अलाबोई का युद्ध: अहोम विजय की पूर्वकथा

अलाबोई का युद्ध: अहोम विजय की पूर्वकथा

सरायघाट असम के गुवाहाटी शहर में एक इलाक़ा है, जहां शीशे की तरह चमकती ब्रह्मापुत्र नदी, इस क्षेत्र के नाटकीय अतीत का कोई अंदाज़ा नहीं होने देती । इसी जगह पर, नदी के इस हिस्से पर, अहोम शासकों ने असम जीतने की मुग़लों की कोशिशों को नाकाम कर दिया था।

सरायघाट | विकिमीडिआ कॉमन्स

यही वजह है, कि सरायघाट युद्ध ( सन1671) का असम के इतिहास में एक विशेष स्थान है। लेकिन इस निर्णायक जीत को एक अन्य युद्ध के परिप्रेक्ष में देखा जाना चाहिए, जो दो साल पहले लड़ा गया था और जिसकी वजह से सरायघाट युद्ध में अहोम की विजय हुई थी।

अलाबोई युद्ध (सन1669) में क्या कुछ नहीं हुआ ! इसमें दिल खोलकर झूठ और चालाकी में डूबे हुए तीरों का इस्तेमाल हुआ, मानसिक दाव-पैंच खेले गए तथा कुछ सूत्रों के अनुसार दुश्मन की ताक़त का अंदाज़ा लगाने के लिए दुश्मन के ख़ेमे में एक महिला योद्धा को भेजा गया।

असम सरकार ने अगस्त सन 2020 में घोषणा की, कि अलाबोई युद्ध में जो असमिया सैनिक शहीद हुए थे, उनकी याद में कामरुप ज़िले के दादरा में एक युद्ध स्मारक बनाया जाएगा। इस घोषणा के बाद से इस युद्ध को लेकर लोगों में दोबारा दिलचस्पी जग गई है, वर्ना इसे तो कब का भुला दिया गया था। सन 1669 में अलाबोई पहाड़ों में क्या हुआ था, ये जानने के लिए मुग़ल-अहोम संघर्ष को ठीक से समझना होगा।

अहोम शासकों ने मौजूदा असम के हिस्सों पर 13वीं सदी के आरंभ से लेकर 19वीं सदी तक 600 साल राज किया था। अहोम साम्राज्य ब्रह्मापुत्र नदी तट पर पश्चिम में मानस नदी से लेकर पूर्व में सादिया पहाड़ों तक 600 मील तक फैला हुआ था। साम्राज्य की औसतन चौड़ाई 50-60 मील थी।

सन 1615 से लेकर सन 1682 तक अहोम शासकों और मुग़लों के बीच कई बार संघर्ष हुए थे। मुग़ल अपना साम्राज्य फैलाना चाहते थे औऱ इसी वजह से दोनों शक्तिशाली सेनाओं में युद्ध होते रहते थे। इन दोनों के बीच पहला युद्ध सन 1662 में शुरू हुआ था जो सन 1663 में समाप्त हुआ था। मुगलों के अधीन वाले कामरुप को दोबारा हासिल करने के लिए बंगाल के सूबेदार मीर जुमला ने अहोम शासकों से युद्ध किया था। इस युद्ध में मुग़लों की आंशिक जीत हुई थी। मुग़ल सेना ने कामरुप तक असम पर आंशिक रुप से कब्ज़ा कर लिया था और गुवाहाटी को अहोम के क़ब्ज़े से छुड़ाकर जीते गए क्षेत्रों की राजधानी बना दिया गया था। मुग़लों ने अहोम की राजधानी गढ़गांव पर भी अस्थाई रुप से कब्ज़ा कर लिया था।

अहोम साम्राज्य का नक्शा | LHI

राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह (शासनकाल 1663-1670) के नेतृत्व में अहोम ने 1667 से मुग़लो से अपना क्षेत्र फिर हासिल करनी की मुहिम चलाई और वे काफ़ी क्षेत्र हासिल करने में सफल भी रहे। इनमें वे क्षेत्र भी शामिल थे जिन्हें मीर जुमला ने उनसे जीते थे। इसके बाद मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने जयपुर के राजा राम सिंह-प्रथम को हारे हुए क्षेत्रों को फिर जीतने के लिए सन 1669 में असम भेजा। इसी के बाद सरायघाट का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। असमी सेना का नेतृत्व जनरल लाचित बरफुकन कर रहे थे। मुग़लों की शक्तिशाली सेना का युद्ध के मैदान में सीधे सामना करने की बजाय लाचित ने छापामार (गुरिल्ला युद्ध) जंग की, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली।

