के अलावा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, साहिर लुधियानवी, उपेंद्रनाथ अश्क़, करतार सिंह दुग्गल, नाटककार बलवंत गार्गी, कवि मोहन सिंह और अमृता प्रीतम जैसे तमाम लोग इस प्रीत मिलनिस में शामिल होते थे। पंजाबी कवि दीवान सिंह कालेपानी भी दूसरे युद्ध में अंडमान जाने के पहले तक यहां आते रहते थे। उनके अलावा प्रिंसिपल तेजा सिंह, प्रिंसिपल जोध सिंह भी प्रीत नगर से क़रीब से जुड़े हुए थे।
मशहूर बंगाली कवि रवींद्रनाथ टैगोर प्रीत नगर गांव से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने ऐसा गांव बनाने के लिए गुरबक्श सिंह को धन्यवाद भी दिया था। टौगोर को लगता था कि ये गांव उनके शांतिनिकेतन की तरह ही है। चूंकि रवींद्रनाथ टैगोर उस समय बहुत बूढ़े हो चुके थे इसलिए वह यहां नहीं आ सके। सन 1941 में उनकी मृत्यु हो गई थी। हालंकि वह ख़ुद तो प्रीत नगर नहीं आ सके लेकिन उन्होंने अपने जीवन में शांतिनिकेतन के गुरुदयाल मलिक को यहां भेजा था। टैगोर के निधन पर अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध भारतीय लेखक मुल्कराज आनंद ने कहा था कि टैगोर की विरासत को चार लोग आगे लेकर गए हैं और गुरबक्श सिंह इनमें से एक हैं।
23 मई सन 1942 को कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरु, जो बाद में भारत के पहले प्रधानमंत्री बने, भी यहां आए थे और वह इसे देखकर बहुत प्रभावित हुए थे। महात्मा गांधी ने भी यहां आने की इच्छा व्यक्त की थी।
कहा जाता है कि सन 1944 में ऐसे ही एक प्रीत मिलनिस में देश के दो मशहूर कवि साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम की पहली मुलाक़ात हुई थी। हालंकि दोनों एक दूसरे को नाम से जानते थे । वह दोनों एक ही शहर लाहौर में रहते थे लेकिन प्रीत नगर में ही दोनों अजनबियों की पहली मुलाक़ात हुई और दोनों को प्रेम हो गया। कई लोगों का कहना है कि पहली मुलाक़ात शिद्दत और आदर्शवाद से भरी हुई थी। हल्की रौशनी वाले कमरे में दोनों की नज़रें मिलीं और फिर उन्हें प्रेम हो गया। हालंकि दोनों ने इसे सार्वजनिक रुप से कभी स्वीकार नहीं किया। बहरहाल, दोनों की प्रेम कहानी अलग और लंबी है जिसका प्रीत नगरी की इस कहानी में ज़िक्र करने की कोई ज़रुरत नहीं है।
ऐसे समय जब प्रीत नगर, प्रेम का प्रतीक बन रहा था और कई मेहमानों तथा सैलानियों का स्वागत कर रहा था, तभी सन 1947 में भारत के विभाजन के रुप में एक बड़ी त्रासदी हो गई जिसका असर प्रीत नगर पर पड़ा।
रेडक्लिफ़ लाइन के बाद 17 अगस्त सन1947 को दोनों देशों के बीच आधिकारिक रुप से सीमारेखा प्रकाशित हो गई और प्रीत नगर पाकिस्तान में चला गया क्योंकि मूल नक्शे में वह पाकिस्तान में था। लेकिन एक हफ़्ते के बाद सुधार के साथ ही ये वापस भारत में आ गया।
चूंकि ये नई नयी बई अंतरराष्ट्रीय सीमा के बहुत पास था इसलिए यहां हमेशा कोई न कोई संकट पैदा होता रहता था। पहले साम्प्रदायिक दंगे हुए और बमबारी हुई जिसकी वजह से लोग अमृतसर और दिल्ली जैसे सुरक्षित स्थानों में चले गए। एक्टीविटी स्कूल के बच्चों को भी वापस बुला लिया गया और इस तरह स्कूल की दीवारों से टकराकर लौटती हुई उनकी किलकारियां ख़ामोश हो गईं।
लेकिन जब स्थिति कुछ सामान्य हुईं तो गुरबक्श सिंह के परिवार सहित कुछ परिवार वापस जाकर प्रीत नगर में रहने लगे। लेकिन सन 1965 और फिर सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान प्रीत नगर फिर प्रीत विहीन हो गया। प्रीत नगर गांव पर सेना ने कब्ज़ा कर लिया और इसे लेकर कोई ख़ास विरोध भी नहीं हुआ। वो जगह जो कभी हिंदू और मुसलमानों की जन्नत हुआ करती थी, अब छावनी बनकर रह गई थी।
