अफ़ग़ानिस्तान: यहां भी लड़ी गई थी भारत के आज़ादी की लड़ाई

अफ़ग़ानिस्तान: यहां भी लड़ी गई थी भारत के आज़ादी की लड़ाई

अफ़ग़ानिस्तान इन दिनों सारी दुनिया में सुर्ख़ियों में है। तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़े के बाद से भारत सहित पूरी दुनिया में एक तरह की हलचल मची हुई है। इस घटना के बाद वहां फंसे दूसरे देशों के लोगों को निकालने की क़वायद जारी है, और इसमें भारत भी शामिल है। बहरहाल, जब हम इतिहास पर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं, कि भारत और अफ़ग़निस्तान, दोनों देशों के बीच सदियों पुराने गहरे रिश्ते रहे हैं। लेकिन क्या आपको मालूम है, कि अफ़ग़ानिस्तान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का गढ़ भी रह चुका है?

अफ़ग़ानिस्तान, कई स्वतंत्रता सैनानियों और उनके गतिविधियों का गढ़ हुआ करता था, जिनकी दास्तान 18वीं सदी के अंत से शुरु होती है।

18वीं सदी के अंत में भारतीय उपमहाद्वीप में अपना राज फ़ैलाने की कोशिश में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के रास्ते में मैसूर का शासक टीपू सुल्तान (शासनकाल 1782-1799) आख़िरी कांटा बन गया था।  टीपू सुल्तान ने अंग्रेज़ों के साथ तीन युद्ध लड़े थे। सन 1792 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ तीसरी जंग हारने के बाद, टीपू ने दूसरे देशों के शासकों से संपर्क बनाने की मुहीम शुरू की। टीपू ने सन 1792 और सन 1796 में, तत्कालीन अफ़ग़ान शासक ज़मान शाह दुर्रानी (शासनकाल 1793-1801) के पास मदद के लिये अपने दूत भेजे। वह न सिर्फ़ अंग्रेज़ों से बल्कि तत्कालीन मुग़ल बादशाह, शाह आलम-II (1728-1806) से भी लड़ाई में मदद चाहता था। कहा जाता है, कि दोनों के बीच संदेशों का अदान-प्रदान होता रहा और ज़मान शाह ने तो भारत की तरफ़ क़दम बढ़ाने की कोशिश भी की, लेकिन अंग्रेज़ों, मराठाओं और अवध के शासकों की मौजूदी की वजह से ये मुमकिन नहीं हो सका, और सन 1799 में चौथे एंग्लो-मैसूर  युद्ध के दौरान टीपू की मृत्यु हो गई।

टीपू सुल्तान | ब्रिटिश लाइब्रेरी

इस दौरान अंग्रेज़ों का भारत में अपनी पैठ जमाने, और अपनी नीतियों से भारतीयों का शोषण करने का सिलसिला अपने चरम पर पहुंच चुका था। इसी बीच उत्तर भारत में सन 1857 का विद्रोह शुरू हो गया, जिसमें राव तुला राम (1838-1857) ने हरियाणा से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। यह लड़ाई उन्होंने नसीबपुर-नारनौल (16 नवंबर, 1857) में लड़ी और बाग़ी सैनिकों को रसद और धन मुहैया करवाया। नतीजे में विजय भी हासिल हुई, लेकिन उनके वह अच्छे दिन ज़्यादा वक़्त तक क़ायम नहीं रह सके। अंग्रेज़ों ने कई पड़ोसी रियासतों की मदद से राव तुला राम को खदेड़ दिया। घायल होने और युद्ध हारने के बाद, राव तुला राम काबुल भाग गए, जहां वह अफॉग़ानिस्तान के बादशाह दोस्त मुहम्मद (शासनकाल 1823- 1839) से मिले। उन्होंने अपने मादर-ए-वतन को आज़ाद करवाने के लिये रुस के ज़ार (राजा) और ईरान के शाह के साथ संबंध स्थापित किये। लेकिन बदक़िस्मती से राव तुला राम का पेचिश की बीमारी की वजह से निधन हो गया।

