कोलार – सोने की नगरी 

कोलार – सोने की नगरी 

बंगलुरु से पूर्व की तरफ़, क़रीब सौ कि.मी. दूर जायेगे तो वहां फाएंगे एक ऐसा इलाक़ा जो कभी ‘लिटिल इंग्लैंड’ के नाम से जाना जाता था।यहां कभी अंग्रेज़ों का बसाया गया गहमागहमी वाला शहर हुआ करता था। इलाक़े के नाम भी अंग्रेज़ी में थे जैसे रॉबर्टसनपेट और एंडरसनपेट। यहां गोल्फ़ कोर्स और स्विमिंगपूल वाले सोशल क्लब भी हुआ करते थे। इसके अलावा विश्व प्रसिद्ध अस्पताल, स्कूल और सिनेमाघर होते थे। 20वीं शताब्दी में ये तमाम-झाम सोने के व्यापार के बिना नहीं था संभाव नहीं हो सकता था। सच्चाई भी यही थी।

कोलार गोल्ड फील्ड्स में KGF क्लब का एक दृश्य। | विकिमीडिया कॉमन्स

जिस स्थान की बात हो रही है वो मशहूर कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स हैं,जिन्हें के.जी.एफ. के नाम से भी भी जाना जाता है। यहां कभी देश का 95% प्रतिशत सोने का उत्पादन होता था। तो पेश है कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स का दिलचस्प क़िस्सा।

कोलार 19वीं शताब्दी में सुर्ख़ियों में आया जब यहां सोने की खानें मिलीं लेकिन शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि इसका इतिहास 1700 साल पुराना है।

कोलार गोल्ड फील्ड्स | विकिमीडिया कॉमन्स

350-1000 ई. के दौरान कर्नाटक पर गंगा वंश का शासन था और तब कोलार उनकी राजधानी हुआ करती थी। राजा इस जगह से जाने के बाद भी अपने साथ ‘कुवालाला-पुरारेश्वर (कोलार के भगवान) का ख़िताब ले गये। सन 1004 में कोलार पर चोल वंश का शासन हो गया। रिकॉर्ड से पता चलता है कि कोलार सोने की खान से निकाला गया सोना चोल राजवंश के प्रसिद्ध बंदरगाह पूमपुहार लाया जाता था जहां से उसे मदुरई के व्यापारियों और दूसरे देशों को बेचा जाता था।

अंग्रेज़ों के आने के पहले खान से जितना भी सोना निकाला गया था वो अर्धविकसित था। लोगों के छोटे छोटे समूह लोहे के औज़ारों और तेल के दिये की मदद से सोने की सतह को खुरचते थे। लेकिन अंग्रेज़ सेना के अधिकारी जॉन वॉरन की इस पर नज़र पड़ गई और उसे खान का महत्व समझ आ गया।

सन 1799 में श्रीगंगापट्टनम में अंग्रेज़ों के हाथों टीपू सुल्तान के मारे जाने के बाद अंग्रेज़ों ने टीपू के इलाक़े, मौसूर रियासत को सौंपने का फ़ैसला किया। लेकिन इसेक लिये ज़मीन का सर्वे ज़रुरी था। वॉरन तब पैदल सेना की 33वीं बटालियन का कमांडर था इस काम के लिये उसे कोलार बुलाया गया। वॉरन ने सन 1802 में मैसूर रियासत के सीमांकन का काम शुरु किया। उसे स्थानीय खानों में हो रही गतिविधियों को देखकर हैरानी हुई। जांच पड़ताल के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि गांव वालों जिस तरीक़े से सोना निकाल रहे थे उससे हर 56 किलो मिट्टी में से एक रत्ती सोना निकाल रहा था। उसने सोचा कि अगर इस काम में पेशेवर लोगों को लगा दिया जाय तो काफ़ी मात्रा में सोना निकल सकता है।

तब से छह दशकों तक कई लोगों (ईस्ट इंडिया कंपनी सहित) ने सोना खोजने में अपनी क़िस्मत आज़माई। तरह तरह की खोज की गईं और अध्ययन किये गये लेकिन किसी को भी सोने का बड़ा ज़ख़ीरा नहीं मिल पाया। इस स्थिति में सन 1871 में बदलाव आया। अंग्रेज़ सेना से रिटायर हुए आयरलैंड के माइकल फिट्ज़गैराल्ड लैवले ने बैंगलोर छावनी को अपना घर बना लिया था। वह न्यूज़ीलैंड में माओरी युद्ध से लौटा ही था जहां उसकी दिलचस्पी खानों में हो गई थी।जॉन वॉरन की पुरानी रिपोर्ट पढ़कर उसकी दिलचस्पी जाग गई और वह बैलगाड़ी से सौ कि.मी. लंबा सफ़र तय करके कोलार पहुंच गया।

