इस इमारत के बारे में कुछ भी काल्पनिक नहीं है, कम से कम ऊपरी तौर पर तो बिल्कुल नहीं। गुलिस्तान-ए-इरम की वास्तुकला यूरोपीय और अवधी वास्तुकला शैली का मिश्रण है। इसके सामेन वाले हिस्से में यह मटियाले पलस्तर और बारीक अस्तकारी की पोशाक पहने है। लेकिन भीतरी हिस्सा गुप्त सुरंगों, छुपी हुई तिजोरियों और एक नवाब की हत्या सहित कई नाटकियता और रहस्य से भरा पड़ा है।
लखनऊ के क़ैसरबाग़ इलाक़े में, कई भव्य इमारतों में से एक है गुलिस्तान-ए-इरम। इसका निर्माण कार्य नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर (शासनकाल 1818-27) ने शुरु करवाया था और पूरा करवाया उनके पुत्र और उत्तराधिकारी नसीरउद्दीन हैदर (शासनकाल 1827-1837) ने। महल के सामने एक ख़ूबसूरत बाग़ और एक फव्वारा था। गुलिस्तान-ए-इरम का मतलब होता है जन्नत का बाग़। इसके आसपास नवाबी दौर की और भी इमारतें होती थीं जैसे दर्शन विलास पैलेस, छोटी छतर मंज़िल और लाल बारादरी। दर्शन विलास और लाल बारादरी आज भी मौजूद हैं।
नसीरउद्दीन हैदर के लिए गुलिस्तान-ए-इरम सही मायने में एक ऐसा महल था जहां मनोरंजन के सभी सामान मौजूद थे। ऊपरी मंज़िल में एक भव्य पुस्तकालय था, जहां दुनिया भर की ढेरों किताबें और ग्रंथ रखे होते थे। कहा जाता है कि नवाब यहां घंटों बैठकर चिंतन किया करते थे क्येंकि वह पढ़ने-लिखने के बहुत शौक़ीन थे।
नसीरउद्दीन हैदर के व्यक्तित्व का एक और भी पहलू था। वह बहुत रंगीन तबीयत और भोगी क़िस्म के भी इंसान थे। उन्हें पैसे उड़ाने और अपने यूरोपीय दोस्तों के लिए कोठी में शानदार दावतें करने का शौक़ था। औरतें भी युवा नवाब की कमज़ोरी हुआ करती थीं। वह महिलाओं की संगत में बहुत ख़ुश रहते थे । जो भी औरत उन्हें पसंद आ जाती थी, वो उससे विवाह कर लेते थे फिर चाहे वह किसी भी जाति, रंग या धर्म की हो। इसकी वजह से ख़ुद उनकी महिला अधिकारियों का उन पर से विश्वास उठ गया था। इसी इमारत में धनिया मेरी नाम की एक महिला अधिकारी ने उन्हें ज़हर देकर मार दिया था। धनिया मेरी शाही महिला परिचारकों की सर्वेक्षक थी।दरअसल अंग्रेज़ अफ़सर कर्नल लो ने धनिया मेरी को बहला फुसलाकर नवाब की शराब में ज़हर मिलाने पर राज़ी कर लिया था। इस तरह सात जुलाई सन 1837 की रात 35 साल की उम्र में गुलिस्तान-ए-इरम में ही नसीरउद्दीन हैदर की हत्या कर दी गई।
अंग्रेज़ हमेशा शाही घरानों पर ज़्यादा से ज़्यादा नियंत्रण हासिल करने की ताक में लगे रहते थे। इसके लिए वह अंदर के आदमियों की मदद लेने और स्थितियों का फ़ायदा उठाने के लिए तैयार रहते थे। नसीरउद्दीन हैदर की मौत के बाद सत्ता की लड़ाई शुरु हो गई जो नसीरउद्दौला की ताजपोशी के साथ ख़त्म हुई। अंग्रेज़ चाहते भी यही थे।
गुलिस्तान-ए-इरम की अवधी वास्तुकला में यूरोपीय और मुग़ल वास्तुकला शैली का पुट था और ये इमारत उस समय की बेहतरीन इमारतों में से एक थी। पांच मंज़िला महल में दुहेरी दीवारें बनवाई गई थीं जो टेराकोटा ईंटों की बनी थीं। ये महल गर्मियों में भी ठंडा रहता था। चूंकि ये गोमती नदी के पास था।
गुलिस्तान-ए-इरम अपने समय की बेहतरीन इमारतों में से एक था लेकिन सन 1857 के विद्रोह के दौरान ये बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। उथल-पथल के दौर में क़ैसरबाग़ लड़ाई का केंद्र बन गया था। विद्रोह के दौरान महल में ख़ूब लूटपाट हुई औऱ अंग्रेज़ों ने नवाबी दौर के कई बहुमूल्य दस्तावेज़ जला डाले थे। कहा जाता है कि तमाम महल के मुक़ाबले में, सबसे ज़्यादा नुक़सान इसी इमारत को पहुंचाया गया था।
आज़ादी के बाद महल राज्य स्वास्थ विभाग को सौंप दिया गया। लेकिन स्वास्थ विभाग आने के बाद ये धीरे-धीरे और ख़राब होने लगा और इसके ढह जाने का ख़तरा बढ़ने लगा। लखनऊ के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रौशन तक़ी ने सन 1998 और सन 2004 के दौरान राज्य सरकार को कई पत्र लिखे जिनमें भवन की मरम्मत करने का आग्रह किया था।
आख़िरकार महल की मरम्मत हो ही गई लेकिन मरम्मत के दौरान कई रहस्यों से पर्दे उठे। मरम्मत के दौरान कई भूमिगत सुरंगों का पता चला। माना जाता है कि ये सुंरगें कोठी को आसपास के महलों से जोड़ती थीं। डॉ. तक़ी का कहना है कि इन सुरंगों का इस्तेमाल शायद दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिए किया जाता होगा। नवाबों की पर्दानशीं बेगमें भी शायद इन सुरंगों का इस्तेमाल आने-जाने के लिए करती होंगी। मरम्मत के दौरान एक और रहस्य का पता चला। कुछ साल पहले महल की ऊपरी मंज़िल की दीवारों में धंसीं दो तिजोरियों का पता चला। माना जाता है कि इसी मंज़िल के कमरे में नवाब नसीरउद्दीन हैदर पढ़ा-लिखा करते थे। ठोस लोहे की बनी इन तिजोरियों में शायद महत्वपूर्ण तस्तावेज़ और नवाबों का शाही ख़ज़ाना रखा जाता होगा।क्योंकि उस समय बैंक नहीं हुआ करते थे।
राज्य सरकार की स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत गुलिस्तान-ए-इरम को और सजाया संवारा जा रहा है। अधिकारियों का कहना है कि इसका इस्तेमाल साहित्यिक आयोजनों के लिए किया जाएगा। महल में अभी भी किताबें रखने के लिए बनी गई, नवाबी दौर की लकड़ी की अलमारियां और रैक हैं। उम्मीद की जाती है कि साहित्य समारोह की वजह से गुलिस्तान-ए-इरम कोठी, 21वीं सदी का एक नया और रोचक अध्याय लिखेगी।
*मुख्य चित्र – अयान बोस
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