आज संघर्षों के रूप बदल चुके हैं। आज महिलाएं अपने लिये सिर्फ़ अवसर ही नहीं बल्कि इससे और अधिक की मांग कर रही हैं। आज वो समान वेतन, उच्च पदों पर नियुक्ति और हर मंच पर अपने प्रतिनिधित्व की मांग कर रही हैं। हममें से कई लोगों के लिये ये कल्पना करना भी कठिन है कि कुछ दशकों पहले हालात कितने अलग रहे होंगे । लेकिन इतिहास का सिखाया हरेक सबक़ बहुत महत्वपूर्ण होता है, ख़ासकर तब जब हम अन्ना चांडी जैसी महिलाओं के बारे में बात कर रहे हो जो भारत की ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रिटिश-राष्ट्रमंडल में जज बनने वाली पहली भारतीय महिला थीं। हालांकि उनसे पहले कार्नेलिया सोराबजी महिला-अधिकारों के लिए झंडा बुलंद कर चुकी थीं।
अन्ना चांडी का जन्म त्रावणकोर की राजधानी तिरुवनन्तपुरम (त्रिवेंद्रम) में चार मई सन 1904 को एक सीरीयन क्रिश्चियन परिवार में हुआ था। उनके जन्म के फ़ौरन बाद उनके पिता का निधन हो गया था और उनकी मां उनकी तथा उनकी बहन की परवरिश के लिये एक स्कूल में काम करती थीं। ये अन्ना और उनके परिवार की ख़ुशक़िस्मती थी कि वे त्रावणकोर में थे। यहां समाज में दबदबा रखने वाला नायर समुदाय मातृवंशीय परंपरा का पालन करता था जिसके तहत महिलाएं ख़ुद अपनी भाग्य-विधाता होती थीं। यहां तक कि रियासत का शाही परिवार भी मातृवंशीय व्यवस्था का पालन करता था। अन्ना चांडी जब बड़ी हो रही थीं तब महारानी सेतु लक्ष्मी बाई (1895-1985) त्रावणकोर की शासक और सत्ता का केंद्र हुआ करती थीं।
जब समाज में महीलाओं के सुधारों की लहर चली तो अन्ना चांडी ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया। सन 1927 में महारानी सेतु लक्ष्मी बाई ने तिरुवनन्तपुरम में, कड़े विरोध के बावजूद, सरकारी लॉ कॉलेज में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता खोल दिया। अन्ना चांडी ने इस कॉलेज में, क़ानून विषय में स्नातकोत्तर डिग्री के लिये दाख़िला लिया। क़ानून की पढ़ाई करनेवाली वह त्रावणकोर में ही नहीं बल्कि पूरे केरल में पहली महिला थीं।
पढ़ाई में होनहार अन्ना चांडी ने कॉलेज में अपने पुरुष साथियों की फब्तियों और व्यंगों का बहादुरी से सामना किया और सन 1929 में विधि में विशिष्टता के साथ स्नाकोत्तर डिग्री हासिल की। उसी साल उन्हें बार में नियुक्त किया गया और इस दौरान उन्होंने कई फ़ौजदारी मुक़दमें लड़े और वह काफ़ी मशहूर हो गईं।
अन्ना चांडी सिर्फ एक सफल वकील ही नहीं थीं बल्कि वह अदालत के बाहर भी हक़ की लड़ाई लड़ती थीं। महिलाओं के अधिकारों के लिये लड़ने वाली अन्ना चांडी ने सन 1930 में “श्रीमती” नामक एक पत्रिका निकाली जिसका संपादन वह ख़ुद करती थीं। मलयालम भाषा में ये महिलाओं की पहली पत्रिका थी। इस पत्रिका में कहानियों और गृह-प्रबंध, सेहत तथा अन्य घरेलू संबंधित लेखों के अलावा महिलाओं की आज़ादी और विधवा- विवाह के बारे में भी विमर्श होता था। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये कृषि-क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की शिकायतों का भी निवारण किया जिन्हें ज़मींदार उचित वेतन देते थे।
सन 1930 में अन्ना चांडी ने सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने का फ़ैसला किया। उन्होंने श्री मूलम पाप्यूलर असैंबली के लिये चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया जो त्रावणकोर रियासत की एक निर्वाचित प्रतिनिधि निकाय थी। लेकिन इस बार उन्हें पितृसत्ता का पूर्वाग्रह झेलना पड़ा। उनके विरोधियों ने चुनाव में उन्हें बदनाम करने की मुहिम छेड़ दी। तिरुवनन्तपुरम की दीवारों पर शर्मनाक नारे लिखे गए और चित्र लगाए गये। उन पर रियासत के दीवान तथा अन्य अधिकारियों के साथ संबंध होने के आरोप लगया गये। इस तरह के आरोप अक्सर महिलाओं के ख़िलाफ़ लगाये जाते रहे हैं। इस तरह की मुहिम के बीच अन्ना सन 1931 का चुनाव हार गईं। बाद में उन्होंने इस प्रकार के अनुचित चुनाव प्रचार के बारे में अपनी पत्रिका श्रीमती में लिखा भी।
इस झटके के बावजूद उनके विरोधी उनकी बढ़ती लोकप्रियता को नहीं रोक पाए। अब तक वह समाज की एक प्रमुख हस्ती बन चुकी थीं। अगले साल उन्होंने फिर चुनाव लड़ा और जीता भी। वह सन 1932 से 1934 तक असैंबली की सदस्य रहीं।
जब वह असैंबली सदस्य थीं तब उनके साथी विधायक और त्रावणकोर राज्य के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी सदसय तीकलम टी.के. वेलू पिल्लई, महिलाओं को सरकारी नौकरी देने के ख़िलाफ़ थे।
