भारत में जवाहरात की छुपी हूई धरोहर

भारत में जवाहरात की छुपी हूई धरोहर

पूरा विश्व आज भी भारत के मशहूर रत्न कोहीनूर पर फ़िदा है लेकिन कोहीनूर भारत के कई बेहतरीन रत्नों में से बस एक है। भारत का रत्नों को लेकर समृद्ध इतिहास रहा है जो पांच हज़ार साल पुराना है। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर 19वी-20वीं शताब्दी में भी बहुमूल्य रत्नों के साक्ष मिले हैं। इस तरह भारत हमेशा रत्नों का एक समृद्ध केंद्र रहा है। गोलकुंडा (आधुनिक समय में हैदरबाद) तो 18वीं सदी तक यानी सैकड़ों सालों तक विश्व के लिए हीरों की राजधानी माना जाता था जहां सबसे दुर्लभ हीरे होते थे।

गोलकोंडा किला | LHI

बेशक़ीमती रत्न उन चीज़ों में से थे जिनकी वजह से क़रीब दो हज़ार वर्षों तक व्यापारी भारत खिंचे चले आते थे। लेकिन ऐसा क्यों है कि भारत के रत्नों की धरोहर को आज उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना दिया जाना चाहिए? इस बारे में हमारी जानकारी इतनी कम क्यों है? और भारत के माणिक तथा जवाहरातों के संग्रहों का क्या हुआ? वे अब कहां हैं?

हमारी साप्ताहिक श्रृंखला हेरिटेज मैटर्स के इस सत्र “इंडियाज़ फ़ैबल्ड जूअल्स” (भारत के प्रसिद्ध जवाहर) में हमने भारतीय जवाहरातों के ख़ज़ाने पर गहन विचार विमर्श किया। चर्चा में जवाहरात विषय की इतिहासकार डॉ. उषा बालकृष्णन और लिव हिस्ट्री के शोध विभाग के प्रमुख अक्षय चवान ने हिस्सा लिया। डॉ. उषा बालकृष्णन और अक्षय चवान, दोनों ने ही भारत की जवाहरात की परंपराओं पर शोध किया है और इनका अध्ययन किया है। चर्चा के दौरान उन्होंने कई दिलचस्प बाते बताईं और भारत के जवाहरातों के ख़ज़ाने के सदियों पुराने इतिहास के कई तथ्य उजागर किए। उन्होंने हमें ये समझने में भी मदद की कि भारत ने क्यों रत्नों की अपनी समृद्ध धरोहर का उतना गुणगान नहीं किया है जितना किया जाना चाहिए था और ये कि इसे दुनिया के सामने बेहतर तरीक़े से कैसे रखा जा सकता है।

भारत की महान जवाहरात धरोहर क्या है हमने दुनिया के सामने इसका प्रदर्शन क्यों नहीं किया?

कई सालों तक भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता रहा था क्योंकि भारत एक धनवान देश था। भारत, प्राचीन समय में बेहतरीन मोतियों का उत्पादन करने वाले देशों में से एक था जो बाद में हीरे उत्पादन का भी केंद्र बन गया। भारत दुनिया के बेहतरीन रत्नों का गढ़ रहा है। सब लोग कोहीनूर हीरे के बारे में जानते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि ये कुलकुंडा में मिला था, लेकिन लोगों को शायद ये नहीं पता कि दरिया-ए-नूर, ऑरलोव, नस्सक और होप हीरा भी भारत की खानों में मिला था। ये अब विश्व के सबसे क़ीमती हीरे हैं।

रूस के शाही राजदंड में ओर्लोव डायमंड  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

मणि और जवाहरात रियासतों के शाही ख़ज़ानों का एक अहम हिस्सा हुआ करते थे। डॉ. बालाकृण्णन के अनुसार कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में एक जगह लिखा है कि कैसे किसी राज्य के लिए जवाहरातों का महत्व है। यही वजह है कि भारत में पटियाला, कश्मीर, रामपुर, दरभंगा, बड़ौदा और कई अन्य रियासतों में जवाहरातों का उत्कृष्ट संग्रह रहा है। भारतीय राष्ट्रीय पुरालेख में रिकॉर्ड्स और दस्तावेज़ों को देखते समय अक्षय चवान को ऐसे कई स्रोतों का पता चला जिनमें, इनमें से कुछ साम्राज्यों की संपदा का ज़िक्र था।

