सेल्युलर जेल: एक ऐसा नाम सामने आते ही हमारे भीतर देशभक्ति की भावना पैदा करता है और हमें उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को याद दिलाता है, जिन्हें भारत की मुख्य भूमि से दूर यहां लाकर सज़ाए दी गई थीं। इसे आमतौर पर ‘काले पानी’ की सज़ा कहा जाता था। इस जेल को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘इंडियन बैस्टिल'( बैस्टिल यानी पेरिस का एक क़िला जिसमें क़ैदियों को रखा जाता था) नाम दिया था। अंडमान द्वीप समूह की यह जेल अपने निर्माण के समय से ही स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र रही थी।
बहुत से लोग स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हैं, जिन्हें इस कारावास के निर्माण के लिए काम करते हुए अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। क़ैदियों के लिये ख़ासतौर से बनाई गई इस बस्ती में बाद में सेल्युलर जेल भी बनाई गई थी।
अंडमान में क़ैदियों को रखने के लिये एक बस्ती बनाने की शुरुआत 18वीं सदी के अंत में हुई थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का सर्वेक्षक लेफ़्टिनेंट आर्चीबाल्ड ब्लेयर सन 1789 में चथम द्वीप पहुंचा था, और उसी ने इसे विकसित करवाना शुरू किया था। इसी तरह की बस्तियां बेनक्यूलेन (सिंगापुर), टेनेसी (म्यांमार) और मलक्का (मलेशिया) में भी थीं, लेकिन (tropical diseases) बहुत अधिक गर्म मौसम और सीलन भरे माहौल से होनेवाले रोगों तथा आदिवासियों के बार-बार हमलों के कारण सन 1796 में अंग्रेज़ों को ये बस्तियां छोड़नी पड़ी थीं।
सन 1857 के विद्रोह में बाग़ियों और भगोड़ों की गिरफ़्तारियों के बाद अंग्रेज़ों को अंडमान में क़ैदियों के लिये एक जेल बनाने की ज़रुरत महसूस हुई थी, ताकि वे भारतीयों की उस लोकप्रिय धारणा का “उपयोग” कर सकें जो कहती थी, “समंदर पार करने पर भारतीय अपनी जाति और समुदायिक पहचान खो देते हैं ।”
अंडमान समिति की सिफ़ारिशों के तहत 22 जनवरी,सन 1858 को इस कॉलोनी में यूनियन जैक फ़हराया गया था। इस कालोनी का नाम आर्चीबाल्ड के नाम पर पोर्ट ब्लेयर रखा गया। 10 मार्च, सन 1858 तक चथम द्वीप में सन 1857 के विद्रोह में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों सहित 200 स्वतंत्रता सेनानियों का एक नया जत्था लाया गया। फिर उनसे लगभग बारहमासी बरसात के मौसम में सांपों, जोंक और बिच्छुओं के बीच, उन्हें बस्ती बनाने के काम में लगा दिया गया।
बस्ती का निर्माण कार्य स्थानीय आदिवासियों को पसंद नहीं आया और वे आक्रामक होकर अपने आदिम हथियारों से हमले करने लगे। नतीजे में एबरडीन की लड़ाई (सन 1859) हुई और जल्द ही आदिवासियों की हार हो गई, क्योंकि वे अंग्रेज़ों के आधुनिक हथियारों के सामने टिक नहीं पाए।
जलवायु, आदिवासी के हमलों और कड़ी मेहनत के कारण कई क़ैदियों की मौत हो गई। इसके बाद कराची, बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता के बंदरगाहों से और क़ैदियों को लाया गया, जिन्होंने रॉस, हैवलॉक और वाइपर द्वीपों में जंगलों की सफ़ाई की। फिर यहां प्रशासकों के लिए महलनुमा बंगले, बैरक, जेल, और उन क़ैदियों के लिये फांसी देने की जगह बनाई गई, जिन्होंने सुधरने से इनकार कर दिया। कच्चा माल म्यांमार से और लकड़ी पास के चथम आरा-मिल से लाई जाती थी। लोहे की सलाख़ें, ज़ंजीरें, बेड़ियां, कोड़े मारने के स्टैंड और तेल मिलें सीधे इंग्लैंड से आती थीं।
जैसे-जैसे भारतीय उपमहाद्वीप में स्वतंत्रता आंदोलन तेज़ होने लगा, यहां लाए जाने वाले सज़ायाफ़्ता स्वतंत्रता सेनानियों की तादाद भी बढ़ने लगी। नतीजे में, एक कड़ी सुरक्षा वाली जेल की आवश्यकता महसूस हुई, जहां बड़ी संख्या में राजनीतिक क़ैदियों को एकांत में रखा जा सके, ताकि वे आपस में घुलमिल न सकें और क्रांतिकारी विचारों का आदान प्रदान न कर सकें। बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों को न्यूनतम लागत पर लंबी अवधि तक कारावास में रखने के लिए कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) में,सन 1890 में बनी एक समिति ने ‘अपराधियों’ को दूर दराज़ के इलाक़े में रखने के लिए एक जेल के निर्माण की सिफ़ारिश की।
इस तरह सेल्युलर जेल बनने का काम अक्टूबर सन 1896 में शुरू हुआ । इस पर लगभग साढ़े 5 लाख रुपये की लागत आई। ये लगभग दस वर्षों में बनकर तैयार हुई। ये तीन-स्तरीय एक विशाल संरचना थी। मध्य में एक सुरक्षा बुर्ज के इर्द-गिर्द सात खंड थे, जहां 698 क़ैदियों को एकांत कारावास या कोठरी में इस तरह रखा जा सकता था, कि वे न तो कुछ देख सकते थे और न ही एक-दूसरे से संवाद कर सकते थे। कोठरियों की कुंडी की डिज़ाइन ऐसी थी, कि इसे अंदर से खोला नहीं जा सकता था।
सन 1909 में क़ैदियों का पहला जत्था सेल्युलर जेल पहुंचा था। उनके साथ बहुत ही अमानवीय और बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। उन्हें बहुत कम भोजन और कपड़े दिए जाते थे और भयानक शारीरिक काम करने के लिए मजबूर किया जाता था। काम पूरा न करने पर कड़ी सज़ा दी जाती थी। यह सिलसिला सन 1933 तक जारी रहा। तीन स्वतंत्रता सेनानियों- महावीर सिंह, मोहन किशोर नमो दास और मोहित मोइत्रा के आमरण अनशन से भारत में भारी आक्रोश फैल गया, जिसके बाद अंग्रेज़ों को मजबूरन क़ैदियों के रहने की स्थिति में सुधार करना पड़ा।
निर्माण के तीस साल बाद सन 1939 में दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) की वजह से स्वतंत्रता सेनानियों को वापस देश के अन्य हिस्सों में भेजकर सेल्युलर जेल को अचानक ख़ाली कर दिया।
सन 1941 के भूकंप और सन 1942 में जापानी हमले में जेल के सात में से चार खंड ध्वस्त हो गए। मौजूदा गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल के निर्माण में इन्हीं ध्वस्त खंड के मलबे का उपयोग किया गया था।
सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद बाक़ी तीन खंडों की मरम्मत की गई, और फिर 11 फ़रवरी सन 1979 को सेल्युलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया। कभी औपनिवेशिक साम्राज्य की ज़ुल्मों की ख़ामोश गवाह रही सेल्युलर जेल अब क़ुर्बानी की निशानी के रूप में खड़ी है, और यह उन मुशकिल हालात की याद दिलाती है, जिसमें रहकर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश आज़ादी के लिए संघर्ष किया था।
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