भगत राम तलवार: सुभाष चन्द्र बोस के पठान ‘भांजे’

भगत राम तलवार: सुभाष चन्द्र बोस के पठान ‘भांजे’

उत्तर प्रदेश राज्य का पीलीभीत शहर ऐतिहासिक, औद्योगिक और यहाँ तक साहित्यिक दृष्टिकोण से भी समृद्ध है। लेकिन इसके इतिहास से जुड़ा एक ऐसा पहलू भी है, जिसे स्थानीय लोग भी भुला चुके हैं। पीलीभीत का संबंध सुभाष चन्द्र बोस के उस पठान ‘भांजे’ से रहा है, जिसने उन्हें पेशावर से बर्लिन तक पहुंचाने में सहायता की थी। यही नहीं, उनके परिवार ने स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ-साथ पीलीभीत शहर के विकास में भी योगदान किया था। ये थे भगत राम तलवार।

तलवार के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन स्थानीय सूत्रों से पता चलता है, कि उनका जन्म सन 1908 में वर्तमान पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत के एक हिन्दू खत्री परिवार में हुआ था, जिसका स्वतंत्रता आन्दोलन से बहुत गहरा नाता था। उनके पिता गुरुदासमल, ख़ान अब्दुल ग़फ्फ़ार ख़ान के साथ आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय थे। उनके भाई हरिकिशन को, पंजाब के तत्कालीन गवर्नर पर गोली चलाने के आरोप में, 9 जून 1931 को फांसी दी गई थी। दिलचस्प बात ये है, कि हरिकिशन और शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बीच काफ़ी नज़दीकियां थीं और दोनों को लाहोर सेंट्रल जेल में एक साथ रखा गया था। उसी साल इसी जेल में भगत सिंह और उनके दो साथियों-सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी।

अट्ठारहवीं शताब्दी में पीलीभीत की एक मस्जिद का चित्र | ब्रिटिश लाइब्रेरी

अपने भाई और भगत सिंह की मौत का बदला लेने के लिए, तलवार ने इन शहीदों से प्रेरणा ली। उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर लाहौर के डिप्टी कमिश्नर की हत्या की योजना बनाई। जिस दिन इस योजना को अंजाम देना था, उसी दिन डिप्टी कमिश्नर पुलिस स्टेशन के अन्दर सो रहा था, लेकिन तलवार के वहां पहुंचने से पहले ही, डिप्टी कमिश्नर वहां से खिसक चुका था। ये तलवार की किसी अंग्रेज़ अधिकारी की हत्या करने की पहली और आख़िरी कोशिश थी।

उस वक़्त भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव बढ़ रहा था।इसी वजह से वामपंथी विचार धारा से प्रभावित कई दलों का गठन हुआ। उनमें से कुछ कांग्रेस के सहयोगी बन गए । उन्हीं में से एक थी “कीर्ति किसान पार्टी”, जिसके सदस्य तलवार बन गए थे। उस पार्टी में तलवार का क्या और कितना योगदान था, उसके बारे में जानकारी नहीं है। ग़ौरतलब है, कि अलग-अलग दलों में होने के बावजूद, सभी क्रांतिकारी और राजनेता, किसानों और मज़दूरों के हक़ की लड़ाई और देश की आजादी के संघर्ष में एकजुट थे। उनमें से कुछ ने इटली और रूस के कई क्रांतिकारियों के साथ अच्छे सम्बन्ध भी बना लिए थे। तलवार के भी कई रूसी क्रांतिकारियों के साथ गहरे संबंध थे।

