‘बिभा चौधरी‘ का नाम शायद कम ही लोगों ने सुना हो लेकिन फिर भी वह उन पहली पंक्ती के भारतीय भौतिक वैज्ञानिकों में से थीं, जो नोबेल पुरस्कार जीतने से चूक गईं थीं। शायद क़िस्मत उनके साथ नहीं थी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह कण भौतिकी और ब्रह्मांडीय किरणों के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली महिला वैज्ञानिक बन गईं। वह एक अकेली भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं, जिनके नाम पर एक तारे का नाम रखा गया है।
सन 1913 में कोलकाता के एक ज़मींदार परिवार में जन्मीं बिभा के पिता डॉक्टर थे। उनकी मां का परिवार ब्रह्म समाज का अनुयायी था जो सामाजिक सुधार और महिलाओं में शिक्षा की वक़ालत करता था। इससे भी उन्हें मदद मिली। चौधरी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमएससी की डिग्री हासिल की। उस समय में बीएससी की डिग्री हासिल करना भी मामूली बात नहीं हुआ करती थी। 24 छात्रों की कक्षा में, बिभा चौधरी अकेली महिला छात्रा थीं। उन्होंने एक वैज्ञानिक के रूप में अपने करिअर की शुरुआत भौतिक वैज्ञानिक देवेंद्र मोहन बोस के साथ की, जो प्रख्यात भौतिक विज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस के भतीजे थे।
शुरुआती हिचक के बाद, बोस ने उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय में अपने शोध- समूह में शामिल होने की इजाज़त दे दी। बोस को, सन 1937 में कोलकाता में “बोस संस्थान” के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। चौधरी और उनके अन्य शोध-छात्र भी बोस के साथ उसी संस्थान में शामिल हो गए थे। यहीं उन्होंने अपना बेमिसाल काम किया।
सन 1938 में, बोस और चौधरी ने ब्रह्मांडीय किरणों पर अपना शोध-कार्य शुरू किया। यह किरणें उच्च ऊर्जा वाले कण हैं जो बाहरी अंतरिक्ष से सौर मंडल में प्रवेश करते हैं। इनका अध्ययन करने के लिए, उन्होंने फ़ोटोग्राफ़िक प्लेटों का उपयोग किया, क्योंकि ये अत्यधिक आवेशित कण, जब फोटोग्राफिक प्लेटों से गुजरते हैं, तो एक ट्रैक (पगडंडी) पीछे छोड़ देते हैं, जिसे बाद में विकसित की जा सकने वाली छवियों में जांचा जा सकता है। इस पर काम करते हुए, उन्होंने ‘मेसन‘ नाम के एक उप-परमाणु कण की खोज में महत्वपूर्ण योगदान किया। क्योंकि तब तक महज़ उनके वजूद के बारे में ही पता था। दरअसल, कणों के लगभग सटीक माप तक पहुंचने वाले भी बोस और चौधरी ही थे।
उन्होंने “नेचर” नाम की पत्रिका में अपने शोध-कार्य पर चार लेख लिखे। इस खोजे गए कणों की और ज़्यादा जांच-पड़ताल करने के लिए फ़ुल-टोन फ़ोटोग्राफ़िक प्लेट्स की आवश्यकता थी। इसके पहले वे हॉफ़-टोन फ़ोटोग्राफ़िक प्लेट्स का इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन उन्हें जिन प्लेटों की जरूरत थी, वे दूसरे विश्व युद्ध की वजह से भारत में उपलब्ध नहीं थीं और उन्हें अपना ड्रीम प्रोजेक्ट छोड़ना पड़ा।
कुछ साल बाद, ब्रिटिश भौतिक वैज्ञानिक सेसिल फ्रैंक पॉवेल ने बेहतर, फ़ुल-टोन फोटोग्राफ़िक प्लेटों का उपयोग करके कण,पी-मेसन (पियोन) की खोज के साथ मेसन के अस्तित्व की पुष्टि करने के लिए ठीक उसी विधि का उपयोग किया। पॉवेल को सन 1950 को भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन वह अपनी पुस्तक द् स्टडी ऑफ़ एलीमेंट्री पार्टिकल्स बाय द् फ़ोटोग्राफ़िक मेथड (1959) में इस बात का ज़िक्र करना नहीं भूले कि इस क्षेत्र में पहले प्रयास के रूप में इस विधि का विकास बोस और चौधरी ने किया था। इस दौरान चौधरी मैनचेस्टर, इंग्लैंड में नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक वैज्ञानिक पैट्रिक ब्लैकेट की देखरेख में पीएचडी कर रहीं थीं। भारत में प्रसिद्ध परमाणु भौतिक वैज्ञानिक होमी जे. भाभा ने बॉम्बे में नए स्थापित हुए टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफ़आर) के लिए युवा वैज्ञानिकों की तलाश कर रहे थे। भाभा ने बिभा चौधरी को टीआईएफ़आर (TIFR) में नौकरी दी और इस तरह वह संस्थान में शामिल होने वाली पहली महिला बन गईं।
