महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जापान-यात्रा

महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जापान-यात्रा

बीसवीं सदी के आरंभ से ही हिन्दी के लेखकों ने भारत समेत एशिया, यूरोप और अमेरिका के दूसरे देशों के इतिहास, समाज और संस्कृति के बारे में लिखना आरंभ कर दिया था। इन देशों में जापान भी शामिल था। जहाँ एक ओर महेन्दु लाल गर्ग और रामनारायण मिश्र सरीखे लेखकों ने जापान के इतिहास और भूगोल के बारे में लिखा, वहीं आगे चलकर राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कौसल्यायन, रामकृष्ण बजाज आदि ने जापान यात्रा के विवरण लिखे। राहुल सांकृत्यायन ने सन 1935 में सम्पन्न हुई जापान-यात्रा के बारे में अपनी किताब ‘जापान’ में विस्तार से लिखा है। यह किताब सन 1936 में छपरा (बिहार) के ‘साहित्य सेवक संघ’ ने प्रकाशित की थी। राहुल जी की जापान-यात्रा से जुड़े लेख सरस्वती, विशाल भारत, विश्वामित्र, चाँद, सुधा और माधुरी सरीखी हिंदी की पत्रिकाओं में भी छपे थे। अपनी जापान यात्रा से पूर्व राहुल नेपाल, लंका, तिब्बत, इंग्लैंड समेत यूरोप के दूसरे देशों की यात्रा भी कर चुके थे।

राहुल सांकृत्यायन : घुमक्कड़ महारथी की जीवन-यात्रा

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल सन 1893 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के पंदहा में हुआ। पंदहा यानी राहुलजी का ननिहाल, उनका पैतृक गाँव था कनैला। उनका बचपन का नाम था केदारनाथ पांडेय। स्कूल में पढ़ते हुए राहुल ने नवाज़िंदा बाज़िन्दा की कहानी ‘खुदराई का नतीजा’ पढ़ी। इसी कहानी में बाजिन्दा की ये पंक्तियाँ राहुल के लिए जीवनपर्यंत यायावरी की प्रेरणास्रोत बन गईं :

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर रही तो यह जवानी फिर कहाँ ।

यात्राओं का राहुल के जीवन में कितना महत्त्व था, इसका अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि राहुल जी ने अपनी आत्मकथा लिखी तो उसका शीर्षक ही रखा : ‘मेरी जीवन-यात्रा’।

एक ही जीवन में कई ज़िंदगियाँ जीने वाले राहुल सांकृत्यायन साधु रहे, आर्य समाज से जुड़े, बौद्ध भिक्षु बने, समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन से भी जुड़े रहे। वे राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाले स्वतन्त्रता सेनानी, किसान आंदोलन के नेता और जनता के प्रिय नेता भी थे। यात्री, इतिहासकार, पुराविद, नाटककार और कथाकार तो वे थे ही।

साधु बनने पर राहुल ‘रामउदार दास’ के नाम से जाने गए। इस दौरान वे छपरा स्थित परसा के मठ से जुड़े रहे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी जुड़े रहे और राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 1921-22 के दौरान उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गए। वे छपरा ज़िला कांग्रेस के मंत्री तो रहे ही। साथ ही सन 1931 में स्थापित हुई बिहार सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक-सदस्य भी थे। आगे चलकर सन 1939 में उन्होंने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में योगदान दिया। किसान आंदोलन में उनकी सक्रियता राहुल को कार्यानन्द शर्मा, सहजानन्द सरस्वती और यदुनंदन शर्मा जैसे किसान नेताओं के निकट ले गई। वे बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन के सभापति भी रहे। राजनीतिक सक्रियता के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन और साहित्य में उनकी रुचि लगातार बनी रही।

समूचे भारतीय साहित्य को ‘विश्व की रूपरेखा’, ‘दर्शन-दिग्दर्शन’, ‘यात्रा के पन्ने’, ‘सिंह सेनापति’, ‘मध्य एशिया का इतिहास’ और ‘वोल्गा से गंगा’ सरीखी कृतियों से समृद्ध करने वाले राहुल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ‘बेड़े की तरह पार उतरने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया, न कि सिर पर उठाए-उठाए फिरने के लिए।’ भगवान बुद्ध के इस वाक्य को अपना जीवन-दर्शन बना लेने वाले राहुल सांकृत्यायन के बारे में उनके साथी भदंत आनंद कौसल्यायन ने ठीक ही लिखा था : ‘राहुल ने जब जो कुछ सोचा, जो कुछ माना, वही लिखा, निर्भय होकर लिखा। चिंतन के स्तर पर राहुल जी कभी भी, न किसी सांप्रदायिक विचार-सरणी से बंधे रहे और न संगठन-सरणी से। वह ‘साधु न चले जमात’ जाति के साधु पुरुष थे।’