राव तुला राम पर जारी हुआ डाक टिकट | विकिमीडिआ कॉमन्स

20वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई राजनीतिक दल बनने लगे थे, और क्रांतिकारी गतिविधियाँ भी शुरू होने लगीं थीं, जो देश की सीमाओं के पार भी फैलने लगी थीं। क्रांति की इस गहमागहमी से अफ़ग़ानिस्तान भी अछूता नहीं रह सका था।

इसी दौरान सन 1913 में ग़दर पार्टी की स्थापना हुई, और उसके एक साल बाद पहला विश्व युद्ध (1914-1919) शुरु हो गया। इस जंग की वजह से कई लोगों को अंग्रेज़ो को उखाड़ फेंकने के लिए हाथ मिलाने का मौक़ा भी मिल गया।इस मुहिम के तहत यूरोप में इंडियन इंडीपेंडेंस ऑफ़ बर्लिन कमेटी का गठन हुआ, और एक प्रतिनिधिमंडल अफ़ग़ानिस्तान भेजा गया था, जिसमें भारतीय क्रांतिकारी राजा महेंद्र प्रताप सिंह, मौलाना बरकतउल्लाह और काज़िम बे शामिल थे। उनके साथ जर्मन राजनयिक वॉन हेंटिग भी थे। बरकतउल्लाह अफ़ग़ान क़ानूनी अदालत में फ़ारसी के दुभाषिये बन गये थे। जर्मनी और तुर्की के नेताओं के साथ बातचीत के बाद 1 दिसंबर, सन1915 को भारत की पहली प्रांतीय सरकार के गठन का मार्ग खुल गया, जिसने भारत और कई अन्य देशों में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उनके संघर्ष को हौंसला दिया। दिलचस्प बात यह थी, कि भारत की पहली प्रांतीय सरकार का गठन राजा महेंद्र के जन्मदिन पर हुआ था!

क़ाबुल में भारतीय प्रांतीय सरकार की स्थापना | विकिमीडिआ कॉमन्स

युद्ध के ख़त्म होने तक तुर्क हार चुके थे, और मैकमोहन-हुसैन पत्राचार (1916) के तहत अंग्रेज़ों ने अरब देशों से वादा किया था, कि अगर वे ओटमन (उस्मान) साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ते हैं, तो उन्हें आज़ादी दे दी जाएगी। इस डर से कि कहीं अंग्रेज़ उन्हें सत्ता से हटा दें,  अफ़ग़ानिस्तान के अमीर ने राजनयिक समर्थन प्राप्त करने के लिए कई देशों में राजनयिक मिशन भेजे, जिसमें बरकतउल्लाह और राजा महेंद्र प्रताप भी शामिल थे। सन 1919 आते-आते युद्ध समाप्त हो गया, और इस्तानबुल पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया। इस बीच राजा महेंद्र प्रताप अंग्रेज़ों की जांच के दायरे में आ गए, और वे टोक्यो भाग गए, जहां वह 1946 तक रहे। उनकी अनुपस्थिति में बरकतउल्लाह पेरिस और सैन फ़ांसिस्को जैसी जगहों का दौरा कर भारत की आज़ादी के लिये समर्थन जुटाने की कोशिश करते रहे। सन 1927 में बरकतउल्लाह का निधन हो गया।

