हिंदू और इस्लाम धर्म में रचे बसे हुसैनी ब्राह्मण

हिंदू और इस्लाम धर्म में रचे बसे हुसैनी ब्राह्मण

कर्बला की लड़ाई इस्लामिक कैलेंडर के 10 मुहर्रम 61 ए एच को दूसरे उमय्यद ख़लीफ़ा यज़ीद-प्रथम की सेनाओं और पैगंबर मुहम्मद के नवासे हुसैन इब्न अली की एक छोटी-सी सेना के बीच लड़ी गई थी। ये लड़ाई इस्लामी इतिहास में एक प्रमुख मोड़ थी। इस लड़ाई में न केवल हुसैन और उनके परिवार का क़त्लेआम किया गया था, बल्कि इससे इस्लाम धर्म में फूट भी पड़ गई थी, जिसका असर आज भी मुसलमान महसूस करते हैं।

बहुत से लोग जानते हैं, कि मुसलमान हर साल इस दुखद घटना की बरसी पर अपने चहेते इमाम हुसैन और उनके परिवार की हत्या का मातम मनाते हैं। शिया समुदाय इस मातम को बहुत ज़्यादा ज़ोर-शोर से मनाता है। लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी, कि एक पंजाबी ब्राह्मण वंश का भी इमाम हुसैन और इस लड़ाई के साथ एक गहरा संबंध है। इस समुदाय के बारे में जानने के लिए, जिसे ‘हुसैनी ब्राह्मण’ कहा जाता है, हमें मध्य पूर्व में सातवीं शताब्दी में लौटना होगा, जब इस्लाम धर्म शुरू हुआ था और उसी के बाद कर्बला की लड़ाई हुई थी।

राहिब सिद्ध दत्त के सात बेटों की कहानी

इस बात का ज़िक्र करना ज़रुरी है, कि इस्लाम के आने के पहले यूरोपीय और एशियाई सभ्यताओं के बीच अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से अरब और मेसोपोटामिया(अब इराक़, कुवैत, तुर्की और सीरिया के बीच बटा इलाक़ा) व्यापारिक केंद्र हुआ करते थे। इसीलिए भारत सहित अन्य देशों के व्यापारी कारोबार के लिए वहां आकर रहने लगे थे।

माना जाता है, कि कई भारतीय हिंदू व्यापारी, जो इस्लाम आने के पहले और बाद में अरब में रहते थे, वे दत्त (अन्य उच्चारणों में दत्ता) परिवार के सदस्य थे, जो कि सारस्वत ब्राह्मणों का मोहयाल समुदाय था।

ये पंजाब से अरब गये थे। ऐसा कहा जाता है, कि ये समुदाय आर्थिक रुप से बहुत समृद्ध था। तत्कालीन इस्लामी ख़लीफ़ा हज़रत अली ने सन 656 ईस्वी में हुई जंग-ए-जमल (बसरा का युद्ध) में जाते वक़्त सरकारी ख़ज़ाने की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी इस समुदाय को सौंपी थी।

कथाओं के मुताबिक़ दत्त ब्राह्मणों में राहिब सिद्ध दत्त नाम का एक प्रसिद्ध प्रमुख था, जो पैग़ंबर मुहम्मद के परिवार के बहुत क़रीब था। कहा जाता है, कि दत्त की कोई औलाद नहीं थी। वह बेटे की आस लिये हज़रत अली के बेटे और पैगंबर मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन के पास गया। इमाम ने दत्त से कहा, कि उनके नसीब में संतान सुख नहीं है। ये सुनकर दत्त रोने लगा। लेकिन इमाम हुसैन ने दिलासा देते हुए कहा, कि उनकी जल्द ही एक संतान होगी।

इस मौक़े पर मौजूद एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने इमाम की इस बात पर सवाल उठाते हुए कहा, कि उन्होंने अल्लाह की इच्छा को चुनौती दी है। यह सुनकर इमाम ने दत्त से कहा, कि उनकी एक और संतान होगी। यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक इमाम ने उसे सात बच्चों की ख़ुशख़बरी नहीं दे दी। जल्द ही, दत्त की इच्छा पूरी हो गई और वह सात बेटों का पिता बन गया, जिसे वह इमाम की दुआ का असर मानता था।

हालांकि इस दावे के सबूत को तौर पर कोई ख़ास ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं हैं, लेकिन दत्त परिवार के वंशजों में ये कहानी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है।

