सदियों से भारत अपनी स्वतंत्रता और विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए इंसानियत और बराबरी के अपने बुनियादी आदर्शों पर चलता आया है। भारत के इन्हीं आदर्शों ने, 20वीं सदी में भौगोलिक सीमाओं को पार कर लिया। महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रमुख नेताओं, यहां तक कि डॉ.पांडुरंग खानखोजे जैसे क्रांतिकारियों ने भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चल रहे आंदोलनों को अपना समर्थन दिया। इन्हीं में एक क्रांतिकारी थे , जिन्होंने अपने शुरुआती वर्षों के दौरान गांधीवादी सिद्धांतों के साथ अपना संघर्ष शुरू किया था। बाद में उन्होंने किसी और देश में चल रहे आंदोलन में हिस्सा लिया जहां वह नाज़ियों द्वारा मारे गए। वह थे मिश्लेट माधवन।
माधवन केवल 28 साल के थे, जब जर्मंन तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर की सेना ने उनकी हत्या कर दी थी। अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान उन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए और भारत में रहते हुए पहले फ़्रांसीसी शासन और बाद में फ्रांस में रहते हुए जर्मन हुकूमत के ख़िलाफ़ भी काम किया था। हालांकि कुछ दस्तावेज़ों में दावा किया गया है, कि वह नाज़ियों के हाथों मारे जाने वाले एकमात्र भारतीय थे, लेकिन क्रांतिकारी चम्पकरमन पिल्लई और ब्रिटिश जासूस नूर इनायत ख़ान जैसे अन्य भारतीय भी थे, जो नाज़ियों के हाथों मारे गए थे।
माधवन का जन्म 7 जुलाई, सन 1914 को केरल के माहे में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। माहे, पांडिचेरी, यनम (आंध्र प्रदेश) और चंदननगर (पश्चिम बंगाल) के साथ भारत में उन चार उपनिवेशों में से एक था, जो 18 वीं शताब्दी से फ़्रांस के अधीन थे। माधवन के पिता का नाम मिश्लेट गोविंदन और मां का नाम पेरुन्थोडी मथु था। उनकी एक बहन रेवती और तीन भाई-कृष्णन, भारतन और मुकुंदन थे।
माधवन नौजवानी के दिनों से ही स्वतंत्रता संग्राम के साथ जुड़ गए थे हालांकि उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां कोई ख़ास लिपिबद्ध नहीं हैं। सन 1931 में जब वह 16 साल के थे, तभीवे फ़्रेंच इंडिया की यूथ लीग में शामिल हो गए थे। यह एक ऐसा संगठन था जिसका उद्देश्य, फ़्रांस के क़ब्ज़े वाले भारतीय क्षेत्रों को आज़ाद कराना था। अगले साल,सन 1932 में वह हरिजन सेवक संघ में शामिल हो गए, जिसकी स्थापना महात्मा गांधी ने अछूत उन्मूलन और समाज के कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए की थी। सन 1934 में जब वह माहे में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, तब महात्मा गांधी ने वहां का दौरा किया था। गांधी की उस यात्रा का मक़सद निम्न-जाति समुदाय के लिए सामाजिक सुधारों के उत्थान था। उनकी यात्रा का माधवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
माधवन पांडिचेरी में अपनी माध्यमिक शिक्षा की पढ़ाई के दौरान गांधी के आदर्शों का अनुसरण करते हुए हरिजन सेवक संघ में सक्रिय हो गए, जिसका उद्देश्य निचली जाति के लोगों को शिक्षा मुहैया कराने और उन्हें मंदिरों में प्रवेश दिलाने में मदद करना था। सामाजिक समानता के बारे में जागरूकता फैलाने जैसी अन्य गतिविधियों के अलावा वह अपनी कक्षाओं के बाद शाम को लगने वाले स्कूलों में समाज के हाशिए पर खड़े बच्चों को पढ़ाते भी थे।
उस समय, फ़्रांसीसी उपनिवेश द्वारा प्रतिभाशाली छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए पेरिस के प्रतिष्ठित सोरबोन विश्वविद्यालय में अपने ख़र्च पर भेजने की परम्परा थी। ख़ास बात यह थी कि उच्च शिक्षा के लिए सोरबोन विश्वविदियालय भेजे गए अन्य फ़्रांसीसी उपनिवेशों के कुछ ऐसे छात्रों को भी शामिल किया गया जो बाद में उनके ‘प्रायोजकों’ के ख़िलाफ़ हो गए थे!