रामपुर ताज | पिनटेरेस्ट 

कश्मीर के जवाहरात के संग्रह के बारे में अक्षय चवान ने कहा, “कोई भी कश्मीर के जवाहरात के संग्रह के बारे में बात नहीं करता। कश्मीर के महाराजा हरी सिंह अपने बहुत सारे जवाहरात बॉम्बे ले गए थे…मैंने कुछ विवरण देखे हैं जिनके अनुसार हरी सिंह 40 सरपेच (पगड़ी पर लगाने वाली जड़ाऊ कलग़ी ), 40 गले के हार, रुबी से जड़े सोने के खिलौने। वो क़रीब 400 किलो सोना बॉम्बे ले गए थे। ये सब आठ बक्सों में बंद करके ले जाया गया था। आख़िरी बार ये बक्से क़रीब 1985-86 में खोले गए थे और उसके बाद इन्हें कभी नहीं खोला गया ।”

कश्मीर के महाराजा हरी सिंह  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

जवाहरात के संग्रह में सबसे मशहूर संग्रह है.. हैदराबाद के निज़ाम का संग्रह। निज़ामों ने 18वीं और 20वी सदी के दौरान हैदराबाद पर शासन किया था। उनके क्षेत्र में प्रसिद्ध गोलकुंडा खान आती थी। माना जाता है कि उनके संग्रह में क़रीब छह हज़ार जवाहरात थे। भारत सरकार ने 1995 में निज़ाम के संग्रह से 325 जवाहरातों का अधिग्रहण कर लिया था जो उनके पूरे संग्रह का मात्र तीन प्रतिशत थे। डॉ. उषा बालाकृष्णन ने भारत सरकार के लिए निज़ाम के जवाहरातों की सूची और दस्तावेज़ तैयार किए हैं। उन्होंने बताया, “निज़ाम के जवाहरातों की बड़ी बात ये है कि उनमें असलीपन है। ये शाही जवाहरात का एकमात्र ऐसा संग्रह है जो बचा रह गया है…इसमें बर्मा के स्पिनेल (खनिज पदार्थ), कोलंबिया के पन्ना और बसरा के मोती हैं….जवाहरात के इतिहासकार जवाहरातों की डिज़ाइन का कालक्रम और शिल्पकारी देख सकते हैं….कई जवाहरात 18वीं और कई 20वी सदी के आरंभिक वर्षों के हैं…”

निज़ाम के आभूषण  | Treasures of the Deccan 

लेकिन दुर्भाग्य से भारत के जवाहरातों की इस संपदा को ठीक से मान्यता नहीं मिली है। क्यों? भारत में जवाहरात धरोहर को लेकर अनभिज्ञता के कई कारण हैं।

इस मामले में भारत में जवाहरात के इतिहास के बारे में जो कारण थोड़ा बहुत हम जानते हैं वो है इनसे संबंधित दस्तावेज़ों का अभाव। अगर जवाहरात के कुछ दस्तावेज़ हैं भी तो वे देशी भाषा यानी प्रांतीय भाषाओं में हैं जिनका अनुवाद नहीं हुआ है। डॉ. उषा बालाकृष्णन के अनुसार-“हमारे यहां दस्तावेज़ तैयार करने और सूची बनाने की परंपरा नहीं है…मैंने चौमोहल्ला पैलेस के अभिलेखागार (हैदराबाद) में निज़ाम के हीरे जवाहरात की सूची देखी जो क़रीब पचास पन्नों की थी और मैंने वहां हीरे-जवाहरातों की गिनती की जो छह हज़ार से ज़्यादा थे। लेकिन सूची में कानों की 106 बालियों का ज़िक्र था। लेकिन ये बालियां क्या है, इनकी डिज़ाइन क्या है, इन्हें किस पर लगाया गया है….ये जानकारी नही है। और ये जानकारी जहां भी होगी, वो या तो शायद खो चुकी है या फिर विघटित हो गई है…इस तरह प्रत्येक जवाहर अपने आप में एक पहेली बन गया है।”