मीर जुमला | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1669 के आरंभ में अहोम कई महीनों तक मुग़ल सैनिकों के लिए सिरदर्द बने रहे, जिन्होंने वहां डेरा डाल रखा था। मॉनसून की वजह से मुग़लों के लिए तुरत-फुरत जीत और क़िलेबंद गुवाहाटी पर कब्ज़ा करना भी मुश्किल हो गया था। गुवाहाटी लोअर असम (मनसा से कालियाबोड़ तक) वाइसराय का मुख्यालय होता था। लगातार छापामार हमलों की वजह से मुग़ल सेना का मनोबल गिरने लगा था और दूसरी तरफ़ राम सिंह ने असमियों को युद्ध में उलझाए रखने की ठान रखी थी।

अहोम राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के सब्र का बांध टूट रहा था ,लेकिन लाचित बरफुकन को पता था, कि राजपूत सेना से खुले मैदान में टकराना अहोम सेना के लिए घातक हो सकता है। दूसरी तरफ़ अहोम सैनिक भी बेताब हो रहे थे और रंगमहल क़िले में अहोम कमांडर पेलन फूकन ने राजा को एक संदेश भेजकर कहा, कि लाचित बरफुकन जानबूझकर हमला करने में देरी कर रहे हैं, हालांकि मौसम अहोम सेना के अनुकूल है।

लाचित बरफुकन की एक मूर्ती | विकिमीडिआ कॉमन्स

स्थितियां और बिगड़ने लगीं और दोनों पक्षों के बीच मनोवैज्ञानिक युद्ध के तहत राम सिंह ने चिट्ठी बांधकर एक तीर अहोम कमांडर के ख़ेमे की तरफ़ चलाया। इस चिट्ठी में लिखा था-“कल तुमने हमसे एक लाख रुपए का इनाम लिया था और एक लिखित समझोते में कहा था ,कि हमसे युद्ध नहीं करोगे। लेकिन लगता है ,कि तुमने युद्ध करने का इरादा छोड़ा नहीं है। क्या मैं जान सकता हूं क्यों? ”

लाचित बरफुकन के नाम लिखी चिट्ठी फ़ौरन अहोम राजा को भेजी गई। मुग़ल, अहोम सेना में मतभेद पैदा करना चाहते थे और इस चिट्ठी ने ये काम लगभग कर भी दिया। चिट्ठी पढ़कर अहोम राजा आगबबूला हो गया और उसने लाचित बरफुकन को पद से क़रीब क़रीब बर्ख़ास्त ही कर दिया।

इस बीच राम सिंह ने अपना मानसिक युद्ध जारी रखा और एक संदेशवाहक के हाथों एक और चिट्ठी भिजवाई जिसमें अहोम के राजा को दोनों सेनाओं की मौजूदगी में दो-दो हाथ करने की चुनौती दी गई थी। शर्त ये थी, कि अगर राम सिंह हार गया तो वह आगे लड़े बिना वापस चला जाएगा। लेकिन चक्रध्वज सिंह ने ये कहकर चुनौती स्वीकार नहीं की, कि वह ऐसे व्यक्ति से नहीं लड़ सकता जिसके सिर के ऊपर छतरी न हो यानी जो छत्रपति ना हो।

जयपुर के राजा राम सिंह-प्रथम | विकिमीडिआ कॉमन्स

लेकिन अहोम राजा की मुग़लों से युद्ध करने की बेताबी लगभग घातक सिद्ध हुई। चार अगस्त सन 1669 को राजा चक्रध्वज सिंह ने लाचित बरफुकन और उसके कमांडरों को गुलाम बनाई गई लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े और कुल्हाड़ियां भेजकर आख़री मौक़ा दिया। उनसे कहा गया. कि अगर वह अगले ही दिन मुग़लों पर हमला कर दें, वर्ना उन्हें राजा द्वारा भेजे गए गुलाम लड़कियों के कपड़े पहनने होंगे और कुल्हाड़ियों से उनके दिल चीर दिए जाएंगे।

लाचित हक्का बक्का रह गया क्योंकि उसे पता था, कि उनसे कहीं ताक़तवर राजपूत घुड़सवार सेना पर हमला करना आत्महत्या करने के समान होगा तथा इससे बेहतर तो ये होगा कि मुग़लों से समुद्री लड़ाई लड़ी जए। लेकिन वह राजा की आज्ञा की अव्हेलना नहीं कर सका।

मुग़लों ने अपनी सेना अलाबोई पर्वत (मौजूदा समय में दादरा, उत्तरी गुवाहाटी के पास) के पास तैनात कर रखी थी और इस तरह से उन्होंने युद्ध मैदान का चुनाव कर लिया था। अगले दिन पांच अगस्त सन 1669 को एक पत्र के रुप में बड़ी लड़ाई का अवसर अपने आप में पैदा हो गया। ये पत्र राम सिंह ने लिखा था, जिसमें उसने अहोम को खुले में युद्ध करने की चुनौती दी थी।

