हाल ही में पंजाब और हरियाणा की सरकारें एक स्वतंत्रता सेनानी की स्मृति में कुछ स्मारक बनाने जा रही हैं। कहा जाता है कि ये आरंभिक स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने न सिर्फ़ राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे महान स्वतंत्रता सैनानियों से 25 साल पहले महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी बल्कि वे इनके इनके प्रेरणा-स्रोत भी थे। हम आपको बताने जा रहे हैं मदन लाल ढींगरा के बारे में जिन्हें 25 साल की उम्र में इंग्लैंड में फांसी दी गई थी।
आरंभिक जीवन
ये बात 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में पंजाब प्रांत की है। गुरु राम सिंह (सन 1873) के नेतृत्व में नामधारी सिख कूका आंदोलन को अंग्रेजों ने कुचल दिया था। दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में आर्य समाज आंदोलन (सन 1877) पंजाब में जड़ें जमा रहा था और राष्ट्रवादी विचारधारा की अलख जगा रहा था। राष्ट्रीय नवजागरण के तहत राजनीतिक साहित्य लिखा जा रहा था और अख़बारों में लेख तथा पत्रिकाओं के रुप में इनका प्रकाशन हो रहा था, जो लोगों में लोकप्रिय हो रही थीं। लाहौर और अम़ृतसर स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र बन गये थे जहां बैठकें, हड़ताल और अन्य राजनीतिक गतिविधियों हो रही थीं।
अमृतसर में 18 सितंबर सन 1883 को जन्में ढ़ींगरा, प्रसिद्ध सिविल सर्जन गीता मल ढ़ींगरा के संपन्न परिवार से संबंध रखते थे। इस परिवार में कुल सात बच्चे थे, जिसमें से मदन लाल छठे थे। उनके पिता एक प्रतिष्ठित सर्जन थे, जिन्हें अंग्रेज़ पसंद करते थे। अंग्रेज़ों की विशिष्ट सेवा के लिए गीता मल को राय साहब की उपाधि भी दी गई थी।
भीषण संघर्ष
सन 1900 में माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद ढ़ीगरा ने आगे की पढ़ाई करने के लिए लाहौर सरकारी कॉलेज विश्वद्यालय में दाख़िला ले लिया, जहां उन्होंने औपनिवेशिक भारत के बारे में गहरा अध्ययन किया। सन 1904 में उन्होंने इंग्लैंड से आयातित कपड़े के क़ॉलेज का कोट बनवाने के प्रिंसिपल के फ़ैसले का विरोध किया। उनके पिता ने उनसे माफ़ी मांगने को कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया जिसकी वजह से उन्हें न सिर्फ़ क़ालेज से निकाल दिया गया बल्कि उनके पिता ने भी उनसे नाता तोड़ लिया। उनके पिता ने उन्हें मानसिक रुप से असंतुलित घोषित कर दिया था।
अब तक ऐशा-ओ-आराम की ज़िंदगी जीने वाले धींगरा सन 1906 में कालका में क्लर्क की नौकरी लगे जहां से वह शिमला चले गए, जहां वह रिक्शा चलाकर आजीविका चलाने लगे। इसके बाद वह एक कारख़ानें में मज़दूरी करने लगे, लेकिन वहां भी यूनियन बनाने के आरोप में उन्हें निकाल दिया गया। इसके बाद वह बम्बई चले गए, जहां वह बंदरगाह पर काम करने लगे। लेकिन ये काम उन्हें पसंद नहीं आया और वह माफ़ी मांगकर घर लौट आए। उनके भाई बिहारी लाल, जो मेडिकल की पढ़ाई पूरी करके इंग्लैंड से पंजाब वापस आए थे, ने उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाई करने की सलाह दी। गीता मल के बाक़ी बच्चे (मोहन लाल, चमन लाल और चुन्नी लाल) इंग्लैंड में पढ़ाई कर चुके थे और उनका छोटा बेटा भजन लाल भी वहीं पढ़ रहा था। गीता मल को लगा कि ये मदन लाल को सुधारने का अच्छा मौक़ा है और वह उन्हें इंग्लैंड भेजने पर राज़ी हो गए। इस तरह दोनों भाई इंग्लैंड चले गए।
लंदन और इंडिया हाउस
उस समय लंदन भारतीय, आयरिश तथा रुसी क्रांतिकारियों का मिलने का अड्डा हुआ करता था। लंदन में 65- क्रोमवेल एवेन्यू में स्थित इंडिया हाउस की स्थापना स्वतंत्रता सैनानी श्यामजी वर्मा ने की थी जो भारतीय क्रांतिकारियी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था।