ननददरोग माइन  | विकिमीडिया कॉमन्स

अपने अनुभव की मदद से लैवले ने खनन के लिये कई स्थानों की पहचान की । दो साल से ज़्यादा समय तक शोध करने के बाद उसने सन 1873 में महाराज की सरकार को लिखकर खनन के लिये लाइसेंस की इजाज़त मांगी। उसे कोलार में खनन के लिये बीस साल का पट्टा मिल गया और इस तरह भारत में आधुनिक तरीक़े से खनन की शुरुआत हुई।

लेकिन जल्द ही लैवले के पास पैसे ख़त्म हो गये और सन 1880 में लंदन की माइनिंग फ़र्म जॉन टैलर एंड सन्स ने कोलार की बागडोर संभाल ली और इतिहास बदल डाला। ये फ़र्म अपने साथ आधुनिक मशीने लेकर कोलार आई और खनन का काम शुरु किया। एक समय कोलार की खान सबसे गहरी और सबसे ज़्यादा सोना देने वाली खान थी। कोलार गोल्ड फील्ड्स भारत में उन पहले शहरों मे था जहां बिजली आई। इसका श्रेय माइनिंग फ़र्म को जाता है।

चैंपियन रीफ | विकिमीडिया कॉमन्स

सन 1900 में मैसूर के महाराजा को कावेरी नदी पर पनबिजली संयंत्र लगाने का प्रस्ताव दिया गया। महाराजा से इजाज़त मिलने के बाद संयंत्र से 140 कि.मी. दूर कोलार में बिजली पहुंचने लगी। इस काम के लिये ब्रिटेन, अमेरिका और जर्मनी से मशीने आयात की गईं जिन्हें छकड़ा गाड़ियों में कावेरी पहुंचाया गया। इन गाड़ियों को हाथी और घोड़े खींचते थे। बहुत जल्द कोलार गोल्ड फील्ड्स में मोमबत्तियों और मिट्टी तेल के दियों की जगह बल्ब आ गए। तब बैंगलोर और मैसूर में भी बिजली नहीं पहुंची थी। बिजली की वजह से खनन कर्मियों के पिंजरे आसानी से ऊपर नीचे जाने लगे और खनन के निचेले हिस्से में हवा भी रहने लगी।

खनन के काम ने ज़ोर पकड़ लिया और दौलत की बरसात होने लगी । इस तरह बंजर ज़मीन वाला कोलार शहर सन 1930 तक एक समृद्ध शहर में तब्दील हो गया। कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स की, 31 दिसंबर सन 1960 की रिपोर्ट के अनुसार, “शानदार सड़कें, पूरे समय पानी की सप्लाई, बिजली वितरण प्रणाली, रेल, अस्पताल, क्लब, दुकानें और सिनेमाघर ये तमाम चीज़ें खनन उद्योग की वजह से संभव हो सकीं अन्यथा ये इलाक़ा पिछड़ा ही रहता।”

लेकिन एक तरफ़ जहां अंग्रेज़ अफ़सर और कर्मचारी ऐश भरी ज़िंदगी जी रहे थे वहीं भारतीय खनन कर्मियों की हालत बहुत ख़राब थी। इनमें से ज़्यादातर तमिल मज़दूर थे। अंग्रेज़ जहां बंगलों में रहते थे। भारतीय खननकर्मी मिट्टी के क एक कमरे में रहते थे । जहां उनके साथ चूहे भी होते थे। खनन से जितना संभव हो सकता था, सोना निकाल लेने के बाद कोलार गोल्डफील्ड्स की नियति बदल गई। यूरोप से आए खनन विशेषज्ञ घाना और पश्चिम अफ़्रीक़ा खनन के लिये चले गए और कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स की खानें सन 2001 में बंद हो गईं। खानों की सुरंगों में आज पानी भरा रहता है । वही सुरंगें जो कभी सोने तक पहुंचने का रास्ता हुआ करती थीं।

हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading