“हम बतौर भारतीय क्या हैं, हम क्यों हैं, हम कैसे हैं?”
ये वो सवाल हैं जिसका जवाब भारत की पहली महिला मानव वैज्ञानिक इरावती कर्वे सारी ज़िंदगी तलाशती रहीं। इसे समझने के लिए कर्वे ने मानवजाति के वैज्ञानिक इतिहास का रास्ता चुना। उन्होंने न सिर्फ़ प्राचीन मानव के शारीरिक लक्षणों पर ध्यान दिया बल्कि समुदायों की क्षेत्रीय उक्ति परंपराओं का भी अध्यन किया। किसी विषय पर इस तरह से खोज ऐसा ही व्यक्ति कर सकता है जो निर्भीक हो और जिसके पास अनूठी सोच हो।
इरावती का नाम बर्मा की प्रसिद्ध नदी इरावड़ी के नाम पर रखा गया था। नदी की तरह ही वह भी घूमते हुए शिक्षा और साहित्य के विभिन्न पड़ाव से गुज़रीं। 15 दिसंबर 1905 में एक प्रगतिशील मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी इरावती ने बॉम्बे विश्वविद्यालय से समाज विज्ञान में एम.ए. किया। 1928 में उन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय में कैसर विल्हेम इंस्टीट्यूट फॉर एंथ्रोपोलॉजी से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने वहां ‘मानव संरचना की सामान्य संरचना’ विष्य पर थीसिस लिखी। रिसर्च के लिए उन्होंने पूरक विषय के रुप में जीव विज्ञान, संस्कृत और दर्शन शास्त्र को चुना।
भारत वापसी से कुछ महीने पहले उनके पति और रसायन विज्ञान के प्रोफ़ेसर तथा बाद में बने पुणे के फ़र्गुसन कॉलेज के प्रिंसपल डीडी कर्वे उनके पास बर्लिन आ गए। श्री कर्वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक नेता महर्षी ढोंडो केशव कर्वे के पुत्र थे।
अपनी विचारधारा की वजह से कर्वे दपंत्ति को बाग़ी माना जाता था। इरावती न तो मंगलसूत्र पहनती थीं और न ही कुमकुम लगाती थीं जो शादीशुदा भारतीय महिलाएं पहनती और लगाती हैं। वह इसे महिलाओं के लिए ग़ुलामी मानती थीं। इरावती पुणे की पहली महिला थीं जो स्कूटर चलाती थीं और उनके पति साथ में लगी गाड़ी में बैठते थे।
1930 में भारत वापसी पर उनके सामने ये दुविधा आ गई कि वह करें क्या क्योंकि तब भारतीय विश्वविद्यालयों में मानव विज्ञान विषय नहीं पढ़ाया जाता था। बहरहाल, वक़्ती तौर पर उन्होंने एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय का रजिस्ट्रार का पद स्वीकार कर लिया। 1939 में उनका पुणे के डक्कन कॉलेज पोस्ट ग्रेजुएट एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट के समाज विज्ञान विभाग में रीडर के रुप में चयन हो गया। फिर यहीं मानव विज्ञान विभाग खुला जिसकी वह प्रमुख बनाई गईं।
उस समय मानव विज्ञान इतिहास विभाग का ही हिस्सा हुआ करता था इसलिए इरावती को महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में घूमने का मौक़ा मिला। वह पुरातत्व के महत्व के स्थलों का दौरा किया करती थीं। इस तरह वह खुदाई और मानव अवशेषों की जांच करने वाली टीम का हिस्सा बन गईं। 1943 में भारतीय पुरातत्व विज्ञान के संस्थापक प्रो. हसमुख संकालिया द्वारा गुजरात के लंघानाज में की गई खुदाई में इरावती को एक छोटी मानव अस्थि मिली। इसके बाद पाषाण युग को लेकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। अपार धैर्य और कौशल वाली इरावती ने खुदाई में 13 मानव कंकाल निकाले और इस घटना ने उन्हें विश्व में प्रसिद्ध कर दिया। उस समय किसी महिला का खुदाई-स्थल पर रहना और खुदाई में हाथ गंदे करना अकल्पनीय था। खुदाई में बहुत मेहनत लगती थी लेकिन वह इस चुनौती पर खरी उतरीं।
दूर दराज़ के इलाक़ों की यात्रा और वहां के जीवन के सूक्ष्म अध्ययन ने उनके वैज्ञानिक और साहित्यिक कार्य की नींव डाली। उन्होंने उन सामाजिक समस्याओं और मनोवैज्ञानिक कारणों का सूक्ष्म अध्ययन किया जिससे मानव व्यवहार संचालित हुआ। उन्हें उनके कार्यों के लिए कई तरह से सम्मानित किया गया जैसे उन्हें इंडियन साइंस कांग्रेस के मानव विज्ञान तथा पुरातत्व विभाग का अध्यक्ष चुना गया। उन्हें उनके लेखन की वजह से भी शोहरत मिली।
