‘‘सामोसाम गोला छूटे
आडावालौ धूजै ओ
आउवा रा नाथ तो
सुगाली पूजै ओ’’
यह आंचलिक लोकगीत जंग-ए-आज़ादी के उन क्रांतिकारियों के लिए गाया गया, जब सन1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेज़ अधिकारी का सिर काटकर गढ़ के प्रवेश द्वार पर लटका दिया गया था । इस क़स्बे के प्रत्येक नागरिक को आज भी अपने आप पर बड़ा गर्व होता है कि उनका जन्म आउवा जैसे गाँव में हुआ है। यह ऐतिहासिक गाँव पाली ज़िले के मारवाड़ जंक्शन रेल्वे स्टेशन से 12 कि.मी. दूर जोजावर सड़क मार्ग पर स्थित है।
सन 1857 का विद्रोह और मारवाड़
सन 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी मंगल पाण्डे ने सैन्य विद्रोह की जो ज्वाला जलाई वह भारत भर में ज्वालामुखी बनकर फूटी थी। उसकी आँच राजस्थान की सैन्य छावनियों तक भी पहुँची थी। यहां बाग़ी सैनिकों को शरण देने वाला मारवाड़ रियासत का आउवा गांव इस बग़ावत का चश्मदीद गवाह बना।
इस गाँव के गढ़ में बाग़ी सैनिकों के साथ अन्य ठिकानों के सामंतों ने मिलकर जोधपुर राज्य और अंग्रेज़ों की संयुक्त सेना के जिस प्रकार छक्के छुड़ाए उस घटना का वृत्तांत इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया है। इस क्रांति के समय राजपूताना (राजस्थान ) में 18 रियासतें हुआ करती थीं। इन सबके बीच में ब्रिटिश शासित अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र आता था ।
इस क्रांति में भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह सभी वर्गों ने भाग लिया था। इस देशव्यापी विद्रोह को ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध भारतीयों का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना जाता है । 11 मई सन 1857 को मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र ने मेरठ और दिल्ली के विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व स्वीकार किया था। वहीं राजपूताना के राज्यों और ब्रिटिश शासित राज्य में क्रांतिकारियों ने नसीराबाद छावनी में 10 मई सन 1857 को विद्रोह किया था ।
विद्रोह का प्रमुख केन्द्र आउवा
जब देश के विभिन्न हिस्सों में विद्रोह की ज्वाला तेज हो रही थी, उसी समय मारवाड़ के आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह चाम्पावत के नेतृत्व में विद्रोही सिपाहियों ने अपनी आराध्य देवी सुगाली माता के समक्ष प्रथम क्रांति का शंखनाद किया था। इनके साथ शिवनाथ सिंह आसोप, बिशनसिंह गूलर, अजीतसिंह आलनियावास, पृथ्वी सिंह लाम्बीया, जोध सिंह कोठारिया सहित रिड़, बाजवास के अलावा अन्य जागीरदार भी साथ थे। डीसा, ऐरनपुरा, माउन्ट आबू, अनादरा के विद्रोही सिपाहियों ने आउवा पहुँचकर ब्रिटिश सेना के विरूद्ध 18 सितम्बर सन 1857 को ऐतिहासिक युद्ध किया था जिसमें जोधपुर के राजनीतिक एजेंट मार्क मेसन के मारे जाने से राजपूताना में अंग्रेज़ों की प्रतिष्ठा को बड़ी क्षति पहुँची।
इस प्रकार विद्रोहियों की विजय ने यहाँ ब्रिटिश सरकार की राजनैतिक स्थिति को कमज़ोर कर दिया जिससे सम्पूर्ण मारवाड़ में ब्रिटिश सत्ता विरोधी लहर फैल गई । इसी बीच 20 सितम्बर सन 1857 को दिल्ली पर फिर से अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा हो गया था। आउवा में दो बार करारी हार के चार माह बाद जनवरी सन 1858 में मुंबई से अंग्रेज़ों की विशेष प्रशिक्षित सेना यहाँ बुलाई गई। इसमें घुड़सवार,पैदल सैनिक और इंजीनियर सहित कुल दो हज़ार सैनिक थे। इस बात का अंदाज़ा कुशाल सिंह को पहले से ही था इसलिए वे गढ़ की बागडोर अपने भाई को सौंपकर सैन्य मदद प्राप्त करने के लिए बाहर निकल गए थे। अंग्रेज़ सेना, आउवा पर तीसरे बड़े हमले के दौरान, पाँच दिनों तक, दोनों ओर से तोपों के गोले बरसाती रही। अंग्रेज़ इंजीनियरों का मानना था कि आउवा के चारों ओर बना कच्चा परकोटा 24 जनवरी तक गिर जाऐगा।
उसके बाद फौज नज़दीक से हमला कर सकेगी । इसी बीच रात्रि में भयंकर तुफ़ान आया तो गढ़ में डटे हुए बाग़ियों ने अंग्रेज़ों की ताक़त भांपते हुए गढ़ को छोड़ना ही उचित समझा और वहाँ से बाहर चले गऐ। दूसरे दिन अंग्रेज़ों की फौज ने गढ़ और गाँव पर क़ब्ज़ा कर उनको तहस-नहस कर दिया। साथ ही भीवालिया आदि गांवों की गढ़ियों को गोलो से विध्वंस्त कर दिया गया था।
जुनून जगाने वाली देवी
आउवा गाँव में गढ़ और देवी के मंदिर को तोड़कर क्रांतिकारियों की प्रेरणा स्त्रोत रही सुगाली माता की अद्भूत प्रतिमा से अंग्रेज़ इस क़दर भयभीत थे कि वे इस प्रतिमा को अपने साथ सैनिक छावनी ले गए । उनकी सोच यह थी कि इससे इन विद्रोहियों के जुनून में कमी आएगी और क्रांति को दबाने में सहूलियत रहेगी।
वर्तमान समय में यह मूर्ति पाली के राजकीय संग्रहालय में रखी हुई है। मगर इससे पहले, यह मूर्ति, अंग्रेज़ों के आफ़िस आबू से अजमेर संग्रहालय में इतिहासकार और क्यूरेटर गौरीशंकर हीराचंद ओझा के प्रयासों से लाई गई थी। इस मूर्ति के 10 सिर और 54 हाथ हैं तथा यह काले संगमरमर पत्थर की बनी है । यह सुगाली माता इस क्षेत्र के लोगों की अटूट आस्था का प्रतीक रही है ।
2 फ़ुट 5 इंच की इस भव्य प्रतिमा की चमक इतने वर्षों बाद भी बरक़रार है । इस गाँव के मुख्य चौक में संग्राम की प्रथम शताब्दी वर्ष के अवसर पर सभी क्रांतिकारियों की याद में कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया गया है। प्रतिवर्ष यहां ग्रामीणों की ओर से श्रृद्धा सुमन अर्पित किए जाते हैं। वहीं इस बग़ावत में भाग लेने वाले वीर सेनानायकों की याद में आउवा गाँव में राजस्थान सरकार ने एक पेनोरमा बनाया है। उसमें मूर्तियाँ, पैनल, शिला-लेख आदि के माध्यम से इस घटना को पुर्नजीवित करने का महान कार्य किया गया है।
इस प्रकार सन 1857 की उस महान क्रांति की याद हमारे दिलों में अमर ज्योति की तरह हमेशा जलती रहेगी।
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