लगभग पांच वर्षों तक टीआईएफआर में काम करने के बाद, चौधरी दूसरे प्रतिष्ठित संस्थान, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद में शामिल हो गईं और प्रख्यात भारतीय भौतिक वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई के साथ काम करने लगीं।
सन 1960 के दशक में कोलार गोल्ड फील्ड्स में कॉस्मिक किरण “म्यूऑन” के अध्ययन से संबंधित प्रयोग किए गए जो इलेक्ट्रॉनों के समान एक प्राथमिक कण थे। ये खदानें सैकड़ों फ़ुट गहरी थीं और इन “म्यूऑन”का अध्ययन करने के लिए यह एकदम मुनासिब जगह थी। इसके अलावा इन खानों में ‘कोलार चट्टान‘ बहुत बड़ी मात्रा में मौजूद थीं। टीआईएफ़आर के वैज्ञानिक के रूप में चौधरी ने इन प्रयोगों के तौर-तरीक़ों पर काम किया और एक डिटेक्टर की स्थापना का मार्गदर्शन किया, जिसे प्रयोग के लिए सात सौ फ़ुट भूमिगत रखा गया था। कोलार में प्रयोग के बाद, चौधरी ने साराभाई के साथ अपने भविष्य के शोध और प्रयोगों पर चर्चा की। लेकिन दुर्भाग्य से जल्द ही साराभाई की मृत्यु हो गई और टीआईएफ़आर के नए निदेशक ने उन्हें आगे कोई शोध करने की अनुमति नहीं दी। इस तरह दूसरी बार, चौधरी का सपना अधूरा रह गया।
अफ़सोस की बात है कि उन्हें अपने करिअर के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर, एक बार फिर परियोजना को छोड़ना पड़ा। इसके पहले बोस संस्थान में भी उन्हें अपनी परियोजना छोड़नी पड़ी थी। उन्होंने अंततः स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और उच्च ऊर्जा भौतिकी पर अपना काम जारी रखने के लिए कोलकाता चली गईं। वह साहा इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्यूक्लियर फ़िज़िक्स और इंडियन एसोसिएशन फ़ॉर द् कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस के साथ जुड़ गईं।
सन 1991में विभा चौधरी का देहांत हो गया। दुख की बात यह है कि अपने जीवनकाल के दौरान, उन्हें उनके काम और भौतिकी में योगदान के लिए कोई मान्यता नहीं मिली। उनके बारे में बमुश्किल ही कुछ लिखा गया होगा। लेकिन हाल ही में यानी सन 2018 में, भौतिक विज्ञानी राजिंदर सिंह और एस सी रॉय ने चौधरी की जीवनी प्रकाशित की है। उस किताब का शीर्षक है, “ए ज्वेल अनअर्थेड: बिभा चौधरी” है, जिस में इस बोमिसाल भौतिक वैज्ञानिक के काम की एक झलक देखने को मिलती है।
अगले साल यानी चौधरी की देहांत के ठीक 30 साल बाद, उन्हें दो बड़े सम्मान मिले। सन 2019 में, अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ, जो ग्रहों के पिंडों के नाम रखता है, ने एक सार्वजनिक प्रतियोगिता के माध्यम से पीले-सफ़ेद बौने तारे एचडी 86081 का नाम बदलकर ‘बिभा‘ रख दिया। उसके अगले वर्ष, भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भारतीय महिला वैज्ञानिकों के सम्मान में स्थापित, 11 पीठों में से एक का नाम चौधरी के नाम पर रखा। वैसै तो मोटे तौर पर, बिभा चौधरी को भुला दिया गया है लेकिन फिर भी उन्होंने आकाशीय दुनिया में अपना एक स्थायी स्थान हासिल कर लिया है।
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