इस बीच दूसरा विश्व युद्ध (1939- 1945) शुरु हो चुका था, जिस दौरान सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेसी साथियों से वैचारिक मतभेद हो गए थे। इसी वजह से उन्हें कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। उन्हें भारत को समाजवादी और अधिनायकवादी देश बनाने का जूनून सवार था। इसीलिए उन्होंने वामपंथी दल “आल इंडिया फ़ॉरवर्ड ब्लॉक” पार्टी का गठन किया। उसके बाद चेन्नई और कोलकता में कई विरोध प्रदर्शन किए। लेकिन बोस की ये मुहीम सफल नहीं हो पाई और अंग्रेज़ों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गिरफ़्तारी के दौरान उन्होंने भूख हड़ताल शुरु कर दी। नतीजे में अंग्रेज़ों ने उन्हें, उनके कलकत्ता वाले घर में नज़रबंद कर दिया। इसी दौरान बोस काबुल के रास्ते रूस पहुंचने का ख्याल आया। वो चाहते थे, कि युद्ध की स्थिति का फ़ायदा उठाकर, अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए एक फ़ौज बनानी चाहिए। इसके लिए सबसे पहले,पेशावर से रामकिशन और अचर सिंह चीमा को रूसी क्रांतिकारियों से सम्पर्क करने के लिए रूस भेजा गया। लेकिन दुर्भाग्यवश, रामकिशन नदी पार करते समय डूब गए और चीमा को रूसी सीमा-पुलिस ने अंग्रेज़ जासूस समझकर गिरफ़्तार कर लिया। ये ख़बर बम्बई में सक्रिय वामपंथी नेता श्रीपाद अमृत डांगे और पेशावर मे फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के नेता मियां अकबर शाह तक पहुंची। फिर ये फ़ैसला किया गया, कि ये काम सीमा प्रांत के किसी साथी को ही सौंपा जाए। इस काम के लिए डांगे और अकबर शाह दोनों को एक ही नाम सूझा और वो नाम था…भगत राम तलवार।

पठान के भेस में भगत राम तलवार | विकी कॉमन्स

सन 1940 के अंतिम वर्षों में बोस दाढ़ी बढाकर और एक नए नाम के साथ कलकत्ता से धनबाद जिले के गोमोह गांव होते हुए, ट्रेन से पेशावर पहुंचे और वहां के क़बायली इलाकों में ठहरे। इस दौरान, 21 जनवरी,सन 1941 को उनकी मुलाक़ात तलवार से हुई। अब तलवार का नाम रहमत ख़ान था और वह बोस के बन गए भांजें थे और बोस का नाम ख़ान मुहम्मद ज़ियाउद्दीन ख़ान था और वह तलवार के मामा बन चुके थे। सबसे दिलचस्प बात ये थी कि चूंकि बोस को पश्तो भाषा नहीं आती थी, इसीलिए मियां अकबर शाह के सुझाव पर बोस को गूंगा-बहरा बना दिया। इस काम में तलवार का झूठ गढ़ने का ‘हुनर’ बहुत काम आया। जब वो अफ़गान सरहद पहुंचे तब वहां तैनात सीमा-पुलिस की पूछताछ के दौरान तलवार ने कहा कि एक हादसे में उनके मामा की आवाज़ चली गई है, इसीलिए वो उनकी सेहत की मन्नत मांगने के लिए सरहद पार एक पीर बाबा के मज़ार जा रहे हैं। पुलिस ने तलवार की बात पर यक़ीन कर लिया और उन दोनों को जाने दिया!

बोस और तलवार दोनों काबुल पहुंच कर उत्तमचंद मल्होत्रा के घर ठहरे। यहां उन्होंने लगभग डेढ़ महीने गुज़ारे। जब उन्होंने काबुल स्थित रूसी दूतावास में,रूस जाने का आवेदन किया तो उसे ठुकरा दिया गया। तभी बोस ने इटली के रास्ते बर्लिन जाने के लिए की जुगत लगाई। इसके लिए बोस ने अपना नाम और यहां तक कि हुलिया भी बदल लिया। आख़िरकार बोस मई 1941 में काबुल से बर्लिन रवाना हो गए। उन्होंने तलवार से वादा किया कि वो उनसे फिर मिलेंगे, एक नए आज़ाद भारत में।

