क्या आप जानते हैं, कि 110 साल के भारतीय विमानन के इतिहास में केवल एक ही भारतीय लड़ाकू पायलट हुआ है, जिसका दुश्मन के विमानों को मार गिराने का रिकॉर्ड आज तक कोई नहीं तोड़ पाया है?
कलकत्ता (वर्तमान में कोलकता) के इंद्र लाल रॉय 20 साल के भी नहीं हुये थे, जब उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान यह रिकॉर्ड बनाया था। तब वो रॉयल एयर फ़ोर्स में भारतीय मूल के एकमात्र लड़ाकू पायलट थे। वह बहादुरी के लिए प्रतिष्ठित फ्लाइंग क्रॉस पुरस्कार जीतने वाले भी पहले भारतीय थे।
सन 1903 में राइट बंधुओं की पहली उड़ान के बाद एक दशक से भी कम समय में, सन 1911 में इटली ने इटली-तुर्की युद्ध के दौरान लीबिया में पंख लगे विमानों का प्रयोग किया था, जो विश्व विमानन की नयी दुनिया में एक अनौखी चीज़ थी और जिससे विमानन को बढ़ावा मिला। पहली बार, आसानी से हासिल हुई जीत और हताहतों की कम संख्या को देखते हुये संघर्ष क्षेत्रों का अध्ययन भी किया गया था।
इसी की देखा-देखी जर्मनी और ब्रिटेन ने भी ऐसे लड़ाकू विमान बनाने शुरु कर दिये थे, जिनमें हथियार लदे होते थे। इन विमानों का इस्तेमाल मुख्यत: युद्ध क्षेत्र के अध्ययन और हवाई बमबारी के के लिये किया जाता था। विमान बनाने और उनके रख-रखाव के लिये लोगों की ज़रूरत को देखते हुये, एक संगठन बनाया गया, जिसका उद्देश्य वायु सीमाओं की सुरक्षा करना था। इस तरह से “वायु सेना” अस्तित्व में आई।
विमानन क्षेत्र में इस नयी खोज ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान युद्ध में शामिल कई देशों के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और विश्वभर में विमानन और वायु-सीमाओं की रक्षा के क्षेत्र में, विकास के लिए और आगे का मार्ग दिखाया।
प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 15 लाख भारतीयों ने अंग्रेज़ों के लिए लड़ाई लड़ी थी। हालांकि, उनका योगदान ज़्यादातर मैदानी जंग तक ही सीमित था, लेकिन कई लोग ये बात नहीं जानते हैं, कि भारत ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भी हवाई जंग में योगदान किया था।
युद्ध के दौरान तीन भारतीय पायलट हरदित सिंह मलिक, श्रीकृष्णा वेलिंगकर और इंद्र लाल राय ने यूरोपीय देशों के आसमान में उड़ाने भरी थीं। इंद्र, एकमात्र भारतीय पायलट थे जिन्होंने दुश्मनों के क़रीब दस विमानों को मार गिराया था। इसके लिये उन्हें ‘ऐस” यानी बेहतरीन का ख़िताब मिला था। ये ख़िताब दुश्मनों के पांच या इससे ज़्यादा विमान गिराने पर लड़ाकू पायलट को दिया जाता है।
इंद्र का जन्म 2 दिसंबर सन 1898 कलकत्ता में हुआ था। वह शहर के बैरिस्टर पियरा लाल रॉय और लोलिता रॉय के दूसरे बेटे थे। इंद्र का संबंध बरीसाल ज़िले (अब बांग्लादेश) के ज़मींदारों के ख़ुशहाल परिवार से था। बंगाल विभाजन (सन 1905) के बाद इंद्र का परिवार कलकत्ता आ गया था।
कोलकाता में इंद्र की शुरुआती ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है।कहा जाता है कि बेहतर भविष्य के लिए इंद्र का परिवार सन 1911 में लंदन चला गया और 67, फिट्ज़-जॉर्ज एवेन्यू, कैसिंगटन में रहने लगा था।
इंद्र के किशोरावस्था के शुरुआती साल, 400 साल पुराने सेंट पॉल स्कूल, हैमरस्मिथ में बीते,जहां उनके दोस्त उन्हें ‘लेड्डी’ यानी “बालक” नाम से पुकारते थे। वह रग्बी खेलते थे और सेंट पॉल के,स्कूल कैडेट फ़ोर्स में भी थे।वह पढ़ाई-लिखाई में बहुत अच्छे थे और स्कूल में एक क़ाबिल छात्र की तरह मशहूर भी भी थे।
कहा जाता है, कि सन 1914 में शुरू हुआ प्रथम विश्व युद्ध जब अपने चरम पर पहुंचा, तब इंद्र ने एक विशेष ट्रेंच मोर्टार (दुश्मनों की खाईयों पर हमला करने वाला एक छोटा हथियार) डिज़ाइन किया और उसे लंदन में ब्रिटिश युद्ध कार्यालय को भेज दिया। साथ में, उन्होंने इस हथियार के फ़ायदों के बारे में विस्तार से लिखकर भी भेजा था।
पढ़ाई में उनके शानदार रिकॉर्ड और अभिनव डिज़ाइनों से प्रभावित होकर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने इंद्र को छात्रवृत्ति की पेशकश की!
