सन 1857 की, आज़ादी की पहली लड़ाई के दो वर्ष पूर्व, सदियों से पूरी तरह शांति रहनेवाले झारखंड के घने वनों से घिरे संताल परगना की राजमहल पहाड़ियां विद्रोह की ज्वाला से धधक उठी थीं।यहां के मूल निवासी संताल आदिवासियों ने अपनी ज़मीन और जंगल के अधिकारों और शोषण से मुक्ति के लिये ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत छेड़ दी थी। इस विद्रोह का नेतृत्व वीर संताल योद्धा सिदो ने अपने भाई कान्हू, चांद और भैरो के साथ किया था। उन दिनों यह क्षेत्र बंगाल प्रेसिडेंसी के अंतर्गत आता था जिसमें बंगाल सहित बिहार (झारखंड के साथ) और ओडिशा भी शामिल था।
संताल परगना के जंगल और पहाड़ियों में ढ़ोल, नगाड़ों तथा मांदर की थाप पर सैंकड़ों-हज़ारों आदिवासियों के, तीर-कमान, भाला-फरसा और हरबे-हथियार लेकर छेड़े गये इस जन-संग्राम को ‘संताल हूल’ का नाम दिया गया है। संताली शब्द ‘हूल’ का अर्थ होता है विद्रोह।
भले ही आज़ादी के इतिहास के पन्नों में अपनी ज़मीन के अधिकार, अपनी अस्मिता और शोषण से मुक्ति पाने के लिये, अंग्रेज़ों के विरुद्ध छेड़ी गई संताल आदिवासियों की इस लड़ाई को समुचित स्थान नहीं दिया गया है, लेकिन इसकी व्यापकता का आंकलन करते हुए कार्ल मार्क्स सरीखे विद्वान ने इसे एशिया महादेश का सबसे बड़ा ‘पीज़ेंट मूवमेंट’ (किसानों का आंदोलन) कहकर संबोधित किया है। भारत के आदिवासियों, खासकर संताल आदिवासियों, पर गहन शोध करनेवाले अध्येता के.एस. सिंह अपनी चर्चित पुस्तक ‘ट्राईबल सोसायटी इन इंडिया’ में संताल विद्रोह की चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘संताल, जो कि पूर्वी भारत के सबसे बड़े और सबसे शांत प्रकृति के आदिवासी होते हैं उन्होंने पहली बार विद्रोह किया था जिसे आदिवासी भारत में ‘पीज़ेंट वार’ की संज्ञा दी जा सकती है। इसने मुंडा, भील और ओडिशा तथा महाराष्ट्र के आदिवासियों के खेतिहर-सह-पुनरूत्थान आंदोलनों को दिशा-निर्देश दिया।’
वर्तमान झारखंड से लेकर सीमावर्ती बंगाल और बिहार के जंगल-पहाड़ियों में हुए इस हूल के सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर रौशनी डालते हुए ‘कलकत्ता रिव्यू’ (1856) बताता है कि ‘ज़मींदार, पुलिस, राजस्व विभाग और अदालतों ने संतालों पर ज़ुल्म ढ़ाये। उनकी ज़मीन-जायदाद छीनकर संतालों को अपमानित किया जाता था और मारा-पीटा जाता था। संतालों को कर्ज़ देकर उनसे पचास से पांच सौ फ़ीसदी की दर से ब्याज़ वसूला जाता था। उनकी खड़ी फ़सलों पर हाथी दौड़ा दिये जाते थे। यह अत्याचार आम बात हो गयी थी।’
सुप्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र भी अपनी पुस्तक ‘इंडियास स्ट्रगल फॉर इंडिपिनडेंस’ में कहते हैं कि संताल हूल औपनिवेशिक शासन की दमनात्मक नीति के विरुद्ध एक क्रांति थी जो ब्रिटिश हुक्मरानों की दोषपूर्ण राजस्व-प्रणाली का परिणाम था जिसे स्थानीय ज़मींदारों, पुलिस और अदालतों के ज़रिये बेरहमी से लागू किया गया था।
