हम सबने कालीदास और बाणभट्ट के बारे में तो सुना है। लोगों को दण्डी के बारे में भी पता होगा । ये प्राचीन शास्त्रीय संस्कृत साहित्य के कुछ बड़े नाम हैं लेकिन क्या आपको पता है कि इन महान साहित्यकारों का प्रेरणा स्रोत कौन था? ये प्रेरणा स्रोत थे, महाकवि भास जिनको कई महान प्राचीन शास्त्रीय साहित्यकार सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक मानते थे।
जैसा कि हम जानते हैं कि भास, कवि कुलगुरु कालिदास के प्रेरणा स्रोत थे और कालिदास ने अपनी रचना “मालविकाग्निमित्रम्” की प्रस्तावना में भी इस बात का उल्लेख किया है। “बाल-रामायण”, “बाल भारत” और “कर्पूर मंजरी” नाटकों के, 10वीं सदी के लेखक राजशेखर ने भास और उनके ‘नाटक-चक्र’ का उल्लेख किया है। संस्कृत में 7वीं सदी में लिखे गए “कादंबरी” के महान गद्य-लेखक बाणभट्ट ने भी बहुत सम्मान के साथ भास का ज़िक्र किया है। इसी तरह वाक्पति ने भी अब तक के सबसे महान नाटककारों में भास का उल्लेख किया है।“दशकुमारचरित” के लेखक दण्डी ने भी भास की महानता का ज़िक्र किया है। कवि और लेखक भास कितने महान थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है, कि कई पीढ़ियों के नाटककारों ने भास का पूरे सम्मान के साथ उल्लेख किया और उन्होंने अपनी रचनाओं में भास के नाटकों के नामों का ज़िक्र भी किया। कुछ ने तो अपनी बात कहने के लिए भास के नाटकों की कुछ पंक्तियों पेश की हैं।
वास्तव में भास थे कौन ?
भास एक लंबे समय तक रहस्य बने रहे, क्योंकि उनके नाटक उपलब्ध नहीं थे। न कोई पांडुलीपियां और न उनकी रचनाओं के कोई अंश ही उपलब्ध थे। बस उनकी स्मृति 15-20 सदियों के कई लेखकों के कई नाटकों के पृष्ठों में सजीव थीं। लेकिन इसके बावजूद भास प्राचीन भारत के सबसे चर्चित, प्रसिद्ध और प्रेरणदायक साहित्यकार रहे हैं। इस रहस्य को सुलझाने के पहले हम एक नज़र डालते हैं, शास्त्रीय संस्कृत साहित्य पर जो नाट्य साहित्य से भरा पड़ा है। ये नाट्य साहित्य संस्कृत अलंकारों से सुसज्जित कोई गद्य और गीत नहीं हैं, जिसके माध्यम से कोई कथा कही जा रही है। कई बार पुराणों और महाभारत से कवि-लेखक अपने कौशल और भाषा पर अपनी महारत के ज़रिए, अपना ख़ुद का संसार बुनता है जिसे पढ़कर लोग कहानी में खोकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
कालिदास के नाटक शकुंतला के बारे में सब जानते हैं। लेकिन माघ, भारवि और श्रीहर्ष जैसे कई प्रसिद्ध साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों पर अपनी छाप छोड़ी। यहां हम शूद्रक के मृच्छकटिकम (मिट्टी की गाड़ी) को नहीं भूल सकते, जो भारतीय साहित्य में सबसे पुराना नाटक माना जाता है।
भारतीय साहित्य में एक अन्य महत्वपूर्ण मील-पत्थर “नाट्यशास्त्र” है, जो भरत मुनि ने दूसरी-तीसरी सदी (ई.पू.) में लिखा था। ये नाटक, नृत्य और संगीत सहित प्रदर्शन कला पर एक व्यापक निबंध है। नाट्य शास्त्र का सबसे बड़ा योगदान है; रस (श्रृंगार, हास्य रस आदि) और भाव और इनके बीच का आंतरिक संबंध। भरत मुनी ने नाट्य के विभिन्न रुपों पर विस्तृत काम किया है और रचना, वर्णन तथा प्रदर्शन के लिए नियम बनाए हैं। ये नियम नाटक के विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं, जैसे प्राकृति और संस्कृत भाषा का प्रयोग, नाटक की रुपरेखा या फिर नाटक में युद्ध अथवा जुलूस के दृश्यों को दिखाने के दिशा-निर्देश।
हम देख सकते हैं, कि सभी शास्त्रीय लेखक अपने नाटकों में सदियों से इन नियमों का पालन करते आए हैं।
चलिए बार फिर भास की बात करते हैं। अब तक भास के जिस नाटक हिस्से उपलब्ध हैं, वो है “स्वप्नवासवदत्ता” यानी वासवदत्ता का सपना। ये प्रेम, धोखा और साहस की एक कहानी है।
सन 1912 में केरल में, पद्मनाभपुर के पास एक कोने में भास के तमाम बाक़ी नाटक पाए गए थे। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान महामाह उपाध्याय टी. गणपति शास्त्री (सन 1860-1926) को पूर्व रियासत त्रावणकोर में ताड़ के पत्तों पर लिखी तीन सौ साल पुरानी पांडुलीपियां मिली थीं। “स्वप्नवासवदत्ता” को मिलाकर इनमें कुल 13 नाटक थे । उनमें लेखक का नाम नहीं लिखा था।
अब सवाल यह कि गणपति शास्त्री इस नतीजे पर कैसे पहुंचे, कि ये सब नाटक भास ने ही लिखे थे?