लाचित ने चुनौती स्वीकार कर ली और चार कमांडरों के नेतृत्व में 40 हज़ार सैनिक तैयार कर लिए। लेकिन उसने राम सिंह को भ्रम में रखा था, कि उनकी सेना में चालीस हज़ार सैनिकों नहीं बल्कि सिर्फ़ बीस हज़ार सैनिक हैं। राम सिंह इस झासे में आ गया और उसने मीर नवाब की कमान में सिर्फ़ दस हज़ार सैनिक ही भेजे।

अहोम इतिहास में एक घटना का उल्लेख है, हालंकि फ़ारसी( ईरानी) इतिहास में इसकी पुष्टि नहीं हुई है।

अहोम इतिहास के अनुसार राम सिंह ने पुरुष यौद्धा के भेस में मदनावती नाम की एक महिला यौद्धा को जंग में उतारा था।

अहोम इतिहास के अनुसार राम सिंह ने कहा था-“अगर वह हार जाती है ,तो हमारे लिए शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं होगी और अगर जीत दुश्मनों की होती है ,तो उनके लिए ये गर्व और सम्मान की बात नहीं होगी।”

अहोम सेना ने एक दूसरा तरीक़ा अपनाया जो सौ साल पहले कूच-अहोम युद्ध में कारगर साबित हुआ था। उन्होंने सेना की अग्रिम पंक्ति में ब्राह्मणों के भेस में तीरंदाज़ और बंदूकधारियों को खड़ा कर दिया। उन्हें उम्मीद थी, कि राजपूत सैनिक ब्राह्मणों पर हमला नहीं करेंगे। ये सब देखकर राम सिंह को खुलकर हंसी आ गई ।अहोम सेना रक्षात्मक हो गई, जबकि मुग़ल पैदल सेना पूरी ताक़त से उन पर टूट पड़ी।

अहोम इतिहास के अनुसार मदनावती अहोम के लिए असंभव-सी लगने वाली एक बड़ी चुनौती साबित हुई। हवा की रफ़्तार से घोड़ा दौड़ाते हुए उसने अहोम सेना की चार पंक्तियों को छिन्न भिन्न कर दिया और यहां तक कि,अहोम के तीरंदाज़ और बंदूकधारी भी उसकी रफ़्तार के सामने नाकाम हो गए। आख़िरकार मदनावती की मारकाट का अंत तब हुआ, जब एक गोली ने उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी।

अहोम ने एक और गुप्त रणनीति बना रखी थी। काफ़ी अच्छी संख्या में उसके सैनिक रक्षात्मक सेना के पीछे खंदकों में छुपे हुए थे। इस रणनीति से मुग़ल पैदल सेना अवाक रह गई और बुरी तरह हार गई। मुग़लों ने पास की ब्रह्मापुत्र नदी के ज़रिए दूसरा मार्ग अपनाने की कोशिश की, लेकिन अहोम उनके लिए तैयार बैठे थे। बहरहाल, इस बीच मुग़ल कमांडर मीर नवाब को पकड़कर लाचित के सामने हाज़िर किया गया तथा उसे अहोम के क़िले में क़ैद कर लिया गया।

राम सिंह, दूर से ये मारकाट देख रहा था और वह अहोम की धोखाधड़ी की वजह से उसे ग़ुस्सा आ गया था। उसने मुग़ल सैनिकों के साथ पूरी राजपूत घुड़सेना भेजी। अब तक मुग़ल सैनिक आदेश का इंतज़ार कर रहे थे। युद्ध के इस दौर में सैनिकों की संख्या के मामले में अहोम पिछड़ गए और हार गए। इस युद्ध में दस हज़ार अहोम सैनिक या तो युद्ध के मैदान में मारे गए या फिर वहां से भागते समय मारे गए । ये मुग़लों की निर्णायक जीत थी।

राम सिंह ने अहोम के ख़ेमे में एक तीर छोड़कर उनके ज़ख़्मों पर और नमक छिड़क दिया था। तीर में लगे पत्र में राम सिंह ने लाचित को चैतावनी दी थी, कि वह आइंदा इस तरह की बेवक़ूफ़ी न करे।

हालांकि जीत मुग़लों की हुई, लेकिन अलाबोई युद्ध सुनियोजित विजय से कहीं अधिक नहीं था और ये जीत मुग़लों के लिए केवल मनोबल बढ़ाने वाली थी, क्योंकि अहोम के ख़िलाफ़ उनकी मुहिम पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन दूसरी तरफ़ इस युद्ध ने गुवाहाटी से मुग़लों को खदेड़ने के अहोम सेना के संकल्प को और पुख़्ता कर दिया था।

दो साल बाद सन 1671 में सरायघाट के युद्ध में अहोम ने मुग़ल सेना को हरा दिया। इस युद्ध में अहोम के दस हज़ार सैनिक के बलिदान का नतीजा थी. जो अपने राजा और अपनी मातृभूमि के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी।

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