संताल हूल के घटनाक्रम की तह में जाने से यह स्पष्ट होता है कि आदिवासियों के शोषण की पृष्ठभूमि सन 1757 में तब बनी जब पलासी की लड़ाई के बाद बंगाल ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चला गया जिसके कारण संताल बहुल क्षेत्र भी उनके अधीनस्थ आ गया।
अर्थलोलुप अंग्रेज़ों की पहली गंदी निगाहें संताल परगना की ज़मीन और जंगलों पर पड़ीं क्योंकि जूट, नील व पोस्ता जैसे नक़दी फ़सलों (कैश क्रॉप्स) की खेती के लिये उन्हें अधिकाधिक ज़मीन की ज़रूरत थी। फिर यूरोप और भारत में तेज़ी से पनप रहे गोरे साहबों और देशी ज़मींदारों के रूप में नवधनाड्य वर्गों में बढ़ते फ़र्नीचर एवं बिल्डिंग मैटेरियल की मांग को पूरा करने के लिये प्रर्याप्त टिम्बर (इमारती लकड़ियों) की आवश्यकता थी जिसके लिये जंगलों का सफ़ाया ज़रूरी था। नीजे में आदिवासियों की ज़मीन हड़पने तथा जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो गया।
यह सब जानते हैं कि प्रकृति के बीच निवास करनेवाले आदिवासी मूलतः कृषक होते हैं तथा उनका जीवन परम्परागत रूप से ज़मीन और जंगलों के साथ घनिष्ठता से जुड़ा होता है। ज़मीन और जंगल की उपजों से उनकी जीविका चलती है। ज़मीन और जंगलों पर आर्थिक रूप से निर्भर रहने के अलावा आदिवासियों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन तथा उनके पर्व-त्यौहार, रीति-रिवाज भी ज़मीन, जंगल व पर्यावरण से जुड़े होते हैं। इस तरह जमीन और जंगल में दखल का अर्थ उनके जन-जीवन में सीधी दखलंदाज़ी थी, जिसने उनके अंदर असंतोष का बीज पड़ गया था।
इसके अलावा सन 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस ने ‘परमानेंट सेटलमेंट’ (ज़मींदारी प्रथा) का क़ानून लागू कर दिया था जिससे तहत यह व्यवस्था की गई थी कि भूस्वामियों का अपनी ज़मीन पर पुश्तैनी अधिकार तभी तक रहेगा जब तक कि वे ब्रिटिश सरकार को निर्धारित दर पर लगान देते रहेंगे।
परमानेंट सेटलमेंट के कारण खेतिहरों से लगान वसूल कर अंग्रेज़ों को देनेवाले ज़मींदारों और सरकारी अमलों-ज़मलों की एक फौज-सी खड़ी हो गई जो कालांतर में क्रूर शोषण और अत्याचार के पर्याय बन गये।
पारम्परिक तौर पर ज़मीन के मालिक रहे संताल आदिवासियों की हैसियत एक मज़दूर की तरह होती गई और ग़रीबी के कुचक्र में पिसकर वे महाजनों के चंगुल में फंसते गये। नतीजे में ब्रिटिश हुक्मरानों, ज़मींदारों,पुलिस तंत्र और महाजनों के निरंतर शोषण-अत्याचार से आदिवासियों में असंतोष पनपता गया। इस तरह अंतहीन चौतरफ़ा बोझ तले प्रकृति के निश्छल वातावरण में रहनेवाले सरल-शांत संताल आदिवासियों के अंदर असंतोष की सुगबुगाहट होने लगी । उसके बाद वो साहेबगंज ज़िला (संताल परगना, झारखंड) के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव के संताल योद्धा सिदो और कान्हू के नेतृत्व में एकजुट होने लगे। दोनों संताल योद्धा भाईयों ने आदिवासियों पर हो रहे शोषण की सारी स्थितियों को बयां करते हुए उस समय के आयुक्त सी.एफ़. ब्राउन को एक आवेदन-पत्र दिया जिसे आयुक्त ने आठ महीने तक ठंडे बस्ते में रखने के बाद उसे ज़िलाधीश को भेज दिया।
