भारतीय कविता या भारतीय साहित्य का इतिहास वैदिक काल से रहा है। भारत मे विभिन्न भाषाओं जैसे हिंदी, उर्दू, कन्नड़ आदि में कवितायें लिखी गयी जिसको पूरी दुनिया ने पढ़ा और सराहा । कविता भारत के भीतर विविध आध्यात्मिक परंपराओं को दर्शाती है।कवितायें साहित्य का सबसे पुराना रूप है और इसमें एक समृद्ध लिखित और मौखिक परंपरा है। आज हम आपको ऐसे ही 5 कवियों के बारे बताते हैं जिनका भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा
1- रामधारी सिंह दिनकर
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
दिनकर जिन्हें आज राष्ट्रीय कवि माना जाता है। रामधारी सिंह दिनकर का जीवन और साहित्य उनके संघर्ष और उनकी देशभक्ति की भावना को दर्शाता है। उनका और भारत के स्वतंत्रता सैनानियों की एक पीढ़ी का एक ही सपना था-कल्याणकारी और समावेषी भारत का निर्माण।
दिनकर का जन्म 23 सितम्बर सन 1908 को , बिहार के सिमरिया गांव में हुआ था, जो आज बिहार के बेगुसराय ज़िले में है। उनके परिजन किसान थे और उनका बचपन ग़रीबी में बीता। उनकी ग़ुरीबी को लेकर एक क़िस्सा बहुत प्रसिद्ध है। दिनकर स्कूल में पूरा दिन पढ़ाई नहीं कर पाते थे। उन्हें बीच में से ही स्कूल छोड़ना पड़ता था क्योंकि उन्हें अपने गांव जाने वाला अंतिम स्टीमर पकड़ना होता था। उनके पास हॉस्टल में रहने के लिए पैसे नहीं होते थे। तमाम मुश्किलों के बावजूद वह मेघावी छात्र थे और उन्होंने हिंदी,मैथली, उर्दू, बांग्ला और अंग्रेज़ी भाषाएं सीखीं।
दिनकर ने सन 1929 में पटना विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया। ये वो समय था जब पूरे देश में बदलाव की लहर चल रही थी और वह भी इससे अछूते नहीं रहे। स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ चुका था और जल्द ही दिनकर देशभक्ति और उनके आसपास जो घटित हो रहा था, उसे लेकर कविताएं लिखने लगे। उदाहरण के लिये उन्होंने गुजरात में सरदार पटेल के नेतृत्व वाले किसानों के सत्याग्रह के सम्मान में विजय संदेश नामक कविता लिखी। तब इस “सत्याग्रह को बारदोली” सत्याग्रह के नाम से जाना जाता था।और पढ़ें
2- फ़िराक़ गोरखपुरी
बस इतने पर हमें सब लोग दीवाना समझते हैं
कि इस दुनिया को हम इक दूसरी दुनिया समझते हैं
ये शेर उर्दू के मशहूर शायर, गद्य लेखक और आलोचक रघुपति सहाय फ़िराक़ का है जिनका जन्म 28 अगस्त सन 1896 में हुआ था। उर्दू साहित्य में इन्हें एक बहुत ऊंचा दर्जा हासिल है और उनके जीवनकाल में ही उनके साहित्य को बहुत सराहा जाता था। रघुपति सहाय का हालंकि प्रोविंशियल सिविल सर्विस (पीसीएस) और इंडियन सिविल सर्विस में चयन हो गया था लेकिन गांधी जी के आव्हान पर वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये जिसके लिये उन्हें अंग्रेज़ों ने जेल में भी दाल दिया था । बाद में वह इलाहबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक बन गए। रघुपति सहाय फ़िराक़ का सम्बंध उर्दू शायरों की उस बिरादरी से थे जिनकी शायरी सुनकर लोग अपने सिर धुनने लगते थे और शब्दों के दिव्य रस का आनंद लेते हुये उनकी प्यास कभी बुझती नहीं थी।
रघुपित सहाय फ़िराक़ के पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था जो गोरखपुर के रहने वाले थे। फ़िराक़ की मां उनके पिता की तीसरी पत्नी थी। पहली दो पत्नियों का निधन हो चुका था। कुल मिलाकर वह आठ भाई बहन थे । पांच भाई और तीन बहनें ।
