सीताबुल्दी क़िला: इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय का गवाह

सीताबुल्दी क़िला: इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय का गवाह

नागपुर भारत के सबसे आधुनिक और सबसे तेज़ी से विकसित होने वाले शहरों में से एक है।नागपुर ने भारतीय इतिहास, और राजनीति में अहम किरदार अदा किया है,  लेकिन कम ही लोग जानते हैं, कि यहां एक ऐतिहासिक क़िला भी है, जिसकी कहानी भी दिलचस्प है। नागपुर रेल्वे स्टेशन से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित सीताबुल्दी क़िला नागपुर के हलचल भरे बाज़ारों के बीच है।यह क़िला शहर के इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय का गवाह रहा है।

कहा जाता है, कि नागपुर शहर को, गोंड राजकुमार बख़्त बुलंद शाह (जन्म और मृत्यु अज्ञात) ने अपनी राजधानी के रूप में बसाया था। उसी दौर, यानी 18वीं शताब्दी की शुरुआत में यहां कई तालाब और झीलें बनवाईं गईं थीं।उनमें से दक्षिणी और पूर्वी किनारों पर तटबंध के साथ एक टैंक था, जुम्मा टैंक। जुम्मा टैंक का जलग्रहण क्षेत्र पश्चिमी पहाड़ियों पर था, जिसे सीताबुल्दी कहा जाता था। भीतरी संघर्षों के बाद छत्रपति शिवाजी (1630-1680) के शासन के दौरान सरदार के रूप में उभरे रघुजी भोंसले (शासनकाल 1739-1755) के नेतृत्व में मराठों ने न सिर्फ़ हस्तक्षेप किया, बल्कि देवगढ़ और चंदा जैसे क्षेत्रों सहित नागपुर पर भी कब्ज़ा कर लिया। 18वीं शताब्दी  के अंत में जब मराठा कई हिस्सों में बंट गये, तो नागपुर भोंसले का गढ़ बन गया।

बख्त बुलंद शाह | विकिमीडिआ कॉमन्स

लेकिन परिदृश्य तब बदल गया, जब भारतीय उपमहाद्वीप में धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहे अंग्रेज़ों ने मराठा राजनीति में दख़ल देना शुरू कर दिया। इसकी वजह से दोनों पक्षों के बीच संघर्ष होने लगे। दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध (1802-03) के दौरान अडगांव (29 नवंबर1803) की लड़ाई जीतने के बाद अंग्रेज़ो और मराठा राजाओं के बीच 17 दिसंबर सन1803 में देवगांव संधि हुई, और रघुजी भोंसले-द्वितीय (शासनकाल 1788-1816) ने अपने दरबार में अंग्रेज़ अफ़सर की नियुक्ति स्वीकारकर उसे, छोटी सैन्य चौकी वाले गांव सीताबुल्दी में एक निवास दे दिया। अंग्रेज़ों ने यहां पहुंचने के बाद एक रेज़ीडेंसी बना ली।

द्वितीय एंग्लो- मराठा युद्ध | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1811के अंतमें पिंडारियों ने नागपुर पर हमला कर दिया। इसके बाद भोंसले ने अंग्रेज़ों से दख़ल देने को कहा। अंग्रेज़ों को उम्मीद थी, कि उनके हस्तक्षेप और उनके सैनिकों की तैनाती से भौंसले के साथ स्थायी संधि हो जायेगी, और उन्हें हर्जाने में पैसा भी मिल जायेगा । लेकिन भोंसले ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया।लेकिन जब पिंडारियों ने नागपुर के उत्तरी भाग को जला डाला, तब ब्रिटिश निवासियों ने अंग्रेज़ों से मदद की गुहार लगाई। लेकिन बरार से मदद पहुंचने के पहले ही पिंडारी भाग गए।फिर भी भविष्य में संभावित हमलों के ख़तरों को देखते हुए अंग्रेज़ों ने रेज़ीडेंसी के आसपास सेना तैनात कर दी।

