मध्य प्रदेश के खरगोन ज़िले में, बसा है एक छोटा सा गांव, रावेर खेड़ी। भारत के अनगिनत छोटे गावों की तरह , पहली नज़र में आपको इसमें कोई विशेषता नज़र नहीं आएगी | छोटे घर ,चरते हुए मवेशी और कपास से लहराते खुले खेत | पर बहुत कम लोग जानते हैं कि , सौ से भी कम आबादी वाले इसी गांव में स्थित है , मराठा योद्धा और शासक पेशवा बाजीराव प्रथम की समाधी । जो उपेक्षा का शिकार है।
पेशवा बाजीराव प्रथम (१७०० – १७४०) को , भारत के सबसे वीर और प्रतापी सेनानायकों में से एक माना जाता है | उनका जन्म १८ अगस्त सन १७०० में हुआ था | उनके पिता पेशवा बालाजी विश्वनाथ तब सातारा में, मराठा छत्रपति शाहू महाराज के पेशवा थे | सन १७२० में बालाजी विश्वनाथ की अचानक मृत्यु के बाद छत्रपति शाहू ने २० वर्ष के बाजीराव को अपना पेशवा बनाया | बाजीराव ने अपने कुशल नेतृत्व और रणकौशल के बल पर मराठा साम्राज्य का विस्तार किया |
तब मालवा और नर्मदा के तट पर स्थित निमाड़ प्रदेश , मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था | बाजीराव ने मुग़लों के साथ जंग कर, सन १७३७ में इसे जीता और अपने तीन सरदारों सिंधिया , होल्कर और पवार में बाट दिया | अगले वक़्त में इन्हीं सरदारों ने अपनी स्वतंत्र रियासतें बनालीं – ग्वालियर , इंदौर और देवास जो १९४७ तक अस्तित्व में रहीं |
बाजीराव घुड़सवार की तरह लड़ने में सबसे माहिर थे। अपनी इसी कुशलता के बल पर उन्होंने एक के बाद एक जीत हासिल की | जानेमाने अंग्रेज़ी इतिहासकार और ब्रिटिश सेना के जनरल, फ़ील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ वारफ़ेयर ‘ में पेशवा बाजीराव को दुनिया का सबसे बेहतरीन जनरल और युद्ध नीतिकार बताया है | अपनी किताब में मोंटगोमरी ने उदाहरण के रूप में सन १७२८ में, मराठों और मुग़लों के बीच , पालखंड की जंग का वर्णन ‘अ मास्टर पीस ऑफ़ स्ट्रेटेजिक मोबिलिटी’ के रूप में किया है |
बाजीराव ने बड़ी कुशलता से, एक बड़ी मुग़ल फ़ौज को आसानी से परास्त कर दिया था | उस दौर में पेशवा बाजीराव ने कुल 41 लड़ाईया लड़ीं और एक भी नहीं हारी |
बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल, बाजीराव को अपना पुत्र मानते थे | दिसंबर 1728 में मुग़ल सूबेदार मोहम्मद खान बंगश ने जब बुंदेलखंड पर हमला किया तब बाजीराव ने छत्रसाल की मदद की | कृतज्ञ छत्रसाल ने अपना एक तिहाई राज्य बाजीराव को इनाम में दे दिया | यह भी माना जाता है कि छत्रसाल ने अपनी बेटी का विवाह बाजीराव से किया , जिसका नाम मस्तानी था | बाजीराव मस्तानी की प्रेम कहानी काफ़ी लोकप्रिय है , पर वह कितनी सच है या कितनी काल्पनिक यह कहा नहीं जा सकता |
इसी गांव मे २८ अप्रैल १७४० को पेशवा बाजीराव का निधन हुआ था । इस जगह को इसलिए चुना गया था क्यों कि यहां पर नर्मदा नदी की गहराई बाक़ी जगहों की तुलना काफ़ी कम थी | अपनी उत्तर भारत की मुहिम के दौरान मराठा फ़ौज यहीं से नर्मदा पार करती थी | यहाँ पर उनका डेरा भी लगता | एक बार नर्मदा पार करते हुए पेशवा बाजीराव को बुख़ार चढ़ा और उसी से उनका निधन हो गया | वह सिर्फ़ चालीस साल के थे | यहीं पर उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया |
उनकी याद में, उनके सरदार महादजी सिंधिया ने, नर्मदा के तट पर, एक समाधी की स्थापना की जो आज भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। बाजीराव की समाधी के पास दो छोटे मंदिर भी बनाए गए थे | यहाँ पेशवाओं का एक बड़ा वाड़ा भी था जिसके सिर्फ़ कुछ अवशेष बचे हैं |
एक समय था जब सिर्फ़ कुछ इतिहास प्रेमी ही पेशवा बाजीराव की कहानी जानते थे। पर २०१५ में बनी हिंदी फ़िल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ के बाद, पूरे देश को पेशवा बाजीराव की कहानी में दिलचस्पी पैदा हुई | उसी के बाद से पुणे के शनिवारवाड़ा (बाजीराव का निवास स्थान) मे पर्यटकों की भीड़ बढ़ी गई , लेकिन दूसरी तरफ़ रावेर खेड़ी में उनकी समाधी आज भी उपेक्षा की शिकार है। इसका अनुमान आप इससे भी लगा सकते हैं कि यहा पहुंचने के लिए एक पिछले साल ही पक्की सड़क बन पाई है |
आज रावेर खेड़ी की इस ऐतिहासिक समाधी को सबसे बड़ा खतरा है, उसके समीप बने मंडलेश्वर बांध से ।
स्थानीय पुरातत्व कार्यकर्ता, गौरव मंडलोई , जिन्होंने रावेर खेड़ी समाधी के संरक्षण के लिए काफ़ी लड़ाई लड़ी है, , ने लिव हिस्ट्री इंडिया को बताया कि मंडलेश्वर बांध का मुक़दमा अभी अदालत में चल रहा है। बांध का काम लगभग पूरा हो चुका है पर अभी जलद्वार नहीं लगे हैं। अगर बांध के जलद्वार खोल दिए जायें तो नर्मदा का पानी समाधी तक पहुंच जायेगा | क्योंकि वहां सुरक्षा के लिए कोई दीवार भी नहीं बनी है, इसलिए बारिश के मौसम में, समाधी के डूबने का ख़तरा है। समाधी को स्थानांतरित करने का एक प्रस्ताव भी था, लेकिन उस स्थान के महत्व के कारण, ऐसा करना शायद संभव नहीं होगा। आज, नर्मदा तट के एकांत में, पेशवा बाजीराव की समाधी अपनी क़िस्मत के फ़ैसले का इंतज़ार कर रही है।
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