जिलाधीश ने भी सामान्य प्रक्रिया अपनाते हुए उस आवेदन को उचित कार्रवाई के लिये मजिस्ट्रेट को भेज दिया। इस तरह सत्ता के मद में चूर अंग्रेज़ हुक्मरानों ने आदिवासियों की उक्त गुहार को कोई तरजीह नहीं दी जो उनके असंतोष का सबब बना। सिदो-कान्हू की अगुवाई में आदिवासियों की गुप्त सभाएं होने लगीं जिसके संदेश वे ‘सखुए की टहनी’ के अपने परम्परागत माध्यम से भेजते थे। आदिवासियों की ये गुप्त सभाएं चल ही रही थीं कि इस बीच साहेबगंज के पास एक सनसनीख़ेज़ घटना होगई जिसे ‘राजमहल रेलवे कांड’ के नाम से जाना जाता है।
सन 1850 के आस-पास राजमहल पर्वत-माला और जंगलों से घिरे आदिवासी बहुल क्षेत्र में राजगांव से लेकर मिर्ज़ा चौकी तक 65 मील के विस्तार में पटना-हावड़ा लूप रेल लाइन (भाया भागलपुर-जमालपुर) के ट्रैक निर्माण के कार्य चल रहे थे। इस काम में बड़ी संख्या में इंजीनियरों के साथ हज़ारों आदिवासी महिला-पुरूष मज़दूर के रूप में लगाये गये थे।
संताल विद्रोह के नायक सिदो-कान्हू का गांव भोगनाडीह यहां से कुछ ही दूरी पर था।संताल परगना के क्षेत्र में निर्मित हो रहे पटना-हावड़ा रेलवे ट्रैक निर्माण के कार्य में लगे आदिवासी महिला-पुरूष मज़दूर से यूरोपियन इंजीनियरों, ठेकेदारों और रेलवे अधिकारियों के बेगारी करवाना और उनका शोषण करना तो मानों आम बात हो गई थी। उनकी हिम्मत इतनी हो गई थी कि आदिवासी युवतियों का अपहरण और बलात्कार करने लगे थे। उन युवतियों के परिजनों के अथक आग्रह करने के बावजूद अंग्रेज़ रेलवे अधिकारियों ने उन युवतियों को कैम्प से नहीं लौटाया। आला अधिकारियों के पास भी गुहार लगाई गयी, पर कोई नतीजा नहीं निकला।
तत्पश्चात् पीड़ित परिजनों ने सिदो-कान्हू की गुप्त सभा में जाकर अंग्रेज़ों के इस अत्याचार की पूरी दास्तां को बयां किया। इसे सुनते ही आदिवासियों की पूरी सभा बौखला उठी और सभी ने एक स्वर में कहा, “अपने परिवार की रक्षा करना हर प्राणी का धर्म है, इसमें फ़रियाद कैसी ?” फिर कुछ ही घंटों में ढ़ोल, मांदर और नगाड़ों की आवाज़ पर हज़ारों आदिवासी तीर-धनुष और अपने पारम्परिक अस्त्र-शस्त्रों के साथ एकजुट हो गये तथा रेलवे कैम्प की ओर कूच कर गये। कैम्प पर हमला बोलकर पहले तो उन्होंने अपहृत युवतियों को मुक्त कराया, फिर अंग्रेज़ इंजीनियरों पर क़हर की तरह टूट पड़े और भीषण क़त्लेआम कर पूरे कैम्प को जलाकर राख कर दिया।
अंग्रेज़ों एवं उनके अमलों के शोषण और अत्याचार के विरुद्ध आदिवासियों के अंदर भड़की इस चिंगारी को देखकर सिदो और कान्हू को अंदाज़ा लग गया था कि अब ‘हूल’ का उपयुक्त समय आ गया है। उन्होंने 30 जून, सन 1855 को भोगनाडीह गांव में एक महती सभा का आयोजन किया जिसमें क़रीब 400 के गांवों के लगभग 10 हज़ार से अधिक लोगों ने भाग लिया। इस विशाल सभा में दोनों योद्धा भाईयों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया।
