भारत और जापान के संबंध पारंपरिक रूप से मजबूत रहे हैं। दोनों देशों के लोग सदियों से सांस्कृतिक आदान-प्रदान में लगे हुए हैं, मुख्य रूप से बौद्ध धर्म के परिणामस्वरूप, जो चीन और कोरिया के माध्यम से भारत से जापान में अप्रत्यक्ष रूप से फैला|
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान कई भारतीयों ने अंग्रेजी शासन का विरोध किया और जापान ने ऐसे भारतीयों को वक़्त पड़ने पर संरक्षण दिया जिससे भारत और जापान के रिश्ते और भी मज़बूत हुए और इन दोनों देशो में विश्वास बढ़ा। कई भारतीय स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजी शासन से बच कर जापान में पूरी आज़ादी और सम्मान से रहे। जिन्हें जापान ने पूरी तरह से अपनाया और पूरे दिल से उन्हें अपने जीवन और संस्कृति का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया।
आज हम आपको ऐसे ही 3 क्रांतिकारियों और उनके जापानी प्रभाव के बारे में बताते हैं।
1- राश बिहारी बोस
आज़ादी की लड़ाई में आम आदमी की याद्दाश्त में बोस नाम का एक ही शख्स याद आता है, और वो है नेताजी सुभाष चंद्र बोस।देस-परदेस में अपनी आज़ादी की लड़ाई से जुडी गतिविधियों से माने गए सुभाष को आज़ाद हिंद फ़ौज की बागडोर संभालने के लिए भी याद किया जाता है। मगर इस फ़िराक में, आज़ाद हिन्द फ़ौज के रचियिता राश बिहारी बोस को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। राश बिहारी बोस की बात करें, तो उन का योगदान सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ही नहीं, बल्कि भारत और जापान के मैत्री सम्बन्ध बढ़ाने में भी रहा है।
भारत और जापान के सम्बन्ध प्राचीन काल से माने गए हैं।19 वीं शताब्दी में जापान के मुख्य शहरों में से एक कोबे में भारतीय व्यवसायिक जनसंख्या भी बढ़ रही थी, मगर इन संबंधों पर सोने पर सुहागा अगर किसी ने लगवाया है तो वो सिर्फ राश बिहारी बोस ने। मज़े की बात ये है, कि उन्होंने यहां सिर्फ राजनैतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पाक-कला में इस कदर अपनी छाप छोड़ी है, जिसका असर आज भी जापान के रेस्टोरेंटों में दिखाई देता है।
बंगाल के फ्रांसीसी उपनिवेश चंदननगर में जन्में राश बिहारी बोस अंग्रेजी सेना में भर्ती होना चाहते थे, मगर नहीं हो पाए। फिर भी, उनको देहरादून के फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट में हेड क्लर्क की नौकरी मिली। उमा मुख़र्जी ने अपनी किताब “टू ग्रेटेस्ट इंडियन रेवोल्यूशानेरीज़: राश बिहारी बोस एण्ड ज्योतिन्द्र नाथ मुख़र्जी” में बताया है, कि 1905 में बंगाल विभाजन ने राश बिहारी पर गहरा असर छोड़ा। इससे आहत होकर उन्होंने अपनी नौकरी को तिलाँजलि दे दी और स्वंत्रता-संग्राम में खुद को झौंक दिया।
1912 में दिल्ली में लार्ड हार्डिंग की हत्या की साजिश रचने के बाद, बोस ने बनारस और फिर 1915 में लाहौर में विद्रोह के असफल षड्यंत्र रचने की कोशिश की, जिसमें कामयाबी हाथ नहीं आई।अब अंग्रेजी सरकार ने राश बिहारी के लिए फांसी की सज़ा तय की। राश बिहारी पी एन ठाकुर नाम के एक कवि की फर्जी पहचान के साथ एक साल चंदननगर में गुप्त रूप से रहे, और फिर कलकत्ते से जापान के लिए रवाना हुए।
जापान में बंदरगाह-शहर कोबे में राश बिहारी ने जून 1915 में कदम रखा और फिर उन्होंने वहाँ से टोक्यो तक की राह ली, जहां उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर अपनी सहानुभूति प्रकट करने वाले एशियाई नेताओं से अपने संबंध बनाए, जिनमें प्रमुख मित्सुरु टोयामा भी थे। और पढ़ें
2- ए.म नायर
जापान की राजधानी टोक्यो के हिगाशी गिंजा गली में अगर आप जाएंगे, तो वहां एक छोटा-सा रेस्टोरेंट दिखाई देगा; नायर रेस्टोरेंट। अब ये नायर शब्द पूरी दुनियाभर में सिर्फ़ एक ही जगह से आ सकता है, और वो जगह है ,भारत का केरल राज्य । तो सवाल यह है कि केरल का जापान के इस रेस्टारेंट से क्या सम्बन्ध है?