माधवन ने,सन 1937 में विश्विद्यालय में दाख़िला लिया। यहां वह गणित पढ़ रहे थे या इंजीनियरिंग, इसे लेकर परस्पर विरोधी दावे हैं। वह रुए एमिल-ड्यूशच दे-ला-मूर्थे में छात्रों के एक होटल, सिट यूनिवर्सिटी में रहते थे। उसी साल अपने प्रवास के दौरान वह साथी क्रांतिकारी वरदराजुलु सुब्बैया से मिले जो सामाजिक उत्थान पर उनके विचारों से प्रभावित हो गए। स्वदेश वापसी पर सुब्बैया कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ फ़्रैंच इंडिया के सचिव बने।
यह वह समय था जब जर्मनी में एडॉल्फ हिटलर के नेतृत्व में, नाज़ी यूरोप में एक बड़ी ताक़त के रुप में ऊभर रहे थे और इसी वजह से जंग के बादल गहराने लगे थे। आख़िरकार दूसरा विश्व युद्ध (1939-1945) छिड़ गया। उधर, समाजवाद और साम्यवाद के आदर्शों के प्रति झुकाव वाले फ़्रांस में, माधवन फ़्रैंच कम्युनिटी पार्टी में शामिल हो गए। हालांकि उनके योगदान के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन यह सच है कि वरिष्ठ मार्क्सवादी चिंतक जॉन पॉल साटरे के साथ माधवन ने सक्रिय रूप से नाज़ी जर्मनों के ख़िलाफ़ आंदोलनों में भाग लिया। जब नाज़ियों ने फ़्रांस पर हमला (1940) किया, तो उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां और बढ़ गईं। वह लीसी बफ़न (एक शैक्षणिक संस्थान) में एक प्रतिरोध समूह में शामिल हो गए और नाज़ी-विरोधी पर्चे बांटने जैसी गतिविधियों को अंजाम देने लगे। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां आख़िरकार, 9 मार्च,सन 1942 को तब समाप्त हो गईं जब उन्हें उनके 115 साथियों के साथ एक विशेष नाज़ी ब्रिगेड ने गिरफ़्तार कर, नाज़ी गुप्त पुलिस गेस्टापो को सौंप दिया। उन्हें पेरिस के चेरखे मिडी जेल में क़ैद किया गया और फिर अगस्त, सन 1942 में रोमेनविल क़िले में स्थानांतरित कर दिया गया।
जेल में माधवन को नाज़ियों के ख़िलाफ़ उनकी भूमिका के लिए अमानवीय यातनाएं दी गईं। महत्वपूर्ण बात यह थी, कि उनके कई दोस्तों ने उनसे कहा था कि वह ख़ुद को भारतीय मूल का बताकर, नाज़ियों के चुंगल से बच सकते हैं। लेकिन माधवन, मानवता के लिए अत्याचारी शासन के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष पर क़ायम रहे और ख़ुद को फ़्रांसीसी नागरिक बताते रहे।
स्थिति तब और बिगड़ गई जब 17 सितंबर, सन 1942 को पेरिस के रेक्स सिनेमा में एक बम विस्फोट हुआ जिसमें 17 नाज़ी घायल हो गए। इस बात से नाज़ी और भड़क गए। एक साथी क़ैदी की डायरी के अनुसार, प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक, पिअर सर्ज चाउमॉफ, माधवन और उनके कुछ साथियों को जेल में रखे गए अन्य लोगों से अलग कर दिया गया था। वहां एक होटल की एक महिला वेटर गिज़ल मॉलेट को भी रखा गया, जिसके साथ माधवन युद्ध के बाद शादी करना चाहता