बैठक में सिदो-कान्हू ने घोषणा की कि अंग्रेज़ों के शोषण और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये उन्हें ठाकुर जी (ईश्वर) का आदेश प्राप्त हुआ है तथा उनका आशीर्वाद मिला है। इस घोषणा का आदिवासियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उन्होंने ढ़ोल-मांदर और नगाड़ों की थाप पर ज़ोरदार संघर्ष करने का आह्वान किया।
इतिहासकार डॉ रमन सिन्हा, तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के रिज़नल स्टडीज़ सेंटर के जर्नल में प्रकाशित अपने शोध-आलेख़ में बताते हैं कि उग्र संताल आदिवासियों ने सर्वप्रथम पचकठिया बाज़ार के पांच बदनाम सूदख़ोर महाजनों की हत्या कर दी जो अत्यधिक ऊंची दर पर सूद वसूलने के अलावा उन्हें ठगने का भी काम करते थे। उक्त हत्या के अभियोग में दीघी थाने का दरोग़ा महेश दत्त चंद सिपाहियों के साथ सिदो को गिरफ़्तार करने आया। दरोग़ा महेश दत्त आदिवासियों की शिकायतों की अनदेखी कर ज़मींदारों और सूदख़ोर महाजनों का पक्ष लिया करता था। उसके आने की ख़बर सुनकर आदिवासियों ने तत्काल आपात पंचायत बुलाई जिसमें उसके ख़ात्मे का निर्णय लिया गया। इसके बाद साथ में आये नौ सिपाहियों के साथ उसकी हत्या कर दी गई। यह घटना 7 जुलाई,सन 1855 की है जिसके बाद संतालों के इस ‘हूल’ ने ख़ूनी संघर्ष का रूप ले लिया।
तत्पश्चात् 12 जुलाई, सन 1855 को सिदो-कान्हू अपने भाई चांद-भैरो और समर्थकों के साथ राजमहल की ओर कूच किया और वहां के ज़मींदारों को फांसी पर लटका कर मार डाला। राजमहल में तांडव मचाने के बाद यह जत्था पाकुड़ की ओर बढ़ा। पाकुड़ पटना-हावड़ा लूप रेल लाइन पर स्थित है,जहां उन दिनों बड़ी संख्या में ब्रिटिश हुकमरान, अंग्रेज़ रेलवे इंजीनियर और अन्य कर्मचारी रहते थे। ब्रिटिश अधिकारी सर मार्टिन ने संतालों के हमले से अंग्रेज़ों की रक्षा हेतु एक बहुत बड़ा टावर बना रखा था जो बाद में ‘मार्टिलो टावर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लूट-पाट और हत्या करते हुए आगे बढ़ रहे संतालों के हुजूम के पाकुड़ में प्रवेश करने के पहले अंग्रेज़ अधिकारियों और रेलवे इंजीनियरों ने अपने परिवारजनों के साथ मार्टिलो टावर में जाकर शरण ले ली।
संतालों का सामना करने के लिये टावर में कई सुराख़ बनाये गये थे जहां ब्रिटिश सिपाही अपनी बंदूक़ें तानकर पोज़ीशन लिये हुए थे। पाकुड़ में आदिवासी आंदोलनकारियों ने अपने पारम्परिक तीर-कमान और भाले-फरसे के साथ अंग्रेज़ों के बंदूकों तथा आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का दृढ़ता से मुक़ाबला किया और कई अंग्रेज़ों को मार डाला, लेकिन बड़ी संख्या में वे भी हताहत हुए। संताल विद्रोह के इतिहास में इस घटना को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आज की तिथि में ‘मार्टिलो टावर’ ही संताल हूल का एकमात्र स्मृति चिन्ह रह गया है, हालांकि जीर्णोद्धार के नाम पर स्थानीय प्रशासन इसके पुरातन स्वरुप को संरक्षित नहीं रख पाया है।