इस मामले में परंपरा और बाद की पीढ़ी के लेखकों-कवियों ने हमारी मदद की। चूंकि भास इनमें से ज़्यादातर लेखकों के आदर्श थे, इसलिए उन्होंने उनकी लेखन शैली की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया था। भास अपने हर नाट का आरंभ ‘ नान्द्यन्तेतत: प्रविशतिसूत्रधार’ उक्ति से किया करते थे। इसके अलावा एंकर (सूत्रधार) श्लोक पढ़ते समय नाटक के सभी पात्रों के नामों का उल्लेख करता था। हर नाटक के समापन की अंतिम उक्ति (भरत वाक्य) होती थी। इन बातों और अन्य तथ्यों के आधार पर गणपति शास्त्री इस नतीजे पर पहुंचे, कि ये नाटक किसी और ने नहीं बल्कि भास ने लिखे हैं।
गणपति शास्त्री ने जो नाटक खोजे थे, वे पारंपरिक नाटक मंडलियों के लिए तैयार, संस्कृत में लिखी पटकथाएं थीं। इन अभिनेताओं को चाक्यार कहा जाता था। चूंकि ये अभिनेताओं के लिए लिखी गई पटकथाएं होती थीं, इसलिए ये संभव है, कि इसमें कुछ बदलाव भी किए गए होंगे, लेकिन नाटक की विषय वस्तु, कहानी और शब्दों में को परिवर्तन नहीं होता था। इस अद्भुत खोज और संपादन के लिए, जर्मनी के टुबिनगन विश्वविद्यालय ने शास्त्री जी को डॉक्टर की उपाधि दी थी। ये पांडुलीपियां कोच्चि में त्रिपुनितापुरा के सरकारी संस्कृत कॉलेज के संग्रहालय में रखी हुई हैं।
अगर हम नाटकों की विषय वस्तु पर ग़ौर करने के बाद और जिस तरह से 13 नाटकों को संजोया गया है, उसे देखकर भुला दिए गए महान नाटककार के ज्ञान और कौशल से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। “प्रतिमा” और “अभिषेक” नाटक रामायण पर आधारित हैं, जबकि “पंचरात्र”, “उरुभंग”, “कर्णभार”, “दूतवाक्य”, “दूतघतोत्कच” और “मध्यम-व्यायोग” महाभारत से प्रेरित हैं। “बाल चरित” नाटक श्रीकृष्ण के बाल्यकाल पर आधारित है। “प्रतिज्ञा-यौगंधरायण” और स्वप्न वासवदत्ता” शायद सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। इनकी झलक वृहतकथा में दिखाई पड़ती है। “अविमारक” और “चारुदत्त” उनकी कल्पनाओं पर आधारित हैं।
भास परम्परा से हटकर लिखने वाले लेखक थे। उनके अपने ही विचार और कल्पनाएं होती थीं। महाभारत पर आधारित अपने नाटकों में वह महाकाव्य की घटनाओं में से किसी एक घटना को उठाते हैं मगर उसे एक नया मोड़ और कल्पनाशीलता का पुट देकर एक बेहतरीन रचना तैयार कर देते हैं। “कर्णभार” कुंती और कर्ण के बारे में है, “उरुभंग” दुर्योधन के उन अंतिम दिनों के बारे में है जब उनकी जांघ टूट गई थी। इसी तरह “मध्यम व्यायोग” भीम और हिडिम्बा के प्रेम के बारे में है। भास पूरी लेखकीय स्वतंत्रता के साथ घटनाओं का क्रम बदल देते थे और अपनी कल्पनाशीलता से एक नया संसार रच देते थे। “प्रतिमा” नाटक में वह कैकई का एक नया रुप दिखाते हैं और उसके कृत्य को न्यायोचित बताते हैं। “पंचरात्र” में वह महाभारत की घटनाओं को बदल देते हैं। इस नाटक में दुर्योधन पांडवों की मांग स्वीकार करके युद्ध को टाल देता है।
“स्वप्नवासवदत्ता” नाटक उज्जैयनी के राजा प्रद्युत की बेटी वासवदत्ता के बारे में है जिसे वीणा वाद्य-यंत्र सीखते समय वत्स देश के राजा उदयन से प्रेम हो जाता है। लेकिन राजनीतिक कारणों से उदयन को रत्नावली से विवाह करना पड़ता है, हालंकि वह वासदत्ता को भूल नहीं पाता। ये नाटक वासवदत्ता के सपनों और अपने सच्चे प्रेम को पाने की उदयन की कोशिशों के बारे में है।