कर्बला की जंग

कर्बला के युद्ध के बारे में बताने से पहले इसकी पृष्ठभूमि जानना ज़रूरी है। ये जानना ज़रुरी है, कि सन 632 ईस्वी में पैग़ंबर मुहम्मद की मृत्यु के बाद ख़लीफ़ा के पद के लिये उत्तराधिकारियों में संघर्ष हुआ। ख़लीफ़ा मुसलमानों और ख़िलाफ़त का नेता होता था। तीन उत्तराधिकारियों के ख़लीफ़ा बनने और उनकी हत्या के बाद पैग़ंबर मुहम्मद के पहले चचेरे भाई और दामाद हज़रत अली को सन 656 ईस्वी में ख़लीफ़ा का पद दिया गया।

कर्बला की जंग- अब्बास अल-मौसावी-19वीं सदी का अंत-20वीं सदी की शुरुआत | ब्रूकलिन म्यूज़ियम

ख़लीफ़ा के रूप में पांच साल तक सेवा करने के बाद, सन 661 ईस्वी में अली की हत्या कर दी गई। हत्या की साज़िश ख़रिजी समुदाय ने रची थी। अली की मृत्यु के बाद, उनके कई समर्थकों ने अगले ख़लीफ़ा के लिये उनके बड़े बेटे हसन का समर्थन किया, और इस तरह हसन ख़लीफ़ा बन गये।

लेकिन उस समय खिलाफ़त के सीरियाई सूबेदार मुआविया-प्रथम ने ख़ुद को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया था। मुआविया ने, लेवेंट (मौजूदा समय में लेबनान, जार्डन, इराक़, फ़लस्तीन और मिस्र) पर नियंत्रण कर लिया था। उसने अपनी सेना इराक़ भेज दी, जो इमाम हसन का सत्ता केंद्र होता था। इसके बाद युद्ध शुरू हुआ, और मुआविया ने धीरे-धीरे हसन की सेना के सिपेहसालारों और कमांडरों की हत्या कर दी। इस बीच हसन की सेना ने हसन के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी, और हसन को मुआविया के साथ मजबूरन शांति संधी करनी पड़ी। हसन ने मुआविया को इस शर्त के साथ ख़लीफ़ा का पद दे दिया था, कि वह अपना उत्तराधिकारी नियुक्ति नहीं करेगा, और इस्लाम के अनुसार काम करेगा।

इसके बाद हसन राजनीति और मुआविया से दूरी बनाने के लिये अपने भाई हुसैन के साथ मदीना चले गये, जहां सन 670 ईस्वी में उनकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है, कि उनकी पत्नी जअदह बिंत एल-अशअत ने मुआविया के कहने पर हसन को ज़हर दिया था।

हसन की मृत्यु के बाद उनके समर्थकों ने उनके छोटे भाई हुसैन को अपना नया इमाम यानी अपना नेता घोषित कर दिया। दूसरी ओर मुआविया मुसलमानों के बीच बदनाम होता जा रहा था। उसने अपने बेटे यज़ीद-प्रथम को अपने अत्तराधिकारी के रुप में ख़लीफ़ा भी घोषित कर दिया जो, कि हसन के साथ की गई संधि का साफ़ उल्लंघन था।

सन 680 ईस्वी में मुआविया की मृत्यु के बाद, भारी विरोध के बावजूद उनका बेटा यज़ीद-प्रथम  ख़लीफ़ा बन गया। यज़ीद-प्रथम ने वैधता हासिल करने के लिए हुसैन की ओर रुख़ किया, जो पैग़ंबर मुहम्मद के नवासे थे। लेकिन इमाम हुसैन उसके चक्कर में नहीं पड़े, और मदीना छोड़कर उन्होंने मक्का में शरण ले ली। उनका मानना था, कि यज़ीद सार्वजनिक रूप से इस्लाम की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ काम कर रहा था, औरपैग़ंबर की सुन्नत (पैग़म्बर मुहम्मद के तौर तरीक़े) को भी बदल रहा था।