सन 1816 में रघुजी-द्वितीय की मृत्यु के बाद उनके विकलांग पुत्र पारसोजी ने सत्ता संभाली । लेकिन तख़्त पर किसी सक्षम उत्तराधिकारी को बैठाने के लिए नागपुर दरबार में सत्ता संघर्ष शुरु हो गया। इस संघर्ष के दौरान मुधोजी भोंसले प्रथम (शासनकाल1816-1818) ने अंग्रेज़ों की मदद ली, और उनके साथ “सहायक गठबंधन समझौता” कर लिया। लेकिन जब सन 1817 में पारसोजी की मृत्यु हो गई, और मुधोजी शासक बन गये, तो उन्होंने अंग्रेज़ों को अपने इलाक़ों से बाहर निकालने का फ़ैसला किया ।इसके लिए उन्होंने पेशवाओं और सिंधिया शासकों के साथ मिलकर एक योजना बनाई।

मुधोजी भोसले द्वितीय, अप्पासाहेब | विकिमीडिआ कॉमन्स

अंग्रेज़ जब पिंडारी युद्ध (1817-18) में व्यस्त थे, मराठों ने एकजुट होकर 26 नवंबर सन 1817, को सीताबुल्दी पर हमला कर दिया, जिसमें अंग्रेज़ों की जीत हुई। दोनों के बीच 16 दिसंबर सन 1817 को सक्करदरा में फिर युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज़ों की फिर जीत हुई और उन्होंने नागपुर पर कब्ज़ा कर लिया। इसी प्रकार 6 जनवरी सन 1818, को एक और संधि हुई, जिसके प्रावधानों के तहत अंग्रेज़ों का सीताबुल्दी पहाड़ियों, गांव और आसपास के क्षेत्रों पर कब्ज़ा हो गया।

इसके बाद अंग्रेज़ों ने भविष्य में संभावित युद्धों की आशंकाओं को देखते हुए सीताबुल्दी में एक क़िला बनाने का फ़ैसला किया । इसके लिये 11एकड़ ज़मीन चुनी गई, जहां नागपुर सब्सिडियरी फ़ोर्स तैनात थी।नर्मदा के दक्षिण को नियंत्रित करने के लिए ख़ाली जगहों पर तम्बूओं की क़तार, परेड, बाज़ार, अस्पताल, और घुड़सेना के लिए निशानदही कर दी गयी। क़िले की योजना मद्रास पायनियर डिवीज़न ने तैयार की थी।

सन 1820 के दशक में क़िले का निर्माण किया गया। इसमें आयताकार काले बेसाल्ट का प्रयोग किया गया। इसकी एजबेस्टो की सपाट छत परचूना पत्थर का पलस्तर किया गया था। दीवार नौ फ़ुट मोटी थी, जो पहाड़ियों की ढ़लानों के अनुसार अलग अलग ऊंचाई की थी। क़िले में चार गोलाकार बुर्ज थे, जिनमें से एक का नागपुर पुलिस चैकपोस्ट, और नागपुर नगर निगम की पानी की टंकी के रूप में संयुक्त रुप से उपयोग होता है, जबकि अन्य बुर्जों का इस्तेमाल अब प्रादेशिक सेना की 118वीं रेजिमेंट के ऑफ़िसर्स मेस, और गेस्ट हाउस के रूप में किया जाता है। माना जाता है, ये तीन बुर्ज सबसे आख़िर में यानी सन1878 मेंबनायेगये थे।

सन 1853 में रघुजी भोंसले-तृतीय की मृत्यु के बाद, शाही ख़ज़ाना सीताबुल्दी क़िले में रखवाया गया। जिसकी वजह से नागपुर के सैनिकों और नागरिकों में असंतोष पैदा हो गया। इसे देखते हुए पास के कामठी में तैनात जवानों को सीताबुल्दी क़िले में बुलाया गया।इस बार, नागपुर सहायक फ़ोर्स को समाप्त कर दिया गया, लेकिन मद्रास देसी घुड़सवार और पैदल सेना की टुकड़ियों को नियमित सेना के रूप में शामिल कर लिया गया।