“प्रतिज्ञायौगंधरायण” राजा उदयन के एक मंत्री के बारे में है, जो प्रद्योत के चंगुल से भागने में उदयन की मदद करता है और मगध की राजकुमारी से उसका विवाह करवाता है, ताकि राजा उदयन की राजनीतिक पैठ जम सके। यहां ये ध्यान देने वाली बात है कि उदयन और प्रद्योत दोनों ही ऐतिहासिक चरित्र हैं और उनका समय बुद्ध युग का है जो 5वीं सदी (ई.पू.) का माना जाता है।
“चारुदत्त” नाटक चारुदत्त और गणिका (वैश्या) वसंतसेना के बारे में है जो बहुत ही दयालु है। इसी कहानी को “मृच्छकटिका ” में और विस्तार से कहा गया है और इस पर “उत्सव” (1984/ निर्देशक: गिरीश कर्नाड) नाम से हिंदी फ़िल्म भी बनी थी।
भास एक बाग़ी लेखक थे। वह अपनी रचनाओं में वह सब दिखाते थे जो पारंपरिक रुप से अस्वीकार्य था। वह भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का बिल्कुल पालन नहीं करते थे। उन्होंने मंच पर मृत्यु दिखाई, युद्ध दिखाया और हिंसा दिखाई और शिकार भी दिखाया जो नाट्यशास्त्र के अनुसार एकदम वर्जित था। उन्होंने मंच पर चरित्रों को सोते भी दिखाया जिसकी भरत मुनि ने सख़्त मनाही की थी।
भास शास्त्रीय संस्कृत में एकांकी के अग्रदूत थे। उनकी भाषा बहुत सरल थी और कहानी जटिल नहीं होती थी। उन्हें नाटकीयता पैदा करने और प्रभावशाली संवाद लिखने में महारत हासिल थी। भास ब्राह्मण थे और भगवान विष्णु के उपासक थे। भास के नाटक “प्रतिमा” में “देवकुल” का उल्लेख मिलता है। विद्वानों का मानना है, कि देवकुल से उनका आशय मंदिर से है। भास राजसिम्हा नामक राजा का भी उल्लेख करते हैं जिसका साम्राज्य हिमालय से विंध्य तक फैला हुआ था।
लेकिन भास का समय भी अपने आप में एक रहस्य है!
कालीदास ने भास की प्रशंसा की थी तो ज़ाहिर है, कि वह कालीदास के पहले रहे होंगे। भास का नाटक “चारुदत्त” मौलिक है और इसलिए वह शूद्रक के पहले रहे होंगे, जिसका मतलब ये हुआ कि भास प्रथम सहस्राब्दी शुरु होने के पहले थे। भास ने भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का कभी भी पालन नहीं किया इसलिए ये संभव है कि वह नाट्य शास्त्र लिखे जाने के पहले रहे होंगे। इस तरह कहा जा सकता है, कि भास भारतीय इतिहास के मौर्य-काल में चहल क़दमी कर रहे होंगे।
कुछ शोधकर्ता अब भी मानते हैं, कि ये 13 नाटक भास के नहीं हैं। इनके अनुसार ये नाटक पल्लव राजा नरसिम्हावर्मन अथवा अन्य नाटककार शक्तिभद्र के हैं। चूंकि भास के समय का ठीक-ठीक पता नहीं चलता है इसलिए ये भी कहा जाता है, कि हो सकता है, कि भास नाम के एक से ज़्यादा व्यक्ति हों।
भास आज भी रहस्य बने हुए हैं और भास-प्रश्न उनकी महान धरोहर के साथ आज भी मौजूद है… संदर्भ: संस्कृत साहित्याचासोपपत्तिक इतिहास– डॉ. विनायक वामन करंबेळकर
मुख्य चित्र: भीम और हिडिम्बा का राजा रवि वर्मा द्वारा बनाया गया चित्र -भास की रचना “मध्यम व्यायोग” भीम और हिडिम्बा के प्रेम के बारे में है
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