उनको जवाब देने के लिए अन्ना ने असैबली में क़ानून का बेहतरीन इस्तेमाल किया: ‘विस्तृत याचिका से ये स्पष्ट है कि वादी इस आधार पर महिलाओं की रोज़गार पाने की कोशिशों पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि महिलाएं जंतुओं का झुंड हैं जिन्हें पुरुषों को घरेलू ऐश-ओ-आराम के लिये बनाया गया है और उनकी “पूजाघरनुमा-रसोई” से बाहर निकलने की वजह से परिवार की ख़ुशियों को नुक़सान पहुंचेगा ।’
यहां उन्होंने सरकारी नौकरियों में अनुपातिक आरक्षण के अलावा महिलाओं के लिये “दबे-कुचले समुदाय” के दर्जे की भी मांग की। म्यूनिसिपल असैंबली में उनके दबाव के कारण, किसी भी महकमे में सदस्य बनने के लिये महिलाओं को अयोग्य माननेवाले नियम को ख़त्म कर दिया गया। महिलाओं के लिये आरक्षण की मांग करने वाली वह पहली महिलाओं में से एक थीं।
बहरहाल, अन्ना बहुत ईमानदार थीं और समानता में विश्वास रखती थीं। उन्होंने हमेशा अलग अलग पक्षों की तरफ़ से मुक़दमें लड़े। सन 1935 में उन्होंने उस क़ानून का विरोध किया जिसके तहत महिलाओं को फांसी नहीं देने का प्रावधान था। बहुत जल्द उन्होंने त्रावणकोर के उस क़ानून के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोला जिसके तहत पुरुषों को पत्नियों की मर्ज़ी के बिना भी दाम्पत्य-संबंधी अधिकार प्राप्त थे। अपने समय से कहीं अधिक आगे चलनेवाली अन्ना ने महिलाओं के प्रजनन-संबंधी अधिकारों के लिये भी लड़ाई लड़ी। सन 1935 में एक भाषण में उन्होंने इस बाबात तर्क भी दिये जिसके अंश देविका की किताब में पढ़े जा सकते हैं जो कुछ इस तरह हैं: ‘हमारी कई मलयाली बहनों को संपत्ति में अधिकार हैं, मतदान का अधिकार है, रोज़गार, सम्मान और वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त है लेकिन इनमें से कितनी महिलाओं को उनकी देह पर अधिकार है? कितनी महिलाओं को इस मूर्खतापूर्ण अवधारणा की वजह से एहसास-ए-कमतरी का शिकार होना पड़ता है कि उनकी देह, पुरुषों के आनंद प्राप्त करने की मशीन है?’
महिलाओं के अधिकारों पर खुली चर्चा के बहुत पहले कर्मठ कार्यकर्ता और वक्ता अन्ना सन 1930 के दशक में त्रावणकोर में लोकप्रिय हो चुकी थीं। सन 1937 में त्रावणकोर रियासत के दीवान या प्रधानमंत्री सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने उन्हें मुंसिफ़ के पद पर नियुक्त किया। वह पहली महिला मुंसिफ़ थीं। मुंसिफ़ का ओहदा जूनियर स्तर के जज के समान होता था। इस क्रांतिकारी फ़ैसले से अन्ना के कंधों पर ज़िम्मेदारियों का और बोझ बढ़ गया . दूसरी तरफ़ लोग महिला की “तार्किक-निर्णय” करने की क्षमता पर टिप्पणियां करने लगे थे।
बाद में अन्ना ने, जो कुछ उन पर गुज़री थी, उसे इस तरह से बयान किया : ‘मैं स्वीकार करती हूं कि जब मैं अदालत में पहली बार दाख़िल हुई तो मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। लेकिन मैंने तय कर लिया था कि मैं इस प्रयोग को सफल करके दिखाऊंगी। मुझे पता था कि ये मुझ पर एक तरह का प्रयोग था…अगर मैं लड़खड़ाई या असफल हुई तो न सिर्फ़ मेरी अपनी प्रतिष्ठा ख़राब होगी बल्कि मैं महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को भी नुकसान पहुंचाऊंगी।’
निचली अदालत में नियुक्ति ने अन्ना चांडी के लिये ज़िला अदालत का दरवाज़ा खोल दिया। सन 1948 में आज़ादी मिलने के बाद वह ज़िला कोर्ट की जज बनीं। सन 1956 में त्रावणकोर और कोचीन का मालाबार ज़िले में विलय हो गया और इस तरह केरल राज्य बना। केरल राज्य बनने के बाद सन 1959 में अन्ना उच्च न्यायालय की जज नियुक्त हुईं। हाई कोर्ट की जज बनने वाली अन्ना भारत में ही नहीं बल्कि समस्य राष्ट्रमंडल देशों में पहली महिला थीं।
हलचल भरे करिअर के बाद अन्ना सन 1967 में रिटायर हो गईं। इसके बाद वह राष्ट्रीय विधि आयोग की सदस्य बनीं, जहां समयानुकूल और ठोस बदलाव करने के लिए वह हमेशा त्तपर रहीं । सन 1973 में “आत्मकथा” नाम से उनकी जिवनी प्रकाशित हुई । सन 1996 में, 91 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
अन्ना चांडी ने बहुत सार्थक जीवन जिया। उन्होंने महिलाओं की आने वाली नस्लों को, वह रास्ता दिखाया जहां से वे प्रगति कर सकें, आगे बढ़ सकें।
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