मक्का में हुसैन को कूफ़ा (वर्तमान में इराक़) से कई पत्र मिले, जिसमें उन्हें यज़ीद के ख़िलाफ़ बग़ावत का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था। आख़िरकार वे अपने परिवार के सदस्यों और अन्य लोगों के साथ कूफ़ा रवाना हो गये। इस कारवां में हुसैन के परिवार के 72 सदस्यों सहित 200 पुरुष और महिलाएं शामिल थीं। लेकिन कर्बला के पास उनके कारवां को यज़ीद की सेना ने रोक दिया, और हुसैन के शिविर को घेर लिया था। इस वजह से गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई।

यज़ीद के लगातार समझाने के बावजूद जब हुसैन नहीं माने, तो उसने हुसैन के ख़िलाफ़ युद्ध करने का फ़ैसला कर लिया। यज़ीद को मालूम था, कि पैग़ंबर के अपने ‘ख़ून’ को मारने से उसे जनता के ग़ुस्से का सामना करना पड़ेगा। फिर भी यज़ीद ने हुसैन के क़ाफ़िले पर हमला कर दिया। कर्बला की लड़ाई में यज़ीद की काफ़ी बड़ी सेना ने हुसैन को उसके परिवार और साथियों के साथ क़त्ल कर डाला, और महिलाओं तथा बच्चों को बंदी बना लिया।

कर्बला में राहिब दत्त

कहा जाता है, कि जल्द ही यह ख़बर ख़ालिफ़त के विभिन्न हिस्सों में फैल गई, कि इमाम हुसैन मक्का से कूफ़ा कूच कर गये हैं। यह ख़बर राहिब दत्त तक भी पहुंच गई। वह अपने सात बेटों के साथ, जो उस समय तक वयस्क नहीं थे, इमाम की तलाश में निकल पड़ा, जिनके साथ वो यज़ीद के ख़िलाफ़ लड़ाई करना चाहता था। लेकिन जब तक वो कर्बला पहुंचा, इमाम की हत्या कर दी गई थी, और कर्बला के मैदान में उनका शव पड़ा हुआ था।उनके सिर को यज़ीद के सैनिक अपने साथ ‘विजय ट्रॉफी’ के रूप में ले जा चुके थे।

एक कहानी के अनुसार दत्त और उनके बेटों ने प्रांतीय राजधानी कूफ़ा तक यज़ीद के सैनिकों का पीछा किया, जो इमाम हुसैन का सिर लेकर वापस जा रहे थे। दत्त ने गुप्त रूप से इमाम हुसैन के सिर को हासिल किया, उसे श्रद्धापूर्वक धोया और फिर उसे अपने साथ ले गये।

कहा जाता है, कि रास्ते में रात के पड़ाव के दौरान यज़ीद के लोगों ने राहिब दत्त को घेर लिया और उनसे इमाम हुसैन का सिर मांगा। लेकिन क्योंकि राहिब अपने बेटों को मरहूम इमाम का आशीर्वाद मानते थे, इसीलिए उन्होंने इमाम के सिर के बजाय अपने एक बेटे का सिर काट कर उन्हें दे दिया। उन्होंने कहा, कि यह हुसैन का सिर नहीं है। फिर दत्त ने अपने दूसरे बेटे का सिर काट कर दिया लेकिन वह फिर बोले कि यह इमाम हुसैन का सिर नहीं है। इस तरहराहिब ने अपने सभी सात बेटों का सिर काट दिये, लेकिन उन्होंने दुश्मनों को इमाम का सिर नहीं सौंपा। उन्होंने दमिश्क आकर इमाम हुसैन के सिर को सम्मानजनक तरीक़े से दफ़्न कर दिया। कई जगह यह भी कहा गया है, कि बाद में इमाम हुसैन का सिर दमिश्क से लाकर उनके शरीर से जोड़ा गया, और शव को कर्बला में दफ़नाया गया।

कर्बला में इमाम हुसैन की दरगाह

यह जानना भी ज़रुरी है, कि सन 683 ईस्वी में कर्बला में हुए क़त्लेआम के तीन साल बाद हालांकि यज़ीद-प्रथम की मृत्यु हो गई थी, लेकिन उसने भी मरने से पहले अपने बेटे को ख़िलाफ़त सौंप दी थी। स्वर्गीय इमाम हुसैन के कई समर्थकों ने मुख़्तार अल-थक़ाफ़ी के नेतृत्व में कूफ़ा में बग़ावत कर दी। कूफ़ा ही हज़रत अली की ख़ालिफ़त की राजधानी हुआ करती थी । उस बग़ावत में दत्त परिवार के कई लोग जुड़ गये, क्योंकि वह इमाम की हत्या का बदला लेना चाहते थे।