बोस अपनी मंज़िल की ओर तो निकल चुके थे लेकिन तलवार का क्या हुआ? मिहिर बोस की तलवार पर लिखी किताब ‘एन इंडियन स्पाई’ (2017) के अनुसार तलवार ने बोस को रूस तक पहुंचाने के लिए जिन दूतावासों के दरवाज़े खटखटाए थे, उन्हीं दरवाज़ों पर उन्होंने फिर दस्तक दी और इटली और जर्मन लोगों के साथ सम्बन्ध बनाए। जो उत्तर पूर्वी सीमान्त प्रांत में एक विद्रोह करवाना चाहते थे। इसके लिए तलवार ने बम बनाना सीखा और सैन्य करवाई को नाकाम करने के तरीक़े भी सीखे। 22 जून सन 1941 को जब जर्मनी ने रूस पर हमला किया तब तलवार ने बड़ी होशियारी से जर्मन लोगों को चकमा देकर रूसियों और उनके अंग्रेज़ सहयोगियों का साथ दिया और उन्हें जर्मन के मंसूबों के बारे में जानकारी दे दी। इसी वजह से तलवार को अंग्रेज़ी ख़ुफ़िया एजेंसी में जगह मिल गई जहां उनका कोड नाम ‘सिल्वर’ रखा गया। अंग्रेज़, तलवार पर बहुत भरोसा करने लगे थे, लेकिन उन्हें इस बात का गुमान भी नहीं था कि तलवार इस भरोसे का ग़लत फ़ायदा उठा रहे थे। तलवार ने अंग्रेज़ों की कई योजनाओं की जानकारी जर्मन अधिकारियों तक पहुंचाईं। इस तरह की जासूसी से जर्मनी को युद्ध के दौरान बहुत फ़ायदा हुआ। लेकिन अंत में अंग्रेज़ों के हाथों जर्मन को कड़ी शिकस्त का सामना करना पड़ा।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस | विकी कॉमन्स

सन 1945 में युद्ध समाप्त हुआ और बोस को उसी साल ताईवान में हुई एक विमान दुर्घटना में में बोस की मृत्यु हो गई। हालांकि उनकी मृत्यु को लेकर विवाद आज भी जारी हैं। दो साल बाद भारत आज़ाद तो हो गया, लेकिन विभाजन के कारण बड़ी संख्या में लोगों का एक देश से दूसरे देश पलायन हुआ। जब तलवार अपने परिवार के साथ दिल्ली आए, तब उनकी मुलाक़ात डांगे से हुई। प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें पीलीभीत में एक ज़मीन दे दी, जो आज भी वहां स्थित अशोक नगर कालोनी मौजूद है। दुर्भाग्यवश, जिस घर में तलवार ने अपना आधे से ज़्यादा जीवन बिताया,उनके परिवार वालों ने उस घर को बेच दिया। आज उनके परिवार के कुछ लोग पीलीभीत ज़िले के झनकैया कृषि फ़ार्म में रहते हैं।लेकिन पीलीभीत में तलवार का नाम आज भी ज़िंदा है। तलवार के भाई हरिकिशन के नाम पर यहां एक स्कूल है। उनके दूसरे भाई अनंतराम यहां की एक चीनी मिल के वाईस-चेयरमैन रह चुके हैं।

श्रीपाद अमृत डांगे | विकी कॉमन्स

सन 1973 में कलकत्ता में नेताजी पर आयोजित एक समारोह में तलवार ने बोस के साथ गुज़ारे दिनों का उल्लेख किया था। उन यादों को उन्होंने सन 1976 में अपनी किताब ‘दि तल्वार्स ऑफ़ दि पठान लैंड एंड सुभाष चंद्राज़ ग्रेट एस्केप’ में शामिल किया हे। गुमनामी की ज़िंदगी गुज़ार ने के बाद सन 1987 में तलवार का नवासी बरस की उम्र में निधन हो गया।

जिस शख़्स ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की, इतने ऊंचे मुक़ाम तक पहुंचने में अहम भूमिका निभाई हो, उसको ना सिर्फ़ उसके मुल्क ने बल्कि उसके शहर तक ने भुला दिया।

तलवार का किरदार दो बार पर्दे पर दिखलाई दिया है। सन 2005 में आई ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; दि फ़ॉरगॉटन हीरो’ में उनका किरदार मशहूर अभिनेता राजपाल यादव ने और सन 2017 में आई वेबसीरीज ‘बोस: डेड ओर अलाइव’ में प्रसिद्ध कश्मीरी अभिनेता मीर सरवार ने निभाया था।

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