लेकिन इंद्र की योजनाएं तो कुछ और ही थीं। छात्रवृत्ति लेने के बजाय, उन्होंने टर्नब्यूरी (इंग्लैंड) में रॉयल फ़्लाइंग कोर में आवेदन कर दिया। तब रॉयल एयर फ़ोर्स का गठन भी नहीं हुआ था। दुर्भाग्य से नज़र की कमज़ोरी की वजह से उन्हें दाख़िला नहीं मिल सका।
फॉर किंग एंड अदर कंट्री (2015) की लेखिका श्राबनी बसु के अनुसार, इससे इंद्र मायूस नहीं हुए। दूसरी बार आवेदन करने के लिये उन्होंने अपनी मोटर साइकिल बेची और ब्रिटेन के एक प्रमुख नेत्र विशेषज्ञ से इलाज करवाया। आंखों की समस्या ठीक होने के बाद उन्होंने आख़िरकार नेत्र परीक्षा पास कर ही ली और 4 अप्रैल सन 1917 को रॉयल फ़्लाइंग कोर(RFC) में शामिल हो गए।
पत्रकार सम्यक पांडे अपने लेख दिस फॉरगॉटन पायलट फ्रॉम इंडिया वास जस्ट 19, वेन ही शॉट डाउन 9 जर्मन प्लेन्स (2019) में लिखते हैं, कि फ़्रांस में वंडोम और आर एफ़ सी गनर्री , टर्नब्यूरी (इंग्लैंड) में तीन महीने के प्रशिक्षण के बाद पांच जुलाई सन1917 में इंद्र उत्तीर्ण हो गये। उनका सर्विस नंबर था ए आई आर 76/438।
ज़मीन युद्ध में अपने कर्तव्य की मूल बातें सीखने के बाद वह 30 अक्टूबर, 1917 को फ्रांस में रॉयल फ्लाइंग कोर(RFC) के नंबर 56 स्क्वाड्रन की “ए” फ्लाइट के साथ पहली पोस्टिंग में सेकंड लेफ़्टिनेंट बन गये।
ये स्क्वाड्रन रॉयल एयरक्रॉफ़्ट फ़ैक्ट्री एस.ई.5ए लड़ाकू विमान उड़ाता था, जिसे बाद में “विश्व युद्ध का आग उगलने वाला विमान” कहा गया था।
लेकिन शुरुआत में इंद्र के करिअर को ठीक से “उड़ान”नहीं मिल पाई। 6 नवंबर सन 1917 को तकनीकी ख़राबी की वजह से उन्हें अपना विमान आपातकालीन स्थिति में ज़मान पर उतारना पड़ा था।
इससे भी बुरी घटना 6 दिसंबर सन 1917 को हुई, जब फ़्रांस में एक उड़ान के दौरान उनके विमान को एक जर्मन लड़ाकू विमान ने मार गिराया, जिससे वह गंभीर रूप से घायल और बेहोश हो गए।
इंद्र को स्थानीय अस्पताल ले जाया गया , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया और उनको को मुर्दाघर में रख दिया गया।लेकिन कुछ देर बाद, इंद्र को होश आ गया और उन्होंने मुर्दाघर के दरवाज़े को ज़ोर-ज़ोर से ठोका और अपनी टूटी-फ़ूटी फ्रेंच भाषा में चीख़-पुकार मचाई।
अस्पताल के कर्मचारियों ने जब दरवाज़ा खोला, तो इंद्र को जीवित देखकर हैरान रह गये। उन्हें बाद में उपचार के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया। इलाज के दौरान इंद्र ने अपना समय विमानों के स्केच बनाने में बिताया, जिनमें से कुछ रेखांकित चित्र आज दिल्ली के पालम में स्थित भारतीय वायु सेना संग्रहालय में मौजूद हैं।
