मथुरा: जब श्रीकृष्ण की जन्मभूमि बनीं 1857 के क्रान्ति की युद्धभूमि

मथुरा: जब श्रीकृष्ण की जन्मभूमि बनीं 1857 के क्रान्ति की युद्धभूमि

मथुरा का नाम सुनते ही हमें भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली, यमुना के तट पर मौजूद घाटों की चहल-पहल और ब्रजवासी की विश्व-प्रसिद्ध मिठाईयां याद आती हैं। वैसे भी मथुरा भारतीय इतिहास की कई महत्वपूर्ण घटनाओं का गवाह रहा है। लेकिन इनमें से कुछ ऐसी घटनाएं भी हैं, जो इसकी आध्यात्मिक चकाचौंध में गुम हो गई हैं। क्या आप जानते हैं, कि ये धार्मिक नगरी स्वतंत्रता आन्दोलन का गढ़ भी रही है, जहां सन 1857 की क्रान्ति का बिगुल भी बजा था ?

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत का मंज़र सिर्फ़ दिल्ली और कानपुर जैसे प्रमुख नगरों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि ब्रज क्षेत्र में भी देखा गया था, जिसमें मथुरा और उसके आस-पास की जगहें भी शामिल थीं।

मथुरा में स्थित एक घाट का चित्र | यश मिश्रा

प्राचीन काल से ही मथुरा एक जीवंत नगरी रही है, जहां पर मौर्य, कुषाण, शुंग और यहाँ तक कि गुप्त शासकों ने राज किया है। एक महत्वपूर्ण धार्मिक नगरी बनाने के साथ ही, उत्तरापथ पर और यमुना नदी के किनारे स्थित होने की वजह से, मथुरा को एक व्यापारिक और कला केंद्र भी बनाया गया था। लेकिन दिल्ली सल्तनत और मुग़ल सल्तनत के उरूज के दौरान इसकी गरिमा में कमी आई । लेकिन अट्ठारहवीं शताब्दी के आते-आते मथुरा, जाटों और फिर मराठों के दौर में एक बार फिर,एक प्रमुख धार्मिक नगरी के रूप में उभरा। हालांकि, दूसरे अंग्रेज़-मराठा युद्ध (1803-1805) में अपनी पराजय के बाद, मराठों ने मथुरा की चाबी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपी दी। एक लम्बे समय तक यह नगरी अंग्रेज़ों के अधीन रही। सन 1832 में मथुरा को एक अलग ज़िले का दर्जा मिला।

जैसे-जैसे अंग्रेज़ों का दायरा फैलता गया, शासन पर उनका शिकंजा कसता गया, और उनके ज़ुल्म भी बढ़ते गए। किसानों से भारी कर वसूली जैसे क़ानूनों की वजह से जन-आक्रोश भी बढ़ता गया। सन 1837-39 में मथुरा समेत आज के पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई स्थानों में आए अकाल के समय अंग्रेजों की तरफ़ से न सिर्फ़ सहायता देर से आई, बल्कि मौके का फ़ायदा उठाकर उन्होंने कई पीड़ित किसानों को बंधुआ मज़दूर के तौर पर कैरिबियाई और प्रशांत द्वीपों में  भेजा दिया। सन 1850 के दशक में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पूरे उफान पर तब आया, जब अंग्रेजी फ़ौज के भारतीय सिपाहियों ने नई ली-इनफ़ील्ड राइफ़ल को छूने से इनकार कर दिया था। वजह यह थी कि उसके कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का उपयोग किया गया था । इसी वजह से, 10 मई सन 1857 को मेरठ से क्रान्ति बिगुल बजना शुरू हो गया, जिसकी आग दिल्ली और बाद में आसपास के क्षेत्रों में फैल गई।