विद्रोह अपने चरम पर, ख़ाज़िर (सन 686) की लड़ाई में आया, जो मुख़्तार अल तक़फ़ी के बाग़ियों और कूफ़ा के सूबेदार उबैद अल्लाह इब्न ज़ियाद के नेतृत्व में ख़लीफ़ा की सेना के बीच लड़ा गया था। उबैद अल्लाह इब्न ज़ियाद कर्बला की जंगमें यज़ीद की सेना का कमांडर था। ख़ाज़िर की लड़ाई में मुख़्तार की जीत हुई, और उबैद अल्लाह मारा गया। मुख़्तार और उनके समर्थकों ने उबैद अल्लाह की मौत को, कर्बला में हुसैन इब्न अली की हत्या में उसकी भूमिका के लिए इंसाफ़ के रूप में देखा, और माना, कि उन्होंने आख़िरकार अपने नेता की मौत का बदला ले ही लिया।

हालांकि जंग के बाद कूफ़ा के आसपास के क्षेत्र पर अब बाग़ियों का क़ब्ज़ा हो गया था, लेकिन एक कहानी के अनुसार, राहिब दत्त, इमाम और उनके बेटों की मौत से दुखी थे, और वह अपने क़बीले के साथ मध्य-पूर्व एशिया छोड़कर, अपनी मातृभूमि भारत वापस आ गये। हालांकि कुछ ब्राह्मण वहीं रुके रहे, जहां मुख़्तार अल-तक़ाफ़ी ने उनके लिए शहर के एक खास हिस्से में रहने की व्यवस्था की थी। इसे आज भी दयार-ए-हिंदिया या ‘इंडियन क्वार्टर’ के नाम से जाना जाता है।

मोहर्रम का जुलूस | पी.टी.आई.

दत्त परिवार की यह कहानी पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाती रही है। टी. पी. रसेल स्टेसी की किताब, द हिस्ट्री ऑफ़ द मुहियाल्स: द मिलिटेंट ब्राह्मण रेस ऑफ़ इंडिया (1911) में कहा गया है, कि क़बीले की शायरी से पता लगता है, कि दत्तों के पूर्वज कभी अरब में रहते थे। उन्होंने हज़रत अली के वंशजों और अनुयायियों के ख़िलाफ़ अमीर मुआविया के बेटे यज़ीद सुल्तान के बीच हुई कर्बला की जंग में भाग लिया था। वे पैगंबर के शहीद नवासे हसन और हुसैन के दोस्त थे। इससे जुड़ी घटनाएं हर मुहर्रम में शियाओं के जुलूस में दिखाई देती हैं। स्ट्रैसी आगे इस क़बीले की भारत वापसी के बारे में बताते हैं:

“जब राजकुमारों का पतन हुआ तो राहिब दत्त नाम के एक बहादुर योद्धा ने पूरी ताक़त से बाक़ी बचे लोगों की सुरक्षा की हालांकि वह इसमें नाकाम रहे। उनके दल के क़त्लेआम के बाद उन्हें और बाक़ी बचे लोगों के साथ फ़ारस और कंधहार के रास्ते भारत वापस आने पर मजबूर होना पड़ा।”

भारत के हुसैनी ब्राह्मणों की विरासत

यह जानना भी ज़रूरी है, कि भारत वापसी के बाद, दत्त समुदाय, दीना नगर, सियालकोट और लाहौर जैसे शहरों सहित पंजाब क्षेत्र में बस गये थे। क्योंकि वे व्यापारी और पढ़े-लिखे थे, इसलिये वे राजस्थान के अजमेर जैसे शहरों के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में भी जा बसे। उनमें से कई लोगों ने विभिन्न क्षेत्रीय रियासतों में शाही नौकरियां भी की।

दत्त समुदाय ने इमाम हुसैन और कर्बला में उनके बलिदान का सम्मान करना जारी रखा और इस तरह उनका नाम ‘शिया ब्राह्मण’ पड़ गया, जिसे ‘हुसैनी ब्राह्मण’ के रूप में अधिक शोहरत मिली। उन्हें ‘सुल्तान’ भी कहा जाता था। यह समुदाय, ऐतिहासिक रूप से अक्सर आधा-हिंदू और आधा-मुस्लिम माना जाता था, और उनके साथ कई जुमले भी जुड़ गये थे, जैसे “वाह दत्त सुल्तान, हिंदू का धर्म, मुसलमान का ईमान”, और लोक कथाओं में उनके बारे यह भी कहा जाता था, “दत्त सुल्तान न हिंदू न मुसलमान”।