लेकिन गुरबक्श सिंह ने शहर में रहना जारी रखा और वह प्रीत लड़ी पत्रिका निकालते रहे। साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें सन 1971 में दिल्ली में साहित्य अकादमी की फ़ैलोशिप मिली। सन 1977 में उनका 82 साल की उम्र में निधन हो गया। प्रीत नगर में ही उनकी समाधी बनी हुई है।
उनके बाद उनके पुत्र नवतेज सिंह और पोते सुमित सिंह उर्फ़ शम्मी, प्रीत लड़ी पत्रिका का संपादन करते रहे। लेकिन सन 1980 के दशक में आतंवाद का दौर शुरु हो गया। नवतेज सिंह और शम्मी दोनों गुरबक्श सिंह की तरह निर्भीक थे और उन्होंने आतंकवाद का खुलकर विरोध किया। इस वजह से वे आतंकवदियों के निशाने पर थे और अंतत: दोनों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। आज गुरबक्श सिंह और उनकी पत्नी की समाधी के साथ इन दोनों की भी समाधी वहीं बनी हुई है।
गुरबक्श सिंह के पैतृक घर के अलावा रखरखाव के अभाव में शहर के बाक़ी मकानों और भवनों का महत्व ख़त्म हो गया है। कई अतिक्रमण का शिकार हुए और कई मकान ढ़हा दिए गए।
सन 90 के दशक के मध्य में जब पंजाब में शांति हुई तो गुरबक्श सिंह के वंशजों ने प्रीत नगर में फिर से सांस्कृतिक गतिविधियां शुरु करने के लिए एक ट्रस्ट “गुरबक्श सिंह नानक सिंह फ़ाउंडेशन” की स्थापना की ।
सन 2000 में प्रीत नगर के ऐतिहासिक तालाब के पास प्रीत भवन नाम का एक भवन बनाया गया जो गुरबक्श सिंह और उनके परिवार की समाधियों के पास है। इसमें एक पुस्तकालय, एक सभागार और एक खुला थियेटर है। भारतीय राजनयिक, पेंटर, फ़टोग्राफ़र और लेखक मदनजीत सिंह ने 16 जून सन 2004 को इसका उद्घाटन किया था। उस समय वह यूनेस्कों में सद्भावना राजदूत थे। एक ऐसा पद जिस पर वह सन 2013 यानी पनी मृत्यु तक बने रहे।
सन 2000 के शुरुआती वर्षों में परिवार ने न सिर्फ़ पुराने मकानों की मरम्मत करवा करवाई बल्कि सांस्कृतिक गतिविधियां शुरु कर दीं। साथ ही प्रीत नगर के समुदाय सेवा, शिक्षा और नव परिवर्तन के अनोखे सिद्धांतों को भी पुनर्जीवित कर दिया।
गुरबक्श सिंह की सबसे छोटी बेटी उमा गुरबक्श सिंह को पंजाब की सबसे युवा अभिनैत्री माना जाता है । वह जब सिर्फ़ 13 साल की थीं तब उन्होंने अपने पिता द्वारा सन 1939 में लिखित नाटक “राजकुमारी लतिका” में अभिनय किया था। वह प्रीत भवन की चैयरमैन बन गईं थीं और उनके दिशा-निर्देश में खुले थियेटर में लोगों के मनोरंजन तथा उन्हें शिक्षित करने के लिए हर महीने नाटक होने लगे। सन 23 मई सन 2020 को 93 की उम्र में उनका निधन हो गया। वह तब तक प्रीत भवन की चैयरमैन के पत पर क़ायम रहीं।
पंजाबी के नाटककार और रंगकर्मी केवल धालीवाल ने प्रीत नगर में न सिर्फ़ कई नाटको का निर्देशन किया है बल्कि शहर की कई तस्वीरें भी ली हैं जो शहर के संग्रहालय में हैं। दोनों देशों की सरकारों के कड़े रवैये के बावजूद 2009 से दोनों देश के अमन पसंद लोग यहां मिलते रहे हैं।
आज जहांगीर का ऐतिहासिक आरामगाह बहुत ख़राब हालत में है और जर्जर होता जा रहा है। कई स्थानीय लोग इसका इस्तेमाल अपने जानवरों को रखने लिए करते हैं जो इस समृद्ध मुग़ल स्मारक के साथ एक बड़ा मज़ाक है।
हालंकि आज प्रीत नगर का नक्शा और लोग पहले की तरह नहीं रहे लेकिन जो बचा रह गया है वो है प्रेम जो इस शहर से जुड़ा हुआ है। शहर में आज अगर खड़े हो जाएं तो आप गुरबक्श सिंह प्रीत लड़ी को अपने घर के बरामदे में नई कहानी लिखते या कवि और लेखकों को लोगों को अपनी रचनाएं सुनाते मेहसूस कर सकते हैं। यही नहीं आप लोगों के मज़ाक करते, खाना बनाते और एक बड़े परिवार की तरह साथ खाते भी मेहसूस कर सकते हैं। तमाम दुश्वारियों के बावजूद इस अनोखे शहर में, जिसका शाब्दिक अर्थ प्रेम नगरी है, साहित्य की ख़ुशबू महकती है।
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