असम और पूरे पूर्वोत्तर राज्यों में आने वाले लोगों पर हिमालय की तलहटी की लहरदार ढ़लान, हरियाली और शांतिदायक संगीत एक आध्यात्मिक असर डालता है। यह जादुई ख़ूबसूरती की भूमि है, और यहां चीनी यात्री ह्वेंग त्सांग से लेकर पहले सिख गुरु, गुरु नानक देव तक, सदियों तक यात्री, व्यापारी और हमलावर आते रहे थे।
लेकिन सबसे दिलचस्प कहानी शाह मीरान अथवा हज़रत शाह मीरान की है, जो असम के लोगों में “अज़ान पीर” या “अज़ान फ़क़ीर” के नाम से मशहूर थे। अज़ान पीर को यहां हिंदू और मुसलमान दोनों मानते हैं। उन्होंने अपने पीछे एक ऐसी समृद्ध विरासत छोड़ी थी, जिसे आज भी यहां के लोग संजोकर रखे हुए हैं। हालांकि वह जन्म से ईरानी थे, लेकिन दिल से संत थे। शाह मीरान बग़दाद से 6116 कि.मी. का फ़ासला तय करके असम आए थे और सुवागुड़ी सपोड़ी (मौजूदा समय में ऊपरी असम में शिवसागर शहर के पास) नामक स्थान में बस गए थे।
बादशाहों, सुल्तानों और मुग़ल शासकों के हमलों या सड़क मार्ग द्वारा व्यापार के दौरान असम में मुसलमान आकर बसे थे। इन अभियानों में कई लोग शामिल रहते थे, जो बाद में यहीं रुक जाते थे। बाद में भी यहां की मौजूदा कला में योगदान के लिए कई मुस्लिम कारीगरों और शिल्पकारों को यहां लाया गया था। ये लोग मूलत: भारत के अन्य हिस्सों में पेशेवर वर्गों से संबंध रखते थे, लेकिन जो कारीगर और शिल्पकार यहां लाए गए थे, उनकी संख्या इतनी कम थी, कि उनका एक वर्ग बनना मुश्किल था। हालांकि वे अपने काम में इतने दक्ष थे, कि उन्हें नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता था। इस वजह से मुसलमानों की आबादी के एक वर्ग को, जो कुशल कारीगर थे, अहोम साम्राज्य में एक सामाजिक पहचान मिल गई और प्रशासन में रोज़गार भी मिल गया।
ये लोग लेखन (अखर-कटिया), सोने और चांदी के धागों की कढ़ाई (गुना-कटिया) के काम में माहिर थे। असम सिल्क (पैट) की कढ़ाई आज भी बहुत प्रसिद्ध है। वे कुशल रंगरेज़ और पेंटर (रहन-कारस) भी थे। इसके अलावा वे माहिर सूती कपड़ा बुनकर (जोलास) थे और बारुद (खरघरिया) बनाने में भी माहिर थे। वे संगीतकार (नागड़िया) और दर्ज़ी, फ़ारसी के जानकार (पारसी-पढ़हिया) आदि भी थे। तुर्बक की सेना के वंशजों ने कांसा बनाने वाले श्रमिकों (मड़िया) के रुप में अपनी पहचान बनाई थी। बेल-मेटल अथवा कांसा निर्माण असम का प्रसिद्ध कुटीर उद्योग रहा है। तुर्बक ख़ां ग़ौर, बंगाल साम्राज्य का एक सेनापति था, जिसने सन 1532 में स्वर्गदेव सुहंगमुंग के शासनकाल के दौरान अहोम साम्राज्य पर आक्रमण किया था।
मुसलमान फ़क़ीरों या पीरों को अहोम राजाओं का संरक्षण प्राप्त था और इन राजाओं ने उन्हें ज़मीनें भी दी थीं।