इंडिया हाउस क्रांतिकारी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देता था। इसके पहले सन 1905 बंगाल का विभाजन हो चुका था। इंडिया हाउस इंडियन नैशनल कांग्रेस के कामकाज के तरीक़े से सहमत नहीं था। इससे जुड़े क्रांतिकारी स्वराज में विश्वास करते थे और उनका मानना था कि हिंसा के ज़रिए ही अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ा जा सकता है। इनका मूल सिद्धांत उग्र भारतीय राष्ट्रवाद था जिसका रविवार की सभाओं और सन 1857 के विद्रोह दिवस समारोह के मौक़े पर प्रचार किया जाता था। इंडियन सोशियोलॉजिस्ट जैसे साहित्य ने न सिर्फ़ भारतीय स्व्तंत्रता संग्राम की तरफ़ भारतीय छात्रों का बल्कि अंग्रेज़ो का भी ध्यान आकृष्ट किया।
मदन लाल इंडिया हाउस में रहकर पढ़ रहे थे। उनके लिए बिहारी लाल ने सारा इंतज़ाम कर दिया था। वह यहां उनके छोटे भाई भजन लाल के साथ रहते थे। ढींगरा ने वहीं किया जो उनसे करने को कहा गया।, उन्होंने सन 1906 से लेकर सन 1909 तक कॉलेज में पढ़ाई की।चूंकि ढींगरा एक संपन्न परिवार से थे इसलिए पढ़ाई के दौरान वह मौज-मस्ती भी करते थे। शुरुआत के दिनों में वह राजनीतिक सभाओं में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं लेते थे।
इस दौरान उनकी मुलाकात विनायक दामोदर सावरकर से हुई ,जो क़ानून की पढ़ाई के लिए लंदन आए हुए थे। ढींगरा शुरुआती दिनों में अक्सर सावरकर की बहादुरी का और उन पर उसके प्रभावों के बारे में बात किया करते थे। ढींगरा का तब मोह भंग हुआ जब एक दिन सावरकर ने उनसे पूछा, “क्या यही वह बहादुरी है, जिसके बारे में तुम बात करते हो?”
इस बात से शर्मिंदा होकर ढ़ीगरा ने सावरकर से दूरी बना ली और ग़ुस्से में, 108-लीडबरी स्ट्रीट में रहने का एक नया ठिकाना ढूंढ़ लिया। कुछ हफ़्तों तक उन्होंने इंडिया हाउस में होने वाली राजनीतिक सभाओं पर नज़र रखी। अपने राष्ट्रवाद के अनुसरण में उन्हें वर्मा, सावरकर, उनके भाई गणेश, वी.वी.एस. अय्यर, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जैसे और कई नेताओं की सोहबत में तसल्ली मिली।
वर्मा के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियां लंदन के अख़बारों की सुर्ख़ियां बनने लगी थीं और वह अंग्रेज़ प्रशासन के निशाने पर आ गए थे। इससे बचने के लिए वर्मा पेरिस चले गए। इंडिया हाउस की ज़िम्मेदारी अब सावरकर के हाथ में थी। सावरकर अप्रवासी भारतीयों के लिए सभाएं करने लगे, जिसमें ढींगरा भी हिस्सा लेते थे। राजनीतिक चर्चा में न सिर्फ़ भारतीय बल्कि आयरलैंड, तुर्की और यहां तक कि रुस के भी क्रांतिकारी हिस्सा लिया करते थे। इंडिया हाउस अभिनव भारत मंडल का भी केंद्र बन गया, जिसकी स्थापना सावरकर ने नासिक में सन 1904 में की थी।
तीस जून सन 1909 को सावरकर के भाई गणेश को देशभक्ति की कविता लिखने और “लघु भारत अभिनव भारत माता” के शीर्षक से प्रकाशित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। इन कविताओं को राजद्रोह माना गया था। इस आरोप में उन्हें अंडमान में आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। इससे लंदन में भारतीय क्रांतिकारियों में रोष फ़ैल गया।
ढ़ींगरा को लगा कि इसके लिए विलियम हंट कर्ज़न वाईली ज़िम्मेदार है, जो लंदन में विद्रोह करने वाले लोगों की शिनाख़्त करने के विभाग का इंचार्ज था। उसका नाम अख़बारों की ख़बरों में नहीं दिया गया था, ताकि वह अपना काम जारी रखे। कहा जाता है कि गणेश की गिरफ़्तारी में वाईली की भागीदारी की बात उसके सहयोगी कीर्तिकर और एम.पी.टी. आचार्य ने उजागर की थी जिन्होने बताया था कि वाईली स्कॉटलैंड यार्ड के साथ मिलकर इस काम को अंजाम दे रहा था।