फ़िराक़ की उर्दू शायरी में बहुत दिलचस्पी थी और शुरुआती दिनों से ही उर्दू साहित्य में उनकी प्रतिभा झलकने लगी थी। अल्लामा इक़बाल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, कैफ़ी आज़मी और साहिर लुधियानवी जैसे उर्दू के मशहूर शायर उनके समकालीन थे। सन 1913 में गोरखपुर गवर्मेंट जुबली हाई स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने इलाहबाद के मुइर सेंट्रल कॉलेज में दाख़िला ले लिया जहां से उन्होंने उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। उनका चयन इंडियन सिविल सर्विसेज़ में हो गया था लेकिन महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के आव्हान पर अन्य प्रमुख शायरों के साथ वह भी अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में शामिल हो गए। बाग़ी तेवरों के वजह से उन्हें सन 1920 में 18 महीने की जेल की सज़ा हुई। सन 1923 में जवाहरलाल नेहरु के कहने पर वह भारतीय राष्ट्रीय कांगेस के अवर सचिव बन गए।और पढ़ें
3- साहिर लुधियानवी
क्या आप ये जानते हैं कि “कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं”, “मेरे दिल में आज क्या हैं तू कहें तो मैं बता दूँ”, “जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा”, “तुम अगर साथ देने का वादा करो”, “ए मेरी ज़ोहराजबीं तुझे मालूम नहीं”, “नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले”, “अभी ना जाओ छोड़कर, के दिल अभी भरा नहीं” ऐसे सैकड़ों मधुर प्रेमगीतों के रचनाकार साहिर लुधियानवी का जन्म संयोग से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन यानी ८ मार्च को हुआ था। जानिए साहिर के क़लम से उतरी नारी-जगत के कई पहलुओं को उजागर करती हुयी उनकी कुछ नज़्में –
साहिर लुधियानवी का जन्म ८ मार्च सन १९२१ को लुधियाना (पंजाब) के एक जागीरदार घराने में हुआ। साहिर का असली नाम अब्दुल हयी था । पिता फ़ज़ल मोहम्मद की ग्यारहवीं बीवी सरदार बेग़म उनकी मां थीं। साहिर उनका पहले और इकलौते बेटे थे । इसी कारण उनकी परवरिश बड़े प्यार से हुई।
लेकिन अभी वह बच्चे ही थे कि सुख के सारे दरवाज़े उसके लिए एकाएक बंद हो गए । फ़ज़ल मोहम्मद को अपनी बेशुमार दौलत पर ग़ुरुर था, उसी की वजह से उनकी अय्याशियाँ भी बढ़ने लगीं और उन्होंने बारहवीं शादी करने का फ़ैसला किया। अपने पति की इन अय्याशियों से तंग आकर साहिर की माँ ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया । चूँकि लाहौर की अदालत में, १३ साल के साहिर ने पिता के मुक़ाबले माँ को अहमियत दी थी, इसलिए उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी माँ को सौंपी गयी । नतीजे में साहिर का अपने पिता और उनकी जागीर से कोई संबंध नहीं रहा । इसी के साथ साहिर और उनकी मां, दोनों का कठिनाइयों और निराशाओं का दौर शुरू हो गया ।और पढ़ें
4 – अमृता प्रीतम
आज मैंने, अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा, गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की, दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है तो हर देश के,
हर गली का द्वार खटखटाओ
अगर अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व को एक वाक्य में बयां करना हो तो कहा जा सकता है कि वह एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने ज़िंदगी उसी तरह जी जैसी उन्होंने कल्पना की थी।
पंजाबी की प्रमुख महिला कवयित्री, अमृता ने प्रेम, महिला और भारत के विभाजन पर लिखी कविताओं से लाखों लोगों के दिलों में जगह बनाई। दो टूक और तंज़ों-ओ-मज़ाह से भरी उनकी गंभीर कविताओं के लिये जहां उनकी तारीफ़ हुई वहीं आलोचना भी हुई। उनकी निजी ज़िंदगी को लेकर भी कई तरह की बातें कहीं जाती थीं। उन्होंने शादी किसी और से की, प्यार किसी और से और रहीं किसी तीसरे के साथ। लेकिन इसके बावजूद उन्हें पंजाबी साहित्य में वो मर्तबा मिला जिसकी वो हक़दार थीं। उनके शब्दों ने राजनीतिक, सामाजिक, जातीय और काल की सीमाओं को फ़लांगा है। हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसी महिला के बारे में जिसने ऐसी किसी सामाजिक परंपरा की परवाह नहीं की जिसमें उनका दम घुटता था। उनके बेबाक और बेख़ौफ़ साहित्य ने 20वीं शताब्दी के भारतीय साहित्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है।