जवाहरात जमा करने वाले भारतीय संग्रहकर्ता और डिज़ाइनर्स की चुप्पी भी इस समस्या को और बढ़ाती है। इसके अलावा अभिलेखीय सामग्री की अनुपलब्धता भी एक समस्या है। अक्षय के अनुसार हम जवाहरात बनाने वाले अंतरराष्ट्रीय डिज़ाइनर्स के बारे में तो काफी जानते हैं लेकिन भारतीय डिज़ानर्स के बारे में कुछ ख़ास नहीं जानते जिन्होंने जवाहरात डिज़ाइन की थीं। इनका अध्ययन किया जाना ज़रुरी है लेकिन इनके बारे में दस्तावेज़ मौजूद नहीं हैं। इसके अलावा जिनके पास डिज़ाइन या रिकॉर्ड्स हैं वे इन्हें साझा नहीं करना चाहते। कुछ डिज़ाइनरों को डर लगता है कि कहीं उनकी डिज़ाइन की चोरी न हो जाए।

इस धरोहर के साथ एक दिक़्कत ये भी है कि ये शिक्षा के पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है। डॉ. बालाकृष्णन के अनुसार-“ये विषय कला इतिहास के अध्ययन की मुख्यधारा में नहीं है…हर कोई कला के अन्य रुपों का अध्ययन करने में व्यस्त है…जवाहरात बस शिल्पकारी होकर रह गए हैं…लेकिन दो आभूषण एक जैसे नहीं होते…लेकिन इस बारे में कोई ख़ास अध्ययन नहीं हो रहा है…”

भारत जैसा देश, जो बेहतरीन हीरे-जवाहरात का घर रहा है, हीरे-जवाहरात के व्यापार का केंद्र रहा है और जहां जवाहरात की परंपरा आज भी जारी है लेकिन दुख की बात ये है कि यहां जवाहरात को समर्पित एक भी संग्रहालय नहीं है। कुछ संग्रहालयों में जवाहरात का संग्रह है लेकिन उन्हें लोगों को देखने के लिए बाहर कम ही निकाला जाता है। खुदाई में निकले माणिक-मोतियों को भी इन संग्रहालयों में लोगों के लिए कभी कभार ही बाहर निकाला जाता है। इन्हें संदूकों में बंद करके रखा गया है और ये लोगों की पहुंच से बाहर हैं।

डॉ. बालाकृष्णन ने इस बारे में मंदिरों में रखे ज़ैवरों के बड़े संग्रह का भी ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि ज़्यादातर मंदिरों में इन आभूषणों को पवित्र माना जाता है और इन्हें कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रखा गया है तथा इस बारे में गोपनीयता भी बरती जाती है। धार्मिक आभूषण पूज्नीय होते हैं और अक्सर इन्हें लोगों की नज़रों से दूर रखा जाता है। ये लोगों की पहुंच से बाहर हैं और मुमकिन है कि इनसे संबंधित दस्तावेज़ भी न हों। इस वजह से भारतीय जवाहरात के एक बड़े हिस्से के कोई दस्तावेज़ ही नहीं हैं और लोगों को इनके बारे में कुछ पता ही नहीं है। डॉ. बालाकृष्णन का मानना है कि मंदिरों के गहनों का अध्ययन करने और इनके दस्तावेज़ तैयार करने की इजाज़त मिलनी चाहिए। इससे इनकी बेहतर तरीक़े से हिफ़ाज़त भी हो सकेगी।

शाही संग्रहों से कई जवाहर ग़ायब हैं और किसी को नहीं मालूम कि वे कहां गए। उदाहरण के लिए रामपुर के नवाबों का ख़ज़ाना जब मार्च 2002 में खोला गया तो वो ख़ाली था। दरभंगा शाही परिवार के कई गहने ग़ायब हैं और उनका कोई नाम-ओ-निशान है।

दरभंगा के रत्नों की तस्वीर | महाराजा कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा

हो सकता है कि भारत में जवाहरातों को लेकर जो हमारा नज़रिया है, समस्या उसी में हो। अक्षय चवान और डॉ. उषा इस बात पर एकमत थे कि हम जवाहरात को अपनी धोरहर के रुप में देखते ही नहीं हैं। जवाहरात को इतिहास के हिस्से के रुप में नहीं देखा जाता है।

हम जवाहरात की अपनी धरोहर को कैसे बचा सकते हैं और कैसे इसे बढ़ावा दे सकते हैं?