लेकिन इंद्र की मुसीबतें अभी ख़त्म नहीं हुईं थीं। क्योंकि मई, सन 1918 में वह ठीक तो हो गये थे, लेकिन उन्हें उड़ान भरने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। उन्हें उपकरणों की देख-रेख करने वाला अधिकारी बना दिया गया। इस दौरान उन्होंने अपना समय पायलटों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विमान के लिये नये डिजाइन बनाने में बिताया। कहा जाता है, कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से उन्हें बतौर लड़ाकू पायलट युद्ध में हिस्सा लेने की ज़िद की।
आख़िरकार इंद्र की क़िस्मत चमकी और 19 जून, सन 1918 को उन्हें रॉयल एयर फ़ोर्स के नंबर 40 स्क्वाड्रन में तैनात कर फ़्रांस भेज दिया गया। रॉयल एयर फ़ोर्स,रॉयल फ़्लॉइंग क्लब और रॉयल नेवल एयर सर्विस को मिलाकर बनाई गई थी।
जुलाई सन 1918 में इंद्र आर ए एफ़ के सबसे शानदार पायलट के रूप में उभरे। उन्होंने 6 जुलाई सन 1918 को उत्तरी फ़्रांस के द्रोकोर्ट में एक हवाई युद्ध के दौरान एक जर्मन विमान हन्नोवर को मार गिराया था, जो उनकी एक बड़ी उपलब्धि थी।
प्रसिद्ध लेखक के.एस.नायर अपने लेख,“रिमेम्बरिंग इंद्र लाल राय, इंडियाज़ ‘ऐस‘ ओवरफ़्लैंडर्स (2017)”में लिखते हैं, कि इंद्र की अपने कमांडर कप्तान जॉर्ज मैलरॉय के साथ बहुत क़रीबी रिश्ते थे, जो उनकी बहुत हौसला अफ़ज़ाई करते थे।
इन्द्र ने सिर्फ़ 13 दिनों में 170 घंटे से अधिक अपने उड़ान अनुभव के दौरान दस बार जीत हासिल कीं। इनमें से दो मौकों पर मैलऱाय भी उनके साथ थे ।
इंद्र ने 8 जुलाई को चार घंटे के अंतराल में तीन विमानों को मार गिराया, जिनमें दो हन्नोवर(सी) विमान और एक फ़ोकर डी.VII विमान शामिल था। इसके बाद उन्होंने 13 जुलाई को दो विमान (एक हन्नोवर (सी) विमान और एक फ़्लॉज़ डी.III विमान) और फिर 15 जुलाई को दो और फोकर डी. VII विमान और अंत में 18 जुलाई को एक डी एफ़ डब्ल्यू सी वी विमान को मार गिराया।
जो विमान उन्होंने मार गिराये थे, इनमें ख़तरनाक जर्मन लड़ाकू विमान फोकर डी. VII भी शामिल था। उसी वजह से उन्हें ‘ऐस’ का ख़िताब मिला था।
लेकिन इंद्र के गौरवशाली दिन गिने-चुने ही रहे। 22 जुलाई सन 1918 को इंद्र ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ गश्त के लिए उड़ान भरी। उनकी टीम पर चार जर्मन फ़ोकर डी VII विमानों ने हमला कर दिया। इंद्र ने हमलावरों को करारा जवाब दिया और दुश्मन के दो विमानों को मार भी गिराया, लेकिन उनका विमान दुश्मनों के निशाने पर आ गया। उनके विमान में आग लग गई और वह फ़्रांस के कार्विन में गिर गया। लेकिन इंद्र का शव नहीं मिल पाया था।