डॉ. उत्पल गोगोई के लेख (पोसोवा, मई सन 2006) के अनुसार उन दिनों, अपने-अपने देवताओं की पूजा करने के अलावा, दो धार्मिक समूहों के बीच कोई ख़ास अंतर नहीं हुआ करता था। गोगोई के मुताबिक़ मुसलमान वैष्णव संप्रदाय के प्रचार के लिए श्रीमंत शंकरदेव द्वारा रचित भक्ति गीतों (कीर्तन) में भाग लेते थे। यहां तक कि, शाहबउद्दीन तालिश ने भी असम के अपने विवरण में लिखा है, कि मुसलमानों और असमियों का सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन एक-दूसरे से जुड़ा हुआ था। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया था, “जहां तक मुसलमानों, जिन्हें पूर्व समय में बंदी बना लिया गया था और जिन्होंने यहां शादियां की थीं, का सवाल है, उनके वंशजों के तौर-तरीक़े बिल्कुल असमियों की तरह है और उनके नामों के अलावा उनमें इस्लाम जैसी कोई बात नहीं है। वे मुसलमानों की बजाय असमियों के साथ घुलना-मिलना ज़्यादा पसंद करते हैं।“ (एस.एल. बरुआ –ए कॉप्रेहेंसिव हिस्ट्री ऑफ़ असम)
शाह मीरान मूल रूप से सुदूर ईरान से थे, जिसे ख़ानेह मीरान के नाम से भी जाना जाता है। ख़ानेह मीरान ईरान के मरकज़ी प्रांत में मध्य अरक ज़िले में एक गाँव है। अहोम राजा स्वर्गदेव प्रताप सिंह (1603-1641) के शासनकाल के दौरान लगभग सन 1630 में शाह मीरान अपने भाई शाह नवी के साथ असम आए थे। यहां आने पर उन्होंने पाया, कि यहां के मुसलमान इस्लामी रीति-रिवाजों और रस्मों का बिल्कुल पालन नहीं करते थे। हालांकि उनका मुख्य उद्देश्य पैग़म्बर के संदेशों का प्रचार करना था, लेकिन वह काफ़ी बुद्धिमान थे और इस मामले में उन्होंने जल्दबाज़ी नहीं की। शाह मीरान ख़्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया (1238-1325) के शिष्य थे, जो एक भारतीय सुन्नी मुस्लिम विद्वान और चिश्ती परंपरा के सूफी संत थे।
शाह मीरान यहां रहकर स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल गए। हालांकि शुरू में वह सिर्फ़ अरबी भाषा बोलते थे, लेकिन जल्द ही उन्होंने स्थानीय भाषा में महारथ हासिल कर लिया। वे श्रीमंत शंकरदेव के वैष्णव सिद्धांतों, उनकी शिक्षा और संगीत से बहुत प्रभावित थे। हालांकि वह (शाह मीरान) महान वैष्णव संत के जन्म के लगभग 200 साल बाद असम आए थे। यहां अपने प्रवास के दौरान, उन्होंने उच्च समाज की एक अहोम महिला से शादी भी की और गढ़गांव में स्थाई रुप से बस गये। गढ़गाव अहोम की राजधानी हुआ करती थी, जो मौजूदा शिवसागर शहर से लगभग 16 कि.मी. दूर था।
शाह मीरान ने दो अलग-अलग संगीत शैलियां तैयार कीं। हालांकि धुन और प्रस्तुति में दोनों समान थीं। इन गीतों को शाह मीरान ने लिखा था और धुन और गायन के मामले में ये असम के वैष्णव संप्रदाय के भक्ति गीत ‘बोड़गीत’ से काफ़ी मिलते-जुलते हैं। इन भक्ति गीतों को ‘ज़िकिर’ और ‘ज़री’ के नाम से जाना जाता है। माना जाता है, कि ‘ज़िकिर’ शब्द अरबी शब्द ‘ज़िक्र’ से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, अल्लाह को याद करना या उसका नाम लेना। इसे 17 वीं सदी के दौरान अज़ान फक़ीर ने लोकप्रिय बनाया। इसे धार्मिक सभाओं में गाया जाता था। इसका वजह से सूफ़ी रहस्यवाद में इज़ाफ़ा हुआ, जो श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरू किए गए भक्ति आंदोलन के साथ-साथ असम में प्रचलित हो गया था। हज़रत मीरान ने पवित्र क़ुरान का सार लेकर ज़िकिरों की रचना की थी।