उसी समय, अंग्रेज़ भारतीय उपमहाद्वीप में मज़बूत हो रहे थे, और इस क्षेत्र पर प्रभुत्व ज़माने के लिये अपनी दमनकारी नीतियों और व्यवहार से भारतीयों का शोषण कर रहे थे।भारतीयों के भीतर आक्रोश सन1857 के विद्रोह के रूप में सामने आ रहा था।मेरठ और दिल्ली की घटनाओंके बारे में जानने के बाद नागपुर की घुड़सवार सेना ने 13जून, सन1857 को सीताबुल्दी क़िले में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोहकीयोजना बनाई, जिसके तहत घुड़सवार सैनिकों को,उत्तर में विद्रोहियों से मिलना था।लेकिन वरिष्ठ अंग्रेज़ अफ़सरों को इसकी सूचना मिल गई और उन्होंने हमले से बचाव के लिए तैयारी की और18 तोपें तैनात कर दी गईं।

अंग्रेज़ों ने तुरंत कारवाई करते हुये सभी संदिग्ध इकाइयों को निहत्था कर दिया, और प्रमुख सैनिकों का या तो कोर्ट मार्शल किया गया, या उन्हें फांसी पर लटका दिया गया, और या फिर उन्हें निर्वासित कर दिया गया।कहा जाता है, कि 30 जून 1857 को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने के जुर्म में क़िले की पूर्वी दीवार पर लगभग नौ लोगों को फांसी पर लटकाया गया था, ताकि लोग अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत का नतीजा देख सकें। जिस स्थान पर नौ लोगों को फांसी दी गई थी, वहॉ एक दरगाह है, जिसे ‘नव गज अली बाबा’ की दरगाह के रूप में जाना जाता है। उन शहीदों की क़ब्रों को हरे रंग से रंगा गया है।

जब ब्रिटिश सरकार ने भारत की सत्ता संभाली, तो नागपुर अनियमित पुलिस बल को भंग कर एक नये पुलिस बल का गठन किया गया। जिन लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया था, उनके मन में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा था । उनके ग़ुस्से को देखते हुए क़िले में पैदल सेना के साथ लगभग पांच तोपें तैनात कर दी गईं थीं।एक लोहे की बंदूक़, दो पीतल की बंदूक़ें और दो लोहे के मोर्टार तैनात कर दिये गये थे। कामठी से भी सैनिकों को भी इस काम में शामिल कर लिया गया था। हालांकि इनके इस्तेमाल की कोई नौबत नहीं आई।

लगभग 54 वर्षों के बाद किंग जॉर्ज-पंचम और क़्वीन मैरी नागपुर आए थे। तब सीताबुल्दी क़िले में ही उनकी मेज़बानी की गई थी। उन्होंने क़िले के पूर्वी हिस्से से ही लोगों को संबोधित किया था। क़िले ने 15 अप्रैल से 23 मई सन 1923 के बीच लगभग 36 दिनों तक महात्मा गांधी की भी मेज़बानी की थी,लेकिन क़ैदी के रूप में।गांधी जी को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार करके यहां लाया गया था।

नियमित सेना के जवानों को सेवा मुक्त करने के बाद उन्हें नागरिक प्रशासन की सहायता के लिए तैनात कर दिया गया था।इसके लिये अंग्रेज़ों ने अगस्त सन 1939 में सीताबुल्दी क़िले में 7 केंद्रीय प्रांत (सी पी) शहरी बटालियन इंडियन टेरेटोरियल फ़ोर्स का गठन किया था। इसकी अन्य कंपनी को अमरावती में तैनात किया गया था। सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद,सन 1949 में, इसे 118 बटालियन (टेरेटोरियल आर्मी) के रूप में पुनर्गठित किया गया था।

सीताबुल्दी किला (वर्तमान काल) | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1956 में नागपुर,महाराष्ट्र राज्य का हिस्सा बन गया, और इसकी सैन्य क्षमता के कारण सीताबुल्दी क़िले को प्रादेशिक सेना ने अपने नियंत्रण में ले लिया, और उसकी 118वीं रेजिमेंट क़िले में रहने लगी। यह क़िला, 26 जनवरी, 1 मई (महाराष्ट्र दिवस), और 15 अगस्त के दिन आम जनता के लिए खोल दिया जाता है।

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