उन्नीसवीं शताब्दी में मथुरा का चित्र | ब्रिटिश लाइब्रेरी

वहीँ तत्कालीन मथुरा मजिस्ट्रेट और कलेक्टर मार्क थोर्न्हिल ने अपने रिकॉर्ड में बताया हैं कि मई से पहले ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जन-क्रान्ति की तैयारी हो रही थी, जिसके लिए चपातियों के ज़रिए एक गाँव से दूसरे गाँव संदेश भेजे जा रहे थे। बाद में उसे पता चला कि ये सिलसिला उत्तर भारत के कई इलाकों में जारी था! बहुत कम अंग्रेज़ अधिकारियों को ये बात याद थी, कि सन 1806 में, तमिलनाडू के वेल्लूर में हुए ग़दर के पहले भी कुछ ऐसी ही चीज़ें देखी गई थीं ।थोर्नहिल सचेत तो हो गया था, मगर उसको बढ़ते खतरों का अंदाज़ा नहीं था । अपने सर्वेक्षण कार्य के बाद वो 12 मई सन 1857 को मथुरा से आगरा पहुंचा ही था, कि उसे विद्रोह की खबर मिली । यह ख़बर, मेरठ में रहने वाली एक अंग्रेज़ महिला के टेलीग्राम से मिली थी । थोर्न्हिल तुरंत मथुरा वापस आ गया। वहां उसे दिल्ली और गुड़गांव से बच निकले अंग्रेज़ मिले। तुरंत मथुरा में रह रहे अंग्रेज महिलाओं, बच्चों और अपने खजाने को आगरा भेजने की योजना बनाई गयी। खतरे को भांपते हुए थोर्न्हिल ने भरतपुर से अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेज़ सैनिकों की एक टुकड़ी की मांग की। जब तक वह टुकड़ी मथुरा पहुँचती , थोर्न्हिल ने मथुरा के बाहरी क्षेत्र में मौजूद छाता ताल्लुक की एक सराई में शरण ले ।

हालांकि भरतपुर से कैप्टेन निक्सन की सेना पहुँच तो गई थी, लेकिन दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में बाग़ी सिपाही क़िलाबंदी करने के लिए डेरा डाले हुए थे। तब निक्सन, थोर्न्हिल और कुछ स्थानीय सेठों ने मिलकर मथुरा के आसपास सुरक्षा घेरा बनाने की योजना बनाई। उसके बाद निक्सन दिल्ली के लिए रवाना हो गए। उसी बीच भरतपुर के कुछ सिपाहियों ने स्थिति को देखते हुए विद्रोह कर दिया, जिनमें से अंग्रेज़ों के वफ़ादार फ़ोजियों में से कुछ मथुरा आ गए और कुछ निक्सन की अपील के बाद उनके साथ रहे।

तब तक मथुरा के स्थानीय लोगों को ख़बर मिल चुकी थी, कि मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का सम्राट घोषित कर दिया गया है और ये अफ़वाह भी फैला दी गई थी, कि कंपनी राज अब ख़त्म होने वाला है। भरतपुर के कई सिपाही भी बाग़ियों से मिल चुके थे Iअब मथुरा क्रान्ति के रंग में रंगने के लिए पूरी तरह तैयार था ।

मथुरा शहर में मौजूद एक गली | ब्रिटिश लाइब्रेरी

30 मई सन1857 कोआगरा जा रहे खज़ाने को मथुरा के निवासियों और बाग़ी सिपाहियों ने लूट लिया। उसमें साढ़े पांच लाख रूपए के साथ क़ीमती गहने भी थे । बड़े पैमाने पर अंग्रेज़ों का क़त्लेआम हुआ। मथुरा जेल से सभी क़ैदियों को छुडवा लिया गया था, और फिर वह सब भी क्रांति में शामिल हो गए। वहीँ थोर्न्हिल घबरा कर वापस मथुरा आ गया और उसने नगर के एक सेठ लखमीचंद के घर शरण ली ।