सिदो-कान्हू के नेतृत्व में जहां संताल विद्रोहियों का मुख्य जत्था अंग्रेज़ों के विरुद्ध मोर्चा संभाले हुए था, वहीं कई अन्य विद्रोही भी अपने स्थानीय नेताओं की अगुवाई में विध्वंस मचा रहे थे। इस सिलसिले में विद्रोहियों के एक समूह ने त्रिभुवन संताल और मानसिंह मांझी के नेतृत्व में पांच हज़ार आदिवासियों के साथ दुमका के निकट अंग्रेज़ों की नील कोठी पर हमला बोला और लूट-पाट मचाते हुए दो अंग्रेज़ महिलाओं की हत्या कर दी। इसकी सूचना मिलते ही मेजर बरोज एक विशाल सेना लेकर संतालों से निपटने के लिये भागलपुर की ओर बढ़ा।
16 जुलाई, सन 1855 को भागलपुर ज़िला के पीरपैंती (कहलगांव) के प्यालापुर के मैदान में अंग्रेज़ों और आदिवासियों के बीच भयानक युद्ध हुआ जिसमें उन्नत शस्त्रों से लैस होने के बावजूदअंग्रेज़ी सेना आदिवासियों की संगठित शक्ति के सामने टिक न सकी और करारी हार के बाद मेजर बरोज को मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए मेजर बरोज ने सैन्य सहायता के लिये भागलपुर के कमिश्नर डलहौज़ी को पत्र लिखा जिसपर आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस 15 हज़ार सैनिकों को तोपों तथा बंदूक़ों के साथ रवाना किया गया। बौखलायी अंग्रेज़ सेना अब जहां भी विद्रोहियों को देखती, गोली मार देती जिसपर संतालों ने भी गुरिल्ला युद्ध का रास्ता इख़्तियार कर अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवा दिये। 21 जुलाई,सन 1855 को एक बार फिर अंग्रेज़ी सेना और विद्रोही संताल आमने-सामने हुए जिसमें अंग्रेज़ों को मुंह की खानी पड़ी। इस लड़ाई में मेजर टोल मेईन सहित कई अंग्रेज़ अधिकारी मारे गये।
विद्रोहियों के बढ़ते मनोबल को देखते हुए अंग्रेज़ों को यह भान हो गया कि अब उन्हें पूरी शक्ति से खड़ा होना होगा। तत्पश्चात् 18 अगस्त, सन 1855 को संताल विद्रोहियों के दमन के लिये एक विशाल सेना भेजी गयी और मार्शल लॉ लागू करते हुए विद्रोहियों को यह चेतावनी दी गई कि वे शीघ्र आत्मसमर्पण कर दें, अन्यथा उन्हें फांसी पर लटका दिया जायेगा। विद्रोही संताल नेताओं की गिरफ़्तारी के लिये इनामों की भी घोषणा की गई। पर कोई असर नहीं हुआ।
इसके बाद अंग्रेज़ों ने भयानक दमन-चक्र और नरसंहार का सिलसिला शुरू कर दिया। संताल विद्रोहियों समेत हज़ारों आदिवासी महिला-पुरूष, बच्चे-बूढ़े-युवक मौत के घाट उतार दिये गये। गांव के गांव उजाड़ डाले गये। अंततः अदम्य साहस और एकजुटता के बावजूद पारम्परिक तीर-कमान और भाले-फरसे सरीखे हथियारों के साथ, संताल विद्रोही, अंग्रेज़ों के बंदूक़-मस्कट, तोप-बारुद के सामने टिक नहीं सके। अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल और विश्वासघातियों के कारण हूल के नायक सिदो-कान्हू गिरफ़्तर कर फांसी पर चढ़ा दिये गये और उनके भाई चांद-भैरो भी मार दिये गये और इस तरह विद्रोह की चिंगारी दबा दी गयी।