अमृता का जन्म 31 अगस्त सन 1919 में पंजाब के गुजरांवाला प्रांत (अब पाकिस्तान में) में हुआ था और उनका नाम अमृता कौर था। उनकी मां राज बीबी स्कूल टीचर थीं और पिता करतार सिंह हितकारी धार्मिक विद्वान थे। अमृता पने माता पिता की आकलौती संतान थीं। लेकिन दुर्भाग्य से अमृता जब सिर्फ़ 11 साल की थीं, तभी उनकी मां का देहांत हो गया। अकेलेपन और ज़िम्मेदारियों के बोझ की वजह से अमृता का रुझान लेखन की तरफ़ चला गया। काग़ज़ पर अपने जज़्बात का इज़हार करने की उन्हें वो आज़ादी मिली जिनका इज़हार वो अपने क़रीबी लोगों से भी नहीं कर पाती थीं।
सन 1936 में जब अमृता 16 साल की हुईं तो उनकी शादी लाहौर में ही, होज़री के दुकानदार वाले के बेटे प्रीतम सिंह से हो गई। शादी के एक साल बाद उनकी कविताओं का पहला संकलन “अमृत लहरें” प्रकाशित हुआ। जल्द ही उनके परिवार में दो बच्चों का जन्म हुआ लेकिन वह शादी से ख़ुश नहीं थीं और वह शायरी की दुनिया डूब गईं थीं। सन1936 और 1943 के बीच उनकी कविताओं के आधा दर्जन संकलन प्रकाशित हो चुके थे।
अमृता प्रगतिशील लेखक संघ की सदस्य बन गईं और सामाजिक विषयों पर कविताएं लिखने लगीं। अमृता ने अपनी प्रेम कविताएं लिखने की शुरुआत तो निजी जीवन के ख़ालीपन से शुरु की थीं लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद वह समाजिक और राजनीति के क्रूर सच के बारे में भी लिखने लगीं। उदाहरण के लिये उनके कविता संकलन “लोक पीड़ ” में उन्होंने सन 1943 में, बागाल में पड़े भयानक सूखे के बाद सामने आई बरबाद अर्थव्यवस्था की जमकर आलोचना की।और पढ़ें
5 – मजाज़ लखनवी
ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं
जिंस-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फ़ित्ना-ए-अक़्ल से बे-ज़ार हूँ मैं
ख़्वाब-ए-इशरत में हैं अरबाब-ए-ख़िरद
और इक शाइर-ए-बेदार हूँ मैं
छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-अलम
साज़-ए-फ़ितरत का वही तार हूँ मैं
मजाज़ की इन पंक्तियों का इस्तेमाल अक्सर उनका परिचय करवाने के लिये किया जाता है। “ मजाज़ लखनवी” मजाज़ का तख़ल्लुस (उपनाम) था और उनका शुमार उर्दू अदब के सबसे बड़े और मशहूर शायरों में होता है। मजाज़ का जन्म 2 फ़रवरी 1909 अवध (बाराबंकी ज़िला) के एक छोटे से क़स्बे रुदौली में में हुआ था। उनका परिवार हालंकि ज़मींदार था लेकिन माली हालत (वित्तीय स्थिति) कोई ख़ास नहीं थी। उनके परिवार में अवधी बोली जाती थी। यहां उस समय वह ज़मींदार रहा करते थे जिनका तआल्लुक़ बहुत ही पारंपरिक समाज से होता था लेकिन उनके सामंती समाज में बदलाव होने लगा था।इस ज़िले ने देश को कई साहित्यिक हस्तियां दी हैं।मजाज़ जब आठ साल के थे तभी एक हादसे में उनके 18 साल के भाई का निधन हो गया जिसका उनकी मानसिकता पर गहरा असर पड़ा। बड़े बेटे के असामयिक निधन से मजाज़, मां के और लाडले हो गए थे।
मजाज़ का बचपन रुदौली में बीता जहां उन्होंने बुनियादी तालीम हासिल की और फिर लखनऊ के आमिर – उद-दौला कॉलेज से हाई स्कूल की परीक्षा पास करी । बीस के दशक के उत्तरार्ध में उनके पिता का तबादला आगरा हो गया जहां सेंट जॉन कॉलेज (1929-1931) में मजाज़ ने दाख़िला ले लिया । आगरा में उनकी मुलाक़ात फ़ानी बदायुंनी और जज़्बी जैसे शायरों से हुई। यहीं से उर्दू शायरी में उनकी प्रतिभा दिखाई देने लगी थी ओर दूसरे तऱफ स्कूल की पढाई पे कम वक़्त देने लगे, जिसके चलते वह अपने इम्तहान मे अच्छा न कर सके।और पढ़ें
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