यह बात आमतौर पर जानी जाती है, कि कश्मीर घाटी में श्रीनगर के पास हज़रतबल की मशहूर दरगाह में एक अवशेष, मु-ए-मुक़्क़दस मौजूद है, जिसे पैग़ंबर मुहम्मद का बाल माना जाता है। हालांकि ज़्यादातर लोग मानते हैं, कि ये अवशेष पहली बार पैग़बर मुहम्मद के एक कथित वंशज सैयद अब्दुल्लाह, कश्मीर लाये थे। सैयद अब्दुल्लाह, सन 1635 ईस्वी में मदीने (वर्तमान सऊदी अरब) से आकर दक्षिण भारतीय शहर बीजापुर में बस गए थे, लेकिन कुछ लोगों का दावा है, कि 7वीं या 8वीं शताब्दी में राहिब दत्त या उनके क़बीले के किसी व्यक्ति के साथ ये अवशेष भारत आये थे।

हज़रतबल दरगाह | विकीमीडिया कॉमंस

स्थानीय इतिहास, ज़बानी बयानों में और ब्रिटिश एंथनोग्राफ़ी यानी नस्ल-विज्ञान साहित्य में दर्ज नोहों और मरसियों में हुसैनी ब्राह्मणों में कर्बला और मुहर्रम की अहमियत का ज़िक्र मिता है:

लारियो दत्त दल खेत जी तिन लोक शका परह्यो,
चारह्यो दत्त दल गाह जी गढ़ कूफ़ा और लुट्टयो।
बाजे भीर को छोट फतेह मैदान जो पाई,
बदला लिया हुसैन, धन धन करे लुकाई।
रहीब की जो जद्द नसल हुसैन जो ऐ,
दीये सत फरजंद भाई काबुल कमाई।
जो हुसैन की जद्द है दत्त नाम सब धियायो,
अरब शहर के बिच में रहिब तख्त बैठायो।

 

(दत्त योद्धा अकेले मैदान में बहादुरी से लड़े,
वीर दत्त ने जाकर कूफा के किले को लूट लिया।
जब वे [लड़ाई] मैदान जीत गए, तो ढोल पीटा गया,
हुसैन का बदला लिया गया और लोग खुशी से झूम उठे।
रहीब [दत्त] ने हुसैन की ख़ातिर अपने कबीले को सौंप दिया,
अपने सात बेटों की बलि दी, उनकी सबसे कीमती बारात।
ओ, हुसैन की संतान! अपने पिता के मित्र को मत भूलना,
राहिब एक बार तुम्हारे पिता के अंत में अरब के शहर में विराजमान था।)

यह भी कहा जाता है, कि ये दत्त ब्राह्मण आज भी इमाम के लिए कर्बला में की गई क़ुरबानी के प्रतीक के रूप में अपने गले पर कटे हुये ज़ख़्म का निशान बनाते हैं। हालांकि इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है, लेकिन समुदाय के कई लोगों का दावा है कि उनके गले पर कटे का निशान पैदाइशीहोता है।

हुसैनी ब्राह्मणों का मानना ​​​​है, कि भगवद गीता में भगवान कृष्ण ने कर्बला में इमाम की मृत्यु की घटना की भविष्यवाणी कर दी थी। उनके अनुसार अठारह पुराणों में से अंतिमकल्कि पुराण और चौथे वेद अथर्ववेद में इमाम हुसैन का कलियुग (वर्तमान युग) के दिव्य अवतार के रूप में उल्लेख है। वे इमाम हुसैन के पिता यानी पैगंबर मुहम्मद के दामाद चचेरे भाई इमाम अली का बहुत सम्मान करते हैं, और उन्हें ‘ओम मूर्ति’ के सम्मानजनक नाम से याद करते हैं।

सन 1940 के दशक तक हुसैनी ब्राह्मण, मुहर्रम के अवसरपर इमाम हुसैन के लिए राहिब दत्त के बेटों की क़ुरबानी को याद करते थे। सामुहिक रूप से मुहर्रम का शोक मनाया जाता था, और उस अवसर पर हुसैनी ब्राह्मण हमेशा मौजूद रहते थे।