सीक्रेट पुलिस के काम के अलावा वाईली भारत के उच्च अंग्रेज़ सैन्य अधिकारी का निजी सहायक भी था। दिलचस्प बात ये है, कि इस पद पर आने के पहले वह भारत में कई जगहों पर कई राजनीतिक और सरकारी पदों पर काम कर चुका था। इस दौरान वह ढ़ींगरा परिवार ख़ासकर मदन लाल के पिता और बड़े भाईयों के भी बहुत क़रीब आ गया था।
देशभक्त का उदय
एक जुलाई सन 1909 में नैशनल इंडियन एसोसिएशन, सर अल्फ़्रेड लॉयल (अंग्रेज़ इतिहासकार, कवि, सिविल अधिकारी) की पत्नी लेडी लॉयल के सम्मान में, लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ़ इम्पीरीयल स्टडीज़ में एक समारोह का आयोजन कर रही थी जिसमें वाईली भी आमंत्रित था।
आख़िरकार ढ़ींगरा को मौक़ा मिल ही गया। उन्हें लगने लगा था, सशस्त्र संघर्ष से ही भारत को आज़ाद कराया जा सकता है। सावरकर से एक रिवॉल्वर और दो पिस्तौल हासिल करने के बाद वह टॉटेनहम कोर्ट रोड पर स्थित शूटिंग रेंज में पिस्तौल चलाने का अभ्यास करने लगे। यहां और भी कई भारतीय क्रांतिकारी पिस्तौल चलाने और हत्याएं करने का अभ्यास करते थे।
ढ़ींगरा, एसोसिएशन के सदस्य थे और वाईली को बचपन से जानते थे। उन्होंने अपने बड़े भाई कुंदन से पत्र लिखवाकर वाईली से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। कुंदन कपड़ों का एक सफल व्यापारी था और पिता तथा अंग्रेज़ो के प्रति उसकी वफ़ादारी की वजह से अंग्रेज़ी सर्किल में लोग उसे अच्छी तरह जानते थे। वाईली समारोह के बाद मदन लाल से मिलने पर राज़ी हो गया।
समारोह स्थल जहांगीर हॉल में सब मौजूद थे। रात ग्यारह बजकर बीस मिनट पर जब ढींगरा वाईली से मिलने गए, उन्होंने पिस्तौल निकाला और वाईली पर पांच गोलियां दाग़ दीं। इनमें से चार गोलियां वाईली के चेहरे पर लगी थीं। अस्पताल ले जाते समय ही विली की मृत्यु हो गई। एक भारतीय डाक्टर कावस लालकाका ने वाईली को बचाने का कोशिश की, लेकिन ढ़ींगरा ने उन पर दो गोलियां चला दीं। ढ़ींगरा ने फ़ौरन स्कॉटलैंड पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। गिरफ़्तारी के बाद इस बात की जांच की गई, कि कहीं वह मानसिक रुप से अस्थिर या फिर नशे में तो नहीं था, लेकिन दोनों ही बातें ग़लत निकलीं।
इंग्लैंड में रोष
दो, दस और 13 जुलाई 1909 को यानी तीन दिन चली मुक़दमें की सुनवाई के बाद ढींगरा को मौत की सज़ा सुनाई सुनाई गई। जज ने जब फ़ैसला सुनाया तब उसने पूछा,“तुम्हें मौत की सज़ा क्यों न दी जाए?” जवाब में ढींगरा ने कहा:
“मैंने कई बार आपसे कहा कि मैं अदालत के प्रभुत्व को नहीं मानता। आप जो चाहे वो करें, मुझे परवाह नहीं। आप मुझे मौत की सज़ा दे सकते हैं, मैं परवाह नहीं करता। आप गोरे लोग आज शक्तिशाली हो लेकिन याद रखना, समय आने पर हमारी भी बारी आएगी और तब हम भी वो करेंगे जो चाहते हैं। मुझे अपने देश की ख़ातिर प्राण न्योछावर करने का गर्व है, लेकिन याद रहे आने वाले दिन हमारे होंगे।”
ढ़ींगरा की फांसी की सज़ा इंग्लैंड में राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गई और अख़बार भी इसके ख़िलाफ़ या फिर इसके विरोध में लिखने लगे। लंदन ईवनिंग गैज़ेट ने लिखा कि ढींगरा को फ़ांसी की जगह आजीवन कारावास की सज़ा दी जा सकती है। इंग्लिश मेल ने लिखा कि जेल में ढींगरा आध्यात्मिक किताबे पढ़ता है और अपनी डायरी लिखता है। ढींगरा की भारतीय लोगों ने क़ानूनी मदद की पेशकश की, लेकिन उन्होंने अस्वीकार कर दिया। फांसी के कुछ दिन पहले भजन लाल ढींगरा से मिलने आए थे लेकिन उन्होंने मिलने से मना कर दिया।