बौद्ध धर्मग्रंथों और दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों की तलाश में राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत, नेपाल सहित अनेक दुर्गम क्षेत्रों में अपनी जान हथेली पर लिए हुए रोमांचक यात्राएं की। इन्हीं यात्राओं का फल था कि प्रमाणवार्तिक, प्रज्ञापारमिता (अष्टसाहस्रीका), मध्यांतविभंगकारिका, प्रातिमोक्षसूत्र, वादन्याय, वादरहस्य सरीखे विलुप्त हो चुके ग्रंथ सदियों बाद दुनिया भर के सामने आए। सरहपा और तिल्लोपा के ‘दोहा कोश’ से हिन्दी जगत का परिचय कराने का श्रेय भी राहुल जी को ही जाता है। अपनी महत्त्वपूर्ण किताब ‘काव्यधारा’ में राहुलजी ने स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे विस्मृतप्राय कवियों से हिन्दी समाज को रूबरू कराया।

किताबों, पुरानी पाण्डुलिपियों को खोज निकालने की ऐसी उत्कट और अदम्य लालसा उनके मन में थी कि राहुल सांकृत्यायन अपनी किताब ‘एशिया के दुर्गम भूखंडों में’ लिखते हैं कि ‘सुख, दुख, मान-अपमान की परवाह नहीं, यदि कुछ काम की पुस्तकें प्राप्त हों।’

जापान में राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन-यात्रा’ में जापान यात्रा का जो विवरण दिया है उसके अनुसार, वे अप्रैल सन 1935 में कलकत्ता से पानी की जहाज़ से जापान के लिए रवाना हुए। रंगून, पेनाङ्, सिंगापुर, हांगकांग, शंघाई होते हुए वे मई के आरंभ में जापान पहुंचे। सबसे पहले वे जापान के क्यूशो द्वीप स्थित मोजी शहर में पहुंचे। जापान के समाज-संस्कृति, पहनावे, खान-पान, परिवार की संरचना, वास्तुकला के बारे में राहुल सांकृत्यायन ने विस्तार से लिखा है।

मोजी से राहुल जी जापान के एक अन्य शहर कोबे के लिए रवाना हुए, जहाँ उन्हें भागलपुर के उनके मित्र आनंद मोहन सहाय मिले जो उनकी जापान-यात्रा के हमसफ़र रहे। आनंद मोहन से उनका परिचय असहयोग आंदोलन के दिनों में हुआ था। तब कुछ समय के लिए आनंद मोहन सहाय कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता और स्वाधीन भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के निजी सचिव भी रहे थे।

राहुल सांकृत्यायन कोबे से ओसाका होते हुए होरियोजी का बौद्ध विहार देखने गए। औद्योगिक शहर ओसाका को राहुल जी ने ‘जापान का लंकाशर-मानचेस्टर’ कहा है। बता दें कि होरियोजी के काष्ठ निर्मित बौद्ध विहार का निर्माण सन 607 में जापान के शासक शोतोकु ने कराया था। यहीं से राहुल सांकृत्यायन चुगुजी और यूमीदोनो के बौद्ध विहारों में भी गए।

होरियोजी विहार के बारे में राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है : ‘होरियोजी के मकानों, मंदिरों और मूर्तियों में जापानी संस्कृति का इतिहास भरा पड़ा हुआ है। यहाँ के मंदिर अधिकतर लकड़ी के हैं और उनमें से सबसे पुराना आज से चौदह सौ वर्ष पहले का बना हुआ है। प्रधान मंदिर की दीवारों पर अजंता जैसे चित्र हैं। बोधिसत्वों की मूर्तियाँ तो कला के अद्भुत नमूने हैं। मूर्तियाँ ही नहीं, चित्रपटों और वाद्यों का भी यहाँ अच्छा संग्रह है।’ जापान के लोगों की वेश-भूषा के बारे में राहुल जी ने लिखा है कि जापानी पुरुष अधिकांश कोट-पतलून पहने थे, लेकिन स्त्रियाँ सभी किमोनो (लंबा चोगा) और सुंदर कमरपट्टी में थीं।