थे। इन लोगों को हथकड़ी लगाई गई और उन्हें नाज़ी ये झूठ बोलकर एक वाहन में ले गए कि मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा और उन्हें दुनिया के किसी अन्य हिस्सों में भेज दिया जाएगा। इस यात्रा के दौरान ये लोग फ्रांसीसी राष्ट्रगान ला मार्सिलेज़ गा रहे थे। जब उन्हें पेरिस के सुरेशनेस में फ़ोर्ट मोंट-वेलेरियन में लाया गया, तो दरअसल ये अंत की शुरुआत थी।
21 सितंबर, सन 1942 को, फ़्रांसीसी नाज़ी नेताओं ओहेरर एसएस और पोलिज़ेफ़ुहरर कार्ल ओबर्ग के आदेश पर, माधवन को, दो नाज़ी अधिकारियों ने एक खंबे से बांध दिया। इसके बाद पेरिस के मोंट-वेलेरियन में उनके 45 साथियों के साथ, बिना आंखों पर पट्टी बांधे, उन्हें गोली से उड़ा दिया गया। अफ़सोस की बात थी कि अंतिम संस्कार करने के बजाए,उनके शव को जला दिया गया। गिज़ल को एक साथी क़ैदी, प्रसिद्ध फ़्रांसीसी लेखक शार्लोट डेल्बो के साथ पोलैंड भेज दिया गया, जहां 23 साल की उम्र में ऑशविट्ज़ शिविर में, गिज़ल की मृत्यु हो गई। हालांकि डेल्बो के पति को जर्मनों ने उसी शिविर में मार दिया था, लेकिन डेल्बो बच निकलीं। सन 1960 में डेल्बो ने अपने संस्मरण लिखे जिसमें माधवन का ज़िक्र किया गया था।
सन 2016 में, एक साक्षात्कार में, माधवन की भतीजी सुचेता रामकृष्णन ने बताया कि माधवन की मौत के बारे में उनके परिवार को,उनकी मौत के दो साल बाद यानी 1944 में पता लगा था। पेरिस गए एक पारिवारिक मित्र ने, माधवन की, क़ब्र की तस्वीर ली थी।उसी तस्वीर से उनकी मृत्यु के बारे में पता चला। उनका नाम कई अन्य लोगों के बीच मेमोरियल डे ला फ़्रांस कॉम्बैटंटे (फ़ोर्ट मोंट-वेलेरियन) में अंकित है। 14 नवंबर,सन 2012 को, फ़्रांसीसी रक्षा मंत्रालय ने माधवन का मृत्यु-प्रमाण पत्र जारी किया जिस पर लिखा है ‘मोर्ट पोर ला फ़्रांस’ (फ़्रांस के लिए बलिदान)।
सन 1947 में भारत और 1954 में भारत में फ़्रांसीसी उपनिवेश आज़ाद हो गए थे, लेकिन माधवन आज भी भारतीय इतिहास का एक धुंधला पृष्ठ है। इससे भी दुखद बात यह है, कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उनकी विरासत को इतिहास में ज़िंदा रखने की कोई कोशिश नहीं की। उनके परिजनों की बार-बार कोशिशों के बावजूद, माधवन के अपने शहर माहे में एक छोटी-सी गली का नाम, उनके नाम पर नही रखा गया। फ़्रांस में डेल्बो और चौमॉफ़ के कामों के अलावा भारत में माधवन का उल्लेख सिर्फ़ दो किताबों में मिलता है, वह हैं:मलयालम उपन्यास ‘प्रवासम’ (2008), जो माधवन के जीवन पर आधारित कहानी है और जे बी प्रशांत मोरे और के एस मैथ्यू की पुस्तक ‘मैरीटाइम मालाबार एंड द यूरोपियन्स-1500-1962’ (2003) ।
आज भी मिश्लेट माधवन की विरासत गुमनामी के अंधेरे में छिपी हुई है…
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