राश बिहारी बोस के मशहूर इंडोकरी की तरह, इसका भी देशभक्ति से सम्बन्ध है । इस सम्बंध को रूप देनेवाले महापुरुष का नाम है : अय्यप्पन पिल्लई माधवन नायर
सन 1905 में तिरुवनंतपुरम में जन्में नायर के दिल में देशभक्ति की भावना बचपन से ही थी। सन 1920 में स्कूल की पढ़ाई के दौरान, नायर अक्सर विद्यार्थी मोर्चों में हिस्सा लेते थे। इसी वजह से वो अंग्रेज़ी सरकार की नज़र में आ चुके थे। अंग्रेज़ों की नज़रों से दूर रखने के लिए नायर के पिता ने अपने बड़े बेटे की तरह उनको भी इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए जापान भेज दिया। नायर के बड़े भाई ने सप्पारो विश्वविद्यालय से मछली-पालन की तालीम हासिल की थी। ठीक वैसे ही नायर ने क्योटो विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। इस दौरान भारत से प्रमुख स्वंत्रता-सेनानी राश बिहारी बोस टोक्यो पहुंच चुके थे और जापान में अपने स्वंतंत्रता-संग्राम से जुड़े विचारों की वजह से काफ़ी मशहूर हो गये थे। बिना समय गंवाए, नायर, राश बिहारी के संपर्क में आ गये। सन 1932 में अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते-करते उन्होंने जापानी भाषा में निपुणता प्राप्त कर ली थी।
अपनी आत्मकथा “ एन इंडियन फ़्रीडम फ़ाइटर इन जापान: मेमोयर्स “ में नायर ने बताया कि उन दोनों ने पूरे जापान में घूमकर अपनी आज़ादी की लड़ाई की बात भाषणों, रेडियो वार्ताओं और लेखों के माध्यम से फैलाई। ये ख़बर केरल तक पहुँच गयी थी, जहां अंग्रेज़ नायर की गिरफ़्तरी की राह देख रहे थे। अपने एक वरिष्ठ सहकर्मी की सलाह पर, योजनाबद्ध तरीक़े से केरल में नायर की मृत्यू की अफ़वाह फैला दी गई।उनके हिस्से की सम्पत्ति का भी बटवारा कर दिया गया। अब नायर के लिए जापान में मैदान साफ़ हो गया था, इसीलिए भी क्यूंकि उस दौरान एक अंग्रेज़ युद्धपोत ने एक जापानी मर्चेंट जहाज़ पर ग़लती से हमला कर दिया था, जिसके कारण दोनों देशों के संबंध ख़त्म हो चुके थे। और पढ़ें
3- राहुल सांकृत्यायन
बीसवीं सदी के आरंभ से ही हिन्दी के लेखकों ने भारत समेत एशिया, यूरोप और अमेरिका के दूसरे देशों के इतिहास, समाज और संस्कृति के बारे में लिखना आरंभ कर दिया था। इन देशों में जापान भी शामिल था। जहाँ एक ओर महेन्दु लाल गर्ग और रामनारायण मिश्र सरीखे लेखकों ने जापान के इतिहास और भूगोल के बारे में लिखा, वहीं आगे चलकर राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कौसल्यायन, रामकृष्ण बजाज आदि ने जापान यात्रा के विवरण लिखे।
राहुल सांकृत्यायन ने सन 1935 में सम्पन्न हुई जापान-यात्रा के बारे में अपनी किताब ‘जापान’ में विस्तार से लिखा है। यह किताब सन 1936 में छपरा (बिहार) के ‘साहित्य सेवक संघ’ ने प्रकाशित की थी। राहुल जी की जापान-यात्रा से जुड़े लेख सरस्वती, विशाल भारत, विश्वामित्र, चाँद, सुधा और माधुरी सरीखी हिंदी की पत्रिकाओं में भी छपे थे। अपनी जापान यात्रा से पूर्व राहुल नेपाल, लंका, तिब्बत, इंग्लैंड समेत यूरोप के दूसरे देशों की यात्रा भी कर चुके थे।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल सन 1893 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के पंदहा में हुआ। पंदहा यानी राहुलजी का ननिहाल, उनका पैतृक गाँव था कनैला। उनका बचपन का नाम था केदारनाथ पांडेय। स्कूल में पढ़ते हुए राहुल ने नवाज़िंदा बाज़िन्दा की कहानी ‘खुदराई का नतीजा’ पढ़ी।
एक ही जीवन में कई ज़िंदगियाँ जीने वाले राहुल सांकृत्यायन साधु रहे, आर्य समाज से जुड़े, बौद्ध भिक्षु बने, समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन से भी जुड़े रहे। वे राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाले स्वतन्त्रता सेनानी, किसान आंदोलन के नेता और जनता के प्रिय नेता भी थे। यात्री, इतिहासकार, पुराविद, नाटककार और कथाकार तो वे थे ही।
साधु बनने पर राहुल ‘रामउदार दास’ के नाम से जाने गए। इस दौरान वे छपरा स्थित परसा के मठ से जुड़े रहे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी जुड़े रहे और राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 1921-22 के दौरान उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गए। वे छपरा ज़िला कांग्रेस के मंत्री तो रहे ही। साथ ही सन 1931 में स्थापित हुई बिहार सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक-सदस्य भी थे। आगे चलकर सन 1939 में उन्होंने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में योगदान दिया। किसान आंदोलन में उनकी सक्रियता राहुल को कार्यानन्द शर्मा, सहजानन्द सरस्वती और यदुनंदन शर्मा जैसे किसान नेताओं के निकट ले गई। वे बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन के सभापति भी रहे। राजनीतिक सक्रियता के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन और साहित्य में उनकी रुचि लगातार बनी रही। और पढ़ें
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