इस तरह संताल नायक सिदो-कान्हू और चांद-भैरो के नेतृत्व में 30 जून,सन 1855 को शुरू किये गये संताल हूल की लौ 3 जनवरी,सन 1856 को मार्शल लॉ के उठाने के बाद भीषण दमनकारी नीति के कारण धीमी पड़ गयी। ब्रिटिश हुक्मरानों के दमनात्मक रवैये का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तीर-धनुष से लड़नेवाले, एक तरह से निहत्थे संतालों के विरुद्ध 7 वीं नेटिव इन्फ़ैंट्री रेजिमेंट और 40 वीं नेटिव इन्फ़ैंट्री सरीखे सैनिक ट्रूपों को तैनात किया गया था।
संताल हूल के दौरान बड़ी संख्या में हताहत हुए आदिवासियों के बारे में इतिहासकार बिपिन चंद्र बताते हैं कि इस क्रांति में 60 हज़ार लोगों ने शिरकत की थी जिनमें से 15 हज़ार से अधिक मारे गये और अनगिनत गांव बरबाद कर दिये गये। फिर भी, औपनिवेशिक शक्ति, पिट्ठू ज़मींदारों और शोषक महाजनों के, पूरी ताक़त झोंकने के बावजूद संताल आदिवासियों ने राजमहल (झारखंड) से लेकर भागलपुर (बिहार) और वहां से बीरभूम (पश्चिम बंगाल) तक के वृहत् क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया था।
हालांकि भीषण दमनात्मक रवैया अपनाकर ब्रिटिश हुकूमत ने एक तरह से संतालों की, अपनी ज़मीन, जंगल और अस्मिता की रक्षा के लिये छेड़े गये हूल अर्थात क्रांति को दबा दिया। लेकिन उन्हें भोले-भाले शांत,किंतु स्वाभिमानी आदिवासियों के अधिकारों के बारे में अपनायी गयी अपनी दोषपूर्ण नीति का एहसास भी हुआ। संतालों के नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा तथा उन्हें औपनिवेशिक शोषण से मुक्त करने की दृष्टि से टेनेंसी एक्ट में बदलाव लाया गया तथा संताल बहुल क्षेत्र साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा, दुमका आदि को मिलाकर संताल परगना के नाम से एक नये ज़िले का निर्माण किया गया।
भले ही आज से तक़रीबन 150 वर्ष पूर्व सन 1857 की आज़ादी की लड़ाई के दो साल पहले झारखंड की राजमहल पहाड़ियों से उठी संताल हूल की चिंगारी इतिहास के पन्नों में खो-सी गयी, पर ये गौरवगाथा आज भी संताल परगना के गांव-ग्रामों में पूरे उत्साह के साथ सुनी-सुनाई जाती है और और आज यह संताल अस्मिता तथा गौरव की पहचान-सी बन गयी है। आज यहां के हर गांव-शहर-क़स्बे के चौक-चौराहों पर संताल योद्धा सिदो-कान्हू की प्रतिमा देखने को मिलेगी, जहां हर वर्ष पूरे जोश-ख़रोश के साथ 30 जून को ‘हूल दिवस’ मनाया जाता है। संताल परगना में लगनेवाले मेलों और जात्रा में संताल युवक, सिदो-कान्हू की गाथा पर आधारित नाटक बड़े उत्साह के साथ खेलते हैं।
संताल हूल के अमर नायक सिदो-कान्हू के सम्मान में जहां भारत सरकार ने सन 2002 में डाक टिकट जारी किया है, वहीं झारखंड सरकार ने राजधानी रांची में भव्य सिदो-कान्हू स्मृति-भवन और पार्क का निर्माण कराया हैं। झारखंड की उप राजधानी दुमका स्थित विश्वविद्यालय का नाम सिदो-कान्हू यूनिवर्सिटी रखा गया है।
सुप्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी ने अपने कथा-संग्रह ‘सालगिरह की पुकार पर’ (मूल बांग्ला: ‘साल गिरार डाके’) में संताल हूल की गाथा का रोचक ढ़ंग से वर्णन कर इसे अमर कर दिया है।
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