‘ज़री’ गीत मूलत: ‘करबला के युद्ध’ की दुखद कहानियों पर आधारित हैं। यह युद्ध अरब के रेगिस्तान में, 10 अक्टूबर सन680 (इस्लामी- दिनांक 10 मुहर्रम, वर्ष61वां हिजरी) दूसरे उमय्यद ख़लीफ़ा यज़ीद-प्रथम की सेना और इस्लामी पैगंबर मुहम्मद के पोते हुसैन इब्न अली के नेतृत्व वाली एक छोटी-सी सेना के बीच कर्बला में लड़ा गया था, जो आधुनिक समय के इराक़ में है। उनकी मृत्यु से पहले उमय्यद ख़लीफ़ा मुआविया-I ने उनके बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, जिसका हुसैन ने विरोध किया था। इसे लेकर संघर्ष हुआ, जिसमें हुसैन और उनके थोड़े अनुयायियों को बेरहमी से मार डाला गया। अज़ान फ़कीर चाहते थे, कि यहाँ रहने वाले मुसलमान इन कहानियों के बारे में जानें। उन्होंने स्थानीय धुनों के साथ ज़िकिरों और ज़री की असमिया में रचना की, ताकि यहाँ रहने वाले लोग ख़ुद को शाह मीरान के शब्दों से जोड़ सकें।
‘कीर्तन’ के अलावा अज़ान फ़कीर असम की कुछ अन्य संगीत शैलियों से भी प्रभावित थे, जैसे ‘ओझा-पाली’ (असम का एक विशिष्ट लोक नृत्य जो नाटकीय संवाद और क्रिया के साथ कथा गायन और नृत्य को जोड़ता है)। उन्होंने ‘ज़िकिरों’ में कथा कहने की उसी शैली की शुरुआत की। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ नृत्य और संगीत के साथ तालियां बजाकर अल्लाह की शान में क़सीदे पढ़े। असम के कुछ हिस्सों में आज भी ज़िकिरों के गायन के साथ नृत्य करने की यह प्रथा प्रचलित है। गायकों के पास अमूमन एक वाद्य यंत्र होता है, जिसे ‘दोतारा’ कहते हैं।
उनकी अनूठी रचनाएं धार्मिक सद्भाव का मिश्रण थीं, क्योंकि उनके कई छंदों में हम उन्हें श्रीमंत शंकरदेव और भगवान के प्रति उनकी भक्ति की प्रशंसा करते हुए देख सकते हैं। अज़ान फ़क़ीर खुद एक अच्छे गायक थे और माना जाता है, कि उन्होंने असमिया में लगभग एक सौ साठ ज़िकिरों की रचना की थी। हालांकि हम जानते हैं, कि इस्लाम गाने-बजाने और नृत्य की अनुमति नहीं देता है, लेकिन जहाँ तक धार्मिक पहलू का सवाल है, इसके ख़िलाफ़ कोई सख़्त नियम भी नहीं है। इसके अलावा दिलचस्प बात ये है, कि अगर अज़ान फ़क़ीर ने स्थानीय लोगों को उनकी मौजूदा प्रथाओं से पूरी तरह से दूर करने की कोशिश की होती, तो हो सकता था, कि वह एक धार्मिक नेता के रूप में बहुत सफल नहीं हो पाते। इसके अलावा उन्होंने अपने काम के माध्यम से यह भी दिखाया, कि आप कोई भी रास्ता चुनें, अध्यात्म की ओर ले जाने वाला मार्ग अंततः एक ही है। इसी वजह से उन्हें दोनों समुदायों में बहुत पसंद किया जाता था।