भारतीय जवाहरात की कहानियां लोगों के सामने लाने के लिए कई दिशाओं में काम करना होगा। इनमें एक है शोध, दस्तावेज़ तैयार करना और संग्रहों तक पहुंच। डॉ. बालाकृष्णन और अक्षय का मानना है कि इस मामले में भारत सरकार को भी आगे आना चाहिए और उसे विद्वानों तथा शोधकर्ताओं को पूरे देश में मौजूद आभूषणों के संग्रहों को देखने और समझने की इजाज़त देनी चाहिए। जवाहरात का इतिहास और डिज़ाइन पढ़ाने वाली डॉ. बालाकृष्णन ने कहा कि हमें हमारे प्रमुख स्रोत की तरफ़ वापस जाने की ज़रुरत है। लोक कथा, लोक गीत, कला और स्मारकों तथा मंदिरों की वास्तुकला जैसे स्रोत के अलावा स्थानीय और देशज स्रोत का अगर ठीक से अध्ययन किया जाए तो हमें सदियों पुरानी जवाहरात की परंपरा के इतिहास के बारे में जानकारी मिल सकती है।

डॉ. बालाकृष्णन और अक्षय दोनों का मानना है कि भारतीय जवाहरात के छुपे ख़ज़ाने को सार्जनिक करना बहुत ज़रुरी है। ये ख़ज़ाना भले ही संग्रहालयों में रखा हो या फिर मंदिरों में, इसे देखने का मौक़ा लोगों मिलना चाहिए ताकि लोगों का कम से कम ये तो पता चले कि भारत में ये विरासत कितनी समृद्ध है। ये आम धारणा है कि भारत ने अपने ज़्यादातर बेशक़ीमती जवाहर खो दिए हैं लेकिन डॉ. बालाकृष्णन और अक्षय दोनों मनते हैं कि भारत में अब भी जवाहरातों के कुछ सबसे बड़े संग्रह मौजूद हैं।

अक्षय के अनुसार इस पूरी कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं कारीगर जो डिज़ाइन को मूर्त रुप देते हैं। चांदी के ज़ेवर और भारत में चांदी के ज़ेवर और चांदी का सामान बनाने वाले कारीगरों का उदाहरण देते हुए अक्षय ने बताया कि कैसे महाराष्ट्र जैसे चांदी के ज़ेवर बनाने के प्रसिद्ध केंद्र के कारीगर अब दूसरे पेशे की तरफ़ जाने लगे हैं क्योंकि उन्हें अपने पेशे का भविष्य अंधकारमय लगता है। अक्षय का मानना है कि भारत में बुनकरों और अन्य शिल्पियों की तरह ज़ेवर बनाने वाले कारीगरों और डिज़ाइनरों को भी प्रशिक्षण और इनके पुरुत्थान की ज़रुरत है। इन्हें भी उनके हक़ का सम्मान मिलना चाहिये।

डॉ. बालाकृष्णन को लगता है कि प्रशिक्षित पेशेवर लोग ही हमारे जवाहिरात की धरोहर को बचा सकते हैं और इसे बढ़ावा दे सकते हैं। “हमें संस्थान बनाने की ज़रुरत है, हमें क्षमता बढ़ाने की ज़रुरत है, हमें ऐसे निरीक्षकों, शोधकर्ताओं और विद्वानों की ज़रुरत है जो संग्रहालयों में काम कर सकें। हमें इन प्रशिक्षित पेशेवर लोगों की ज़रुरत है जो जवाहरातों के संग्रहों को दुनिया के सामने उस तरह से पेश कर सकें जिस तरह से किया जाना चाहिए।”

अक्षय का मानना है कि जवाहरात औऱ इसके इतिहास पर चर्चा तथा संवाद से नज़रिए में बदलाव आ सकता है और इसमें सोशल मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। “हीरे-जवाहरात को उनके साथ जुड़ी हुई कहानियां मशहूर करती हैं…कोहीनूर 105 कैरट का हीरा है, कोहीनूर से भी बड़े हीरे हैं लेकिन कोहीनूर उसके साथ जुड़ी कहानी की वजह से मशहूर है….इन कहानियों और चर्चा से ही लोगों की जवाहरात में दिलचस्पी पैदा होगी।”

समय आ गया है कि हम न सिर्फ़ अपने जवाहरात, जो कभी भारत की अपार संपदा की निशानी हुआ करते थे, के भौतिक मूल्य को समझें बल्कि उसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को भी जानें। अगर हम इसके इतिहास और संस्कृति को सामने ला सके तो भारत के अतीत के बारे कई जानकारियां मिल सकती हैं।

मुख्य चित्र: दरभंगा के ज़ेवर – महाराजा कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा

ये सत्र अंग्रेज़ी में हमारे चैनल पर दिखाया गया है। आप इस सत्र की पूरी परिचर्चा अंग्रेज़ी में यहां देख सकते हैं-

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