उन्होंने समाज शिक्षा, भाषा समस्या, भारतीय महिलाओं की स्थिति, क़ानून की अनुल्लंघनीयता, सांप्रदायिकता, दलितों के अधिकारों, पंचायतों के स्वरुप और लोकतंत्र तथा आज़ादी की अवधारणा जैसे विषयों पर बेहद ईमानदारी और बेबाक ढंग से लिखा। उनकी प्रमुख किताबों में ‘किनशिप ऑर्गनाइज़ेशन इंडिया’ (1953) को गिना जाता है। इस किताब में उन्होंने जाति और इसकी शब्दावली के रहस्य को तोड़ने की कोशिश की। इस किताब ने विश्व के तमाम विद्वानों का ध्यान खींच लिया।
उस समय ये एकमात्र किताब थी जिसमें भारतीय नातेदारी प्रणाली की जटिलताओं के बारे में बारीकी से बताया गया था। इरावती ने इस प्रणाली की तह में जाने के लिए तीन हज़ार साल पुराने जातीय स्रोत, लोक साहित्य, विभिन्न विचारों और संस्कृत के ग्रंथों का अध्ययन किया था।
एक तरफ़ जहां इरावती को समाज विज्ञान और मानव विज्ञान पर उनके लेखन की वजह से प्रसिद्धी मिली वहीं महाराष्ट्र में उनका साहित्य भी ख़ूब सराहा जाने लगा। उनकी ‘युगांत’ कृति को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। महाभारत के चरित्रों और घटनाओं पर केंद्रित युगांत को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। इस साहित्यिक कृति की वजह से वह भारतीय साहित्य की अग्रज जमात में शामिल हो गईं। इस किताब की विषय वस्तु की नींव शायद तभी डल गई थी जब उनके पिता ने बचपन में उन्हें महाभारत के संस्कृत में लिखे संस्करण भेंट किए जो 18 खंडों में थे। इरावती को भेंट में मिले ये संस्करण आज भी भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में रखे हुए हैं।
इरावती ने युगांत की रचना 1962 और 1967 के बीच की थी यानी इस किताब को पूरा करने में उन्हें पांच वर्ष का समय लगा। युगांत विवादों में भी घिरी। पात्रों और घटनाओं के मानवीयकरण की वजह से उन्हें समाज के पुरातनपंथियों के कोप का शिकार होना पड़ा। लेकिन महाभारत की उनकी व्याख्या आज भी सबसे मौलिक और विचारोत्तेजक मानी जाती है। उन्होंने इस किताब का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में भी किया था।.
इरावती धुन की पक्की थीं और उन्होंने जिन जिन विषयों को छुआ, उस पर बिना पूर्वाग्रह के पूरी निष्पक्षता के साथ अपने विचार रखे। वह उन चंद मानव वैज्ञानिकों में से थीं जिन्होंने मानव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं जैसे शारीरिक बनावट, सामाजिक, प्रागितिहास और लोक-कथाओं में दिलचस्पी ली। इरावती ने भारतीय विद्या और मानव विज्ञान का सफलतापूर्वक विश्लेषण करते हुए शारीरिक बुनावट, ब्लड ग्रुप और स्थानांतरण गमन के परिप्रेक्ष में भारतीय समाज और विभिन्न जातियों में भिन्नताओं को समझने की कोशिश की।
11 अगस्त 1970 को नींद में ही इरावती का देहांत हो गया। उनकी स्मृति में सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्याल में तीन हज़ार स्क्वैयर फुट में एक मानव विज्ञान संग्रहालय बनाया गया है जिसका नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है।
अंत में यहां हम बता रहे हैं उथल-पथल वाले समय में उनके द्वारा लिखे एक पेपर का एक अंश:
“कई हिंदुओं को लगता है कि अगर सरकार चाहे तो वह देश को मुसलमानों और ईसाइयों से छुटकारा दिला सकती है ताकि भारत हिंदू राष्ट्र बन सके। एकरुपता स्थापित करना और फिर उसे सदियों तक बनाये रखने का ये विचार ही मूर्खतापूर्ण है। मुसलमानों और ईसाइयों के अलावा बौद्ध और ग़ैर बौद्ध, जैनियों और हिंदुओं तथा दक्षिण में शैव और वैष्णव के बीच भी ज़बरदस्त कड़वाहट थी। किसी एक धर्म की स्थापना तर्कसंगत मानवतावादी उद्देश्य नहीं हो सकता बल्कि उद्देश्य ये होना चाहिये कि ऐसी परिस्थिति पैदा की जाय जहां अलग-अलग संस्कृतियों के लोग आपसी समझ बूझ के साथ एक दूसरे के प्रति सम्मान रखते हुए साथ साथ रह सकें।”
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