उन्होंने देखा, कि सामुदायिक प्रार्थना या कीर्तन में भाग लेने वाले मुसलमान इन आयोजनों में चढ़ाए गए ‘प्रसाद’ को भी ग्रहण करते हैं। शाह मीरान इन लोगों के बीच इस्लामी प्रथाओं को लाना चाहते थे। माना जाता है, कि इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने शिवसागर के पास सोनपुरा में एक मस्जिद बनवाई, जहां से वह ‘अज़ान’ देकर लोगों को ‘नमाज़’ के लिए बुलाने लगे। इसकी की वजह से उनका नाम ‘अज़ान फ़कीर’ पड़ गया, क्योंकि उन्होंने ही असम में मुसलमानों को ‘अज़ान’ देना और ‘नमाज़’ पढ़ना सिखाया था। यह भी माना जाता है कि, उन्होंने सामुदायिक सभाओं के अंत में, जहां ‘ज़िकिर’ और ‘ज़री’ का गायन होता था,’फ़िरनी’ या खीर (चावल, दूध और बादाम से तैयार किया जाना एक मीठा व्यंजन) बांटने की प्रथा की शुरूआत की थी।
जैसे-जैसे वह लोकप्रिय होने लगे और उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी, कुछ लोग उनके दुश्मन भी बन गये। ऐसा ही एक व्यक्ति अहोम प्रशासन का एक मुस्लिम अधिकारी रूपाई दधोरा था, जिसने अहोम सम्राट को ये विश्वास दिला दिया, कि अज़ान फ़क़ीर इस्लाम के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ शिक्षा दे रहा है और लोगों को भ्रष्ट कर रहा है। अज़ान फ़क़ीर को मुग़ल जासूस के रूप में स्थापित दिया गया । उसके बाद सम्राट ने अज़ान फ़क़ीर की आंखें निकालने का आदेश दे दिया।
कथाओं के अनुसार जब पीर ने आदेश के बारे में सुना, तो उन्होंने सम्राट के आदेश का पालन करने आये सैनिकों से मिट्टी के दो बर्तन लाने को कहा। जब सैनिक मिट्टी के बर्तन लाये, तो पीर ने अपनी आंखें उन बर्तनों में डाल दीं। फिर उन्होंने सैनिकों से कहा, कि उनकी आंखें सम्राट के पास ले जाने के बजाय पास की दिखोव नदी में फेंक दें । माना जाता है, कि जैसे ही आंखें नदी में फेंकी गईं, नदी विपरीत दिशा में बहने लगी ।
यह सुनकर राजा को अपने फैसले पर बड़ा अफ़सोस हुआ और उसने ऊपरी असम में शिवसागर के पास सोवागुड़ी सपोड़ी में अज़ान फ़क़ीर के नाम पर एक दरगाह बनवाई। तब से ये हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए एक पवित्र स्थान बना और इस महान संत की याद में हर साल यहां उर्स भी आयोजित किया जाता है।
इस मौक़े पर उनके सैकड़ों मुरीद यहां आते हैं। सूफ़ी संतो की दरगाहों पर उनके मुरीद उनकी याद में जश्न मनाते हैं, जिसे उर्स कहा जाता है। दुर्भाग्य से इस अद्वितीय व्यक्तित्व के बारे में लिखित दस्तावेज़ बहुत कम हैं, लेकिन यह सच है कि अज़ान फ़कीर ने असमिया समाज को प्रभावित किया और यहां रहने वाले मुसलमानों को इस्लाम की महानता के बारे में तालीम दी, जिसे उनका एक महानतम योगदान माना जाता है। उन्होंने दुनिया को यह भी दिखाया, कि सच्ची आध्यात्मिकता विचारधाराओं को बांटने में नहीं है, बल्कि धार्मिक सद्भाव और भाईचारे में है।
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