होरियोजी के भित्ति-चित्र   | विकिमीडिआ कॉमन्स

7 मई सन 1935 को होरियोजी से राहुल जी क्योतो के लिए रवाना हुए, जो न सिर्फ़ उन्नीसवीं सदी तक जापान की राजधानी रहा था, बल्कि सही अर्थों में आज भी जापान की सांस्कृतिक राजधानी है। वहाँ उन्होंने ओतानी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. सुज़ुकी के परिवार से मुलाक़ात तो की ही, साथ ही वे बौद्ध दैनिक ‘चुमाईलिप्पो’ के कार्यालय भी गए। अपनी इस यात्रा में राहुल जी रिश्शो के बौद्ध विश्वविद्यालय, थैसो और ओसाका के विश्वविद्यालयों में भी गए। जहाँ वे प्रो. फूचीदा, बोगिहारा और किमूरा, स्थविर कितागावा जैसे बौद्ध दर्शन के विद्वानों से मिले।

क्योटो का प्रसिद्द त्यौहार गिओन मत्सुरी, 1920s | विकिमीडिआ कॉमन्स

क्योतो के नैसर्गिक सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए हुए राहुल जी ने लिखा है कि ‘क्योतो की तीन तरफ़ देवदार से ढ़ंकी हरी-भरी पहाड़ियाँ हैं। यह बहुत ही रमणीय स्थान है, इसीलिए तो सिनेमा-फ़िल्म बनाने वालों ने तोकियो नहीं, क्योतो को अपनी राजधानी बनाया।’ राहुल जी ने जापानियों के परिश्रम, ईमानदारी और उनकी कर्मठता की प्रशंसा करते हुए लिखा है : ‘साधारण जापानी बड़े ही मधुर स्वभाव के होते हैं। जापान की साधारण जनता बहुत ईमानदार है। उनमें स्नेह और प्रेम है, जो विदेशी के लिए और भी बढ़ जाता है। किसी भी गाँव में जाने पर हरेक आदमी मुसाफ़िर की सेवा के लिए उत्सुक दिखाई देता है।’

क्योतो, जापान में महिलाएं, 1935  | विकिमीडिआ कॉमन्स

राहुल जी ने आधुनिक जापान में सामंती वर्ग के प्रभुत्व तथा जापानी स्त्रियों, श्रमिकों और किसानों की दयनीय स्थिति का मुद्दा भी उठाया। जापानी समाज में तब मौजूद रही सामंती प्रवृत्ति के बारे में राहुल सांकृत्यायन ने लिखा : ‘आज जापान का शासन न सम्राट के हाथ में है, न बनियों के। हयाशी, अराकी, मिनामी और मसाकी यह चार फौजी जनरल और उनके सामंती वंश जापान के वास्तविक शासक थे। सामंतवाद वस्तुतः वहाँ से लुप्त हुआ ही नहीं। उसने पूँजीपतियों को बढ़ने दिया, पार्लियामेंट और चुनाव की व्यवस्था को भी स्वीकार किया, किन्तु वोट को नहीं, सेना को अंतिम निर्णायक बनाया।’

राहुल जी की इस यात्रा में उनके जापानी सहयोगी और मार्गदर्शक ब्योदोसान बराबर उनके साथ रहे। राहुल जी द्वारा जापानी गाँव में ठहरने की इच्छा जताने पर ब्योदोसान ने अपने गाँव नित्ता में राहुल जी को ठहराया था। अंततः अगस्त सन 1935 में राहुल सांकृत्यायन शिमोनोसेकी से कोरिया के लिए रवाना, जहाँ से वे मंचूरिया होते हुए सोवियत रूस गए।

जापानी भोजन, चाय और खेती

राहुल सांकृत्यायन ने जापानी भोजन और चाय का ज़िक्र भी अपनी आत्मकथा में किया है। जापान में खाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चॉपस्टिक का भी दिलचस्प विवरण राहुल ने दिया है। वे लिखते हैं : ‘जापान में चीन की तरह दस-दस इंच पेंसिल जैसी दो लकड़ियों से खाने का रवाज है। मैंने जहाज़ में ही लकड़ियों से खाना सीख लिया था। वैसे तिब्बत में भी बड़े-बड़े घरों में लकड़ी या हाथीदांत की दो पेंसिलें दी जाती हैं। इस यात्रा में जापान पहुँचने से पहले लकड़ी से खाने में दक्ष होने का मैं निश्चय कर चुका था।’ जापान के भोजन में मिर्च-मसाले और तेल-घी के न के बराबर इस्तेमाल को भी राहुलजी ने नोटिस किया। जापान में खाने की थाली में तनिक भी जूठा न छोड़ने की परंपरा को भी उन्होंने सराहा।