18 सितंबर में कहीं जाकर उसी क्षेत्र में इंद्र का शव मिला और उसकी पहचान की गई। उन्हें फ़्रांस में एस्टेवेल्स सामुदायिक क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया। उनकी क़ब्र पर एक सामान्य-सा शिलालेख है, जिस पर बांग्ला में लिखा है:
“महा बिरेर समाधि, संभ्रम देखाओ, स्पर्ष कोरो ना”
(बहादुर योद्धा की क़ब्र, इसका सम्मान करो, छुओ नहीं)
दिलचस्प बात ये है, कि जर्मनी के एस पायलट मैनफ़्रेड वॉन रिचथोफ़ेन ने उसी स्थान पर फूलों की वर्षा करके इंद्र को श्रद्धांजलि दी थी, जहां उनका विमान गिरा था। यही नहीं, इंग्लैंड के सम्राट किंग जॉर्ज-V ने भी इंद्र की माता लोलिता को पत्र लिखकर संवेदना व्यक्त की थीं।
सन 1914 में इंद्र के भाई परेश, आर्टिलरी कंपनी की रिज़र्व बटालियन में भर्ती हो गये थे और उन्हें विदेश सेवा में शामिल कर लिया गया था। युद्ध के बाद उन्होंने सन 1919 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री ली और भारत वापस आ गए। उन्हें ‘भारतीय मुक्केबाज़ी के जनक’ के रूप में जाना जाताहै।
प्रथम विश्व युद्ध 11 नवंबर 1918 को समाप्त हुआ था, यानी इंद्र की मृत्यु के चार महीने बाद और उनके 20 वें जन्मदिन से 22 दिन पहले ।
इंद्र एकमात्र ऐसे भारतीय पायलट हैं, जिन्हें भारतीय एयर ऐस (आर ए एफ़ के लिए प्रथम विश्व युद्ध के दौरान और भारत में स्वतंत्रता के बाद) के रूप में आधिकारिक मान्यता प्राप्त है। उन्हें सन 1918 में मरणोपरांत विशिष्ट फ़्लाइंग क्रॉस (तीसरा सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार) मिला था।ये सम्मान पाने वाले वह पहले भारतीय थे।
सिंतबर सन 1918 को लंदन गज़ट के पृष्ठ नम्बर 11254 पर उनकी प्रशंसा में ये लिखा गया था:
“वह एक बहुत ही वीर और दृढ़ निश्चयी अधिकारी थे, जिन्होंने तेरह दिनों में दुश्मन के नौ विमानों को मार गिराया। अपने कई कार्यों में उन्होंने एक-से अधिक अवसरों पर एक गश्त में दो विमानों को मार गिराकर उल्लेखनीय कौशल और साहस का परिचय दिया। (20 सितंबर सन 1918)।”
उनकी विरासत को उनके भतीजे सुब्रतो मुखर्जी (1911-1960) ने आगे बढ़ाया, जो क्रैनवेल के रॉयल एयर फ़ोर्स कॉलेज में दाख़िला लेने वाले पहले भारतीयों में से एक थे। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में न केवल एक लड़ाकू पायलट के रूप में हिस्सा लिया, बल्कि पहले भारतीय वायु सेनाध्यक्ष भी बने!
दिसंबर सन 1998 में इंद्र की 100वीं वर्षगांठ पर भारतीय डाक सेवा ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। सन 2019 में प्रथम विश्व युद्ध के सौ साल पूरा होने पर भी उनके सम्मान में एक और डाक टिकट जारी किया गया था।
आज तक इंद्र के रिकॉर्ड को कोई नहीं तोड़ पाया है!
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