| विकिमीडिआ कॉमन्स

दिलचस्प बात यह है, कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दोनों देशों के बीच एक और रिश्ता भी रहा। सीमांत गांधी नाम से मशहूर ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ां (1890-1988) ने एक सामाजिक संगठन “ख़ुदाई ख़िदमतगार” की स्थापना की, जो महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन की तर्ज़ पर बनाया गया था। इस संगठन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बहुत योगदान किया था। कांग्रेस कार्य-समिति के एक सक्रिय सदस्य के रूप में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ां महात्मा गांधी के बहुत क़रीब थे।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन जब अपने चरम पर पहुंच रहा था, तभी दूसरा विश्व युद्ध (1939-1945) शुरु हो गया, जिसकी वजह से भारतीय स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस (1897-1945) को अंग्रेज़ों से लड़ने का एक सुनहरा मौक़ा मिल गया। बोस को उनके विरोधाभासी विचारों और कॉग्रेस के अंदर ही अपना अलग मोर्चा, अखिल भारतीय फ़ॉरवर्ड ब्लॉक गठन करने की वजह से, कांग्रेस से बाहर कर दिया गया था। जुलाई सन 1940 में बोस को गिरफ़्तार कर लिया गया था, लेकिन उनके आमरण अनशन की वजह उन्हें उनके घर में ही नज़रबंद कर दिया गया। इसके बावजूद वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में पीछे नहीं हटे। लड़ाई जारी रखने के लिये बोस, दिसम्बर सन 1940 में अपने घर से फ़रार होकर काबुल पहुंच गये, जहां से उन्हें रूस जाना चाहते थे।

जनवरी सन 1941 में बोस, भारतीय जासूस भगत राम तलवार (1908-1983) से पेशावर में मिले। भगत ने बोस और उनके कुछ समर्थकों को पेशावर से काबुल की ओर निकल जाने में मदद की। बोस, ज़ियाउद्दीन नाम से एक पठान के रूप में, एक झुग्गी में रह रहे थे । उन्होंने भगत के ज़रिये, जो रहमत ख़ान के नाम से वहां रहते थे, रुसी दूतावास में अपील की, लेकिन उनकी अपील ख़ारिज कर दी गई, क्योंकि रुस को शक था कि वह अंग्रेज़ों के एजेंट हैं। बाद में नेताजी ने ख़ुद जर्मन और इटली दूतावासों से संपर्क किया।

भगत राम तलवार - नफीस उर्रहमान दुरानी

नेताजी के संघर्ष का अंत तब हुआ, जब उन्हें काबुल के एक रेडियो तकनीशियन और विक्रेता उत्तमचंद मल्होत्रा ​​के घर में पनाह मिली। उसके बाद वह इतालवी राजदूत पिएत्रो क्वारोनी से मिले, जो बर्लिन भागने में उनकी मदद करने के लिए तैयार हो गये। मल्होत्रा के घर में रहने के दौरान नेताजी ने दो लेख लिखे- “गांधीज़्म इन द लाइट ऑफ़ हेगेलियन डायलेक्टिक ” और “ए मैसेज टू माय कंट्रीमेन।”  ये दोनों लेख उन्होंने भगत राम के मार्फ़त अपने भाई शरत को कलकत्ता भिजवा दिये। मार्च सन 1941 के अंत तक, नेताजी ने इतालवी राजनयिक ऑरलैंडो माज़ोट्टा के रूप में फ़ोटो खिंचवाई, और कार से मास्को रवाना हुए और फिर  28 मार्च, सन 1941 को हवाई जहाज़ से बर्लिन पहुंच गये। वहां उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना संघर्ष दोबारा शुरू कर दिया और आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया, जिसने पूर्वी एशिया में संघर्ष किया।

सन 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत सैन्य, आवास, खेल और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में अफ़ग़ानों की मेज़बानी करता रहा है। अफ़ग़ानिस्तान भारतीय इतिहास का एक अहम अध्याय है, क्योंकि वहां न सिर्फ़ भारतीय संस्कृति फैली, बल्कि ऐसी भी घटनाएं हुईं, जिन्होंने बाद में भारत की आज़ादी में योगदान किया।

मुख्य चित्र: उन्नीसवीं शताब्दी में काबुल और आसपास के क्षेत्र – ब्रिटिश लाइब्रेरी

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