जापानी चाय की ट्रे | विकिमीडिआ कॉमन्स

जापान में चाय के प्रचलन पर राहुल की टिप्पणी ग़ौर करने लायक़ है : ‘चाय भी पहले दवाई के काढ़े जैसी मालूम होती, स्वाद कुछ कड़ुआ, न उसमें तिब्बत की तरह नमक-मक्खन न हिंदुस्तान की दूध-चीनी, न कश्मीर की तरह मिश्री-इलायची; बस खाली पानी में उबली पत्तियों का अर्क़ होता, जिसका रंग हरा-पीला होता है। चाय के प्याले भी हमारे यहाँ के प्यालों से छोटे होते हैं। कुछ दिन बाद इसमें भी स्वाद आने लगा। वस्तुतः भोजन या संगीत का स्वाद अधिकतर अभ्यास से पैदा होता है।’

जापान में कृषि के आधुनिक तौर-तरीक़ों और जापानी किसान के अथक परिश्रम से भी राहुल जी गहरे प्रभावित हुए। वे लिखते हैं : ‘खेती करने में जापानी किसान आधुनिक चीज़ों का बहुत उपयोग करते हैं। खेती में खाद ख़ूब देते हैं। फ़ैक्टरियों की बनी खादों और कच्चे पाखाने को भी डालते हैं। हमारे किसानों से वह चौगुनी-पंचगुनी ज़्यादा फ़सल पैदा करते हैं। किसान खेतों में मशीनों का भी इस्तेमाल करते हैं। ख़ासकर दँवाई में पैर से और तेल के इंजन से चलने वाली मशीनों को इस्तेमाल करते हैं।’

जापान का किसान, पुराना चित्र  | विकिमीडिआ कॉमन्स

राहुल सांकृत्यायन : एक विराट व्यक्तित्व

‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसी किताब लिखने वाले साहित्यकार रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने राहुल सांकृत्यायन के बारे में एक अद्भुत संस्मरणात्मक लेख लिखा था।

रामधारी सिंह दिनकर | विकिमीडिआ कॉमन्स

इस लेख में रामधारी सिंह दिनकर राहुल जी के बारे में लिखते हैं : ‘एक धर्म-प्रचारक, जिसमें उत्तरीय के सिवा धार्मिक परंपरा का कोई आडंबर नहीं, ऐसा विद्वान जिसने सारी विद्याओं में डूबकर केवल नास्तिकता को ग्रहण किया हो, साहित्य में रहते हुए जिसे राजनीति का मोह हो और राजनीति की ओर अग्रसर होते हुए जिसे कुछ घृणा, कुछ झिझक-सी लगे; युग-विधायक अनुसंधान करते हुए भी जिसे अपना श्रम व्यर्थ मालूम होता हो; इतिहास को मुर्दों का क्षेत्र कहकर जो ज़िंदों के बीच जीने की लालसा से रूस दौड़े और ज़िंदों के जीवन से मर्म पर व्याघात लेकर फिर मुर्दों के देश लौट आए; प्रकांड विद्वान, सांस्कृतिक क्रांति का उग्र नेता, क्रांतिदर्शी और विक्रांत परिश्रमी; संसार जिसे असाधारण एवं अज्ञेय रहस्य मानकर विस्मय करे, उसे साधारण-अतिसाधारण-मानकर खिल्ली उड़ाता-सा; देवताओं के सामने मनुष्य और स्वर्ग के सामने पृथ्वी को पूजने वाला; जो अपने तर्क के तीखे बाणों से परंपरा, रूढ़ि और प्राचीन संस्कारों पर कुटिल व्यंग्य कसने का आदी हो; धुन का पक्का, लगन का कड़ा; ऐसी विचित्रताओं का आगार है वह मनुष्य, जिसे हम राहुल सांकृत्यायन के नाम से अभिहित करते हैं।

मुख्य चित्र: पिनटेरेस्ट

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