हुसैनी ब्राह्मण समुदाय, पंजाब का दौलतमंद और मशहूर समुदाय हुआ करता था। यह समुदाय राजधानी लाहौर सहित पंजाब के कई बड़े शहरों में फैला हुआ था। समुदाय के कई लोग लाहौर के मुहल्ला मौलियान में रहते थे। मुहल्ला मौलियान के बाद, यह लोग मोची गेट इलाक़े में जा बसे थे। फिर सन 1947 तक वहीं रहे।

आजादी के बाद और आज के हुसैनी ब्राह्मण

लेकिन सन 1947 में भारत के, विभाजन के रूप में समुदाय को एक बड़ा धक्का लगा। विभाजन ने इस समुदाय की क़िस्मत के दरवाज़े बंद कर दिये, क्योंकि वे न तो इधर के पंजाब के रहे और न ही उधर के पंजाब के। पाकिस्तानी पंजाब में जहां उन्हें ग़ैर-मुस्लिम माना जाता था, वहीं भारतीय पंजाब में उन्हें मुसलमानों के क़रीब माना जाता था। इस तरह वे विभाजन की सांप्रदायिक हिंसा के शिकार बन गये, मुस्लिम और हिंदू-सिख बहुल क्षेत्रों में उनके घरों को लूटा गया और आग लगा दी गई।

विभाजन के बाद पाकिस्तानके पंजाब में आज कोई हुसैनी ब्राह्मण नहीं रहता है, और इस तरह वहां मुहर्रम का जुलूस निकालने की संस्कृति का अंत हो गया। भारत के पंजाब में भी ज़्यादा मुसलमान, जिनमें शिया मुसलमान भी शामिल हैं, पाकिस्तान चले गए। अब भारत के पंजाब में रहने वाले ज़्यादातर शिया मुसलमान पंजाबी नहीं हैं, बल्कि वे रोज़गार की तलाश में उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले प्रवासी हैं। इनमें से ज़्यादातर हुसैनी ब्राह्मण समुदाय के योगदान और सम्मान से अनजान हैं। इसके अलावा, विभाजन के बाद बिरादरी के कई सदस्य दूसरे राज्यों में चले गए थे। बाक़ी जो यहां रह गये हैं, उनमें से बहुत कम लोग मुहर्रम मनाते हैं।

लेकिन भी आज कई हुसैनी ब्राह्मणों ने अपने बुज़ुर्गों की विरासत को जारी रखा है, और वे दो समुदायों के बीच एक पुलका काम करते हैं। मशहूर फिल्म निर्देशक जे पी दत्ता, वरिष्ठ सैन्य अधिकारी मेजर जनरल आर एन छिब्बर, अभिनेता साहिल वैद, आदि हुसैनी ब्राह्मण हैं। वहीँ मशहूर बॉलीवुड अभिनेता सुनील दत्त भी एक पंजाबी हुसैनी ब्राह्मण थे, और उनके ससुर मोहनचंद उत्तमचंद भी हुसैनी ब्राह्मण थे, जिन्होंने बाद में इस्लाम धर्म अपना कर अपना नाम अब्दुल राशिद रख लिया था। अब्दुल राशिद की बेटी प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री नरगिस थीं, जिन्होंने सुनील दत्त से शादी की थी। इनके अभिनेता संजय दत्त सहित तीन बच्चे हैं।

बॉलीवुड का मशहूर हुसैनी ब्राह्मण परिवार- सुनील दत्त, नरगिस और संजय दत्त

यह भी पता होना चाहिये, कि कुछ साल पहले सुनील दत्त ने लाहौर (अब पाकिस्तान में) के शौकत ख़ानम मेमोरियल कैंसर अस्पताल को अच्छी ख़ासी रक़म दान की थी। उस मौक़े पर उन्होंने कहा था, “मेरे बुज़ुर्गों की तरह लाहौर के लिए मैं अपने ख़ून की एक-एक बूंद बहा दूंगा, और जो भी दान मांगा जाएगा, दूंगा, जैसे मेरे बुज़ुर्गों ने हज़रत इमाम हुसैन के लिए कर्बला में अपनी जानें न्यौछावर की थी”।

हुसैनी ब्राह्मण क़बीले को आज भी दो समुदायों के बीच, सहयोग के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है।

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