17 अगस्त सन 1909 को उत्तर लंदन के पेंटोनविले जेल में ढींगरा को फांसी दे दी गई। फांसी के पहले, जब एक पादरी ने उनसे अंतिम प्रार्थना करने को कहा, तो उन्होंने उसे ये कहकर भगा दिया, कि वह हिंदू है। हैरानी की बात ये थी कि जेल के बाहर बहुत से लोग जमा थे. जिनमें कुछ भारतीय भी थे। कई पत्रकार भी आए थे, लेकिन उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया।
ढ़ींगरा की ख़ुद की और लंदन में रहनेवाले भारतियों की प्रार्थना के बावजूद ढ़ींगरा का अंतिम संस्कार हिंदू रिति-रिवाज से नहीं किया गया। उन्हें फांसी के तुरंत बाद, जेल परिसर में ही दफ़्न कर दिया गया। और उनकी क़ब्र पर एम.एल.डी लिख दिया गया। यह वही जेल थी, जहां 30 जुलाई सन 1940 को सरदार उधम सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया था।
फ़ांसी के बाद
ढींगरा की फांसी की, भारतीय अप्रवासियों और क्रांतिकारियों में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई, लेकिन अंग्रेज़ प्रशासन ने भारतीय क्रांतिकारियों के अड्डे पर कार्रवाई शुरु कर दी जिसकी वजह से सावरकर को सन 1910 में इंडिया हाउस बेचना पड़ा। इस बीच श्यामजी कृष्णा वर्मा, मैडम कामा और सरदार सिंह राणा पेरिस जा चुके थे। वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जर्मनी चले गए थे। इंडिया हाउस में रहने वाले छात्र लाला हरदयाल कई देशों में भूमिगत हो गए और आख़िरकार अमेरिका चले गए जहां उन्होंने न सिर्फ़ इंडिया हाउस बनाया बल्कि ग़दर पार्टी की भी स्थापना की। इंडिया हाउस की शाख़ाएं अमेरिका और जापान जैसे देशों में खुली।
शोहरत या शर्मिंदगी?
पांच जुलाई सन 1909 को कैक्सटान हॉल में भारतीयों और कुछ अंग्रेज़ों की सभा हुई जिसमें ढींगरा के कृत्यों की निंदा की गई। लेकिन एक व्यक्ति ने हाथ उठाकर कहा कि वह इसकी निंदा नहीं करता है। इस विरोध के लिए इस व्यक्ति को पीटकर सभा के बाहर कर दिया गया। ये व्यक्ति और कोई नहीं सावरकर था। टाइम पत्रिका में एक लेख में श्यामजी ने लिखा कि उन्हें वाईली की मौत का अफ़सोस है, लेकिन उन्होंने राजनीतिक संघर्ष के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने का समर्थन किया। सन 1910 में ब्रूसेल्स में हुई इंडो-इजिपश्यिन कॉंफ़्रेंस के दौरान श्यामजी सहित मैडम भीकाजी कामा और सरदार सिंह राणा ने ढींगरा की कार्रवाई के लिए उनकी सराहना की। वह अगस्त सन 1909 में वंदे मातरम के पहले संस्करण का चेहरा थे।
ढींगरा की शहादत का असर न सिर्फ़ भारत में बल्कि आयरलैंड में हुआ, जो ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था। ढींगरा की मौत के दिन लंदन टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया, कि मदन लाल ढींगरा के सम्मान में आयरलैंड के डबलिन और अन्य शहरों में पोस्टकार्ड और तख़्तियां लगाई गईं।
महात्मा गांधी ने 14 अगस्त सन 1909 में इंडियन ओपिनियन पत्रिका में ढींगरा की तीखी आलोचना करते हुए लिखा-
“हिंसा की इस कार्रवाई से अगर अंग्रेज़ चले भी जाएं तो फिर उनकी जगह कौन शासन करेगा?…हत्यारों के शासन से भारत को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, भले ही वो अश्वेत हों या फिर श्वेत…।”
ज़्यादार लोगों को ये नहीं मालूम है, कि ब्रिटेन के भावी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अंग्रेज़ कवि विलफ़्रिड स्कैवेन ब्लंट को एक पत्र लिखकर ढींगरा की तारीफ़ की थी और कहा था कि ढ़ींगरा को भारत में अगले दो हज़ार सालों तक याद किया जाएगा।
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