मथुरा ज़िले में आने वाले इलाके जैसे अडींग, कोसी और राया में भी बग़ावत भड़क गई। राया में देवी सिंह के नेतृत्व में जाटों ने सरकारी दफ़्तरों, पुलिस चौकियों औरअंग्रेज़ों के बंगलों को आग लगा दी । सभी किसान बही-खाते और रिकॉर्ड भी फूंक दिए गए। देवी सिंह के साहसी कारनामें आज भी ब्रज क्षेत्र के लोकगीतों में जीवित हैं। ये एक पंक्ति बहुत मशहूर है:

वाह रे राजा देवी सिंह, तेने अजब फौज बनाई। करी अंग्रेजन ते लड़ाई

दुर्भाग्य से, कोटा से आ रही अंग्रेज़ फ़ौज ने थोर्न्हिल की अपील पर विद्रोहियों पर चढ़ाई कर दी और देवी सिंह को और उनके सहयोगियों को गिरफ़्तार करके,29 जून सन 1857 को राया के थाने के पीछे एक वटवृक्ष पर फंदा बांधकर लटका दिया गया। अडींग के बाग़ी ज़मींदारों में से कुछ को सरेआम गोलियों से भूनदिया गया। कुछ को फांसी पर लटका दिया गया ।

अधींग (मथुरा) में उस किले के अवशेष, जहां पर बागियों को फांसी दी गयी थी | बल्लन सिंह यादव

उसके बाद भले ही मथुरा कुछ दिनों तक शांत रहा हो, मगर फिर मोरार और नीमच (अब मध्य प्रदेश में) से आए और बाग़ियों ने यहाँ डेरा डाला । वहीँ थोर्न्हिल अपने खज़ाने को वापस लेने में कामयाब रहा। वह एक देसी आदमी के भेस में, अपने कुछ सहयोगियों के साथ पहले नाव और फिर घोड़ों से आगरा पहुंचा। वहां कई नगर सेठों ने उसका साथ दिया। ख़ज़ाने का कुछ हिस्सा लखमीचंद और कुछ अन्य सेठों के घर महफ़ूज़ था और कुछ थोर्न्हिल अपने साथ आगरा ले गया।

फिर वहीँ  मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्र अगले दो महीनों तक दिल्ली के तख्त के अधीन रहे। जहां स्थानीय लोगों से बाग़ी, तलवार और बंदूक़ की नोक पर लगान वसूल कर रहे थे। ये मंज़र अक्टूबर, सन 1857 तक क़ायम रहा । दिल्ली को वापस जीतने के बाद, अंग्रेजों ने आगरा के बाहर और फिर मथुरा में बाग़ी सिपाहियों को हरा दिया । इस जीत के लगभग एक साल बाद, अंग्रेज़ों का ख़जाना मथुरा के सिविल लाइन्स थाने में पहुँचाया गया। सन 1859 में विद्रोह को कूचल देने के उपलक्ष्य में एक भव्य दरबार का आयोजन किया गया जिसमें लखमीचंद समेत उन तमाम भारतीयों को जागीरों, पदकों आदि से सम्मानित किया गया था, जिन्होंने थोर्न्हिल, उसके साथियों और अंग्रेज़ों के ख़ज़ाने को सुरक्षित रखा था।

राजा देवी सिंह को राया में जिस स्थान पर फांसी दी गई थी, आज वहां एक स्मारक बना हुआ है जो अतिक्रमण का शिकार हो चुका है । यहाँ से क़रीब डेढ़ किलोमीटर दूर राजा देवी सिंह का पैतृक गांव भी है। वहीँ अडींग में उस स्थान के अवशेष आज भी मौजूद है, जहां अंग्रेज़ों ने बाग़ियों को फांसी पर लटकाया था। दुर्भाग्य से, सन 1857 की क्रान्ति में मथुरा के बहादुरों की कहानी आज सिर्फ़ चंद स्थानीय लोगों और कुछ इतिहासकारों तक ही सीमित रह गई है।

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