भारत के भूगर्भीय अजूबे

भारत के भूगर्भीय अजूबे

भारत अपने समृद्ध इतिहास और संस्कृति के लिए जाना जाता है लेकिन इसका दिलचस्प और विविध भू-इतिहास भी रहा है जिसे वो पहचान नहीं मिली है जो मिलनी चाहिए थी। क्या आपको पता है कि बेंगलुरु के पास आप पृथ्वी की एक ऊपरी तह को छू सकते जो क़रीब साढ़े तीन बिलियन साल पुरानी है और ये कि हमारे यहां गुजरात में विश्व का तीसरा सबसे पुराना डायनोसोर उत्खनन क्षेत्र है?

भारत में कई भूगर्भीय अजूबे हैं लेकिन दुर्भाग्य से इनमें से कुछ ही ऐसे भूगर्भीय क्षेत्र हैं जो भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के तहत संरक्षित हैं, बाक़ी सब उपेक्षित हैं। लेकिन सवाल ये है कि हमनें अपनी भूगर्भीय संपदा को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की ?

भारत के भूविज्ञान को समझने और इससे संबंधित जागरुकता के मुद्दों तथा संरक्षण को जानने के लिए हमने हमारे हेरिटेज मैटर्स कार्यक्रम के सत्र में, इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को परिचर्चा के लिए आमंत्रित किया।। इस परिचर्चा में संरक्षकवादी आलिया बाबी, एम.एल.सी. यूनिवर्सिटी उदयपुर के, भूविज्ञान के सेवानिवृत्त प्रो. डॉ. पुष्पेंद्र सिंह राणावत, इंटेक के जियोहेरिटेज सेल के सलाहकार डॉ. डी. राजशेखर रेड्डी और शोधकर्ता बिदीशा बायन ने हिस्सा लिया। हमारी भूगर्भित विरासत को मान्यता दिलाने और उन्हें बचाने की मुहिम में शामिल इन लोगों से बात कर हमें यह समझने में मदद मिली कि दरअसल समस्या क्या है और भारत में ऐसी अनेक जगहों को बचाने तथा बढ़ावा देने के लिए क्या करने की ज़रुरत है।

भारत की भूगर्भित संपदा और आज इनकी स्थिति?

भारत की भूगर्भित संपदा को समझने के लिए सबसे पहले ये समझना ज़रुरी है कि इसकी शुरुआत कहां से हुई। डॉ. राणावत और बिदीशा से हमने यह समझा कि हमारा भारतीय उप-महाद्वीप कितना पुराना है। उन्होंने उप-महाद्वीप के भूविज्ञान के इतिहास के बारे में भी बताया। हमारी पृथ्वी साढ़े चार मिलियन वर्ष पहले अस्तित्व में आई थी। शुरु में कोई महाद्वीप नहीं था लेकिन बाद में क़रीब तीन सौ मिलियन साल बाद पृथ्वी के कई हिस्से जुड़कर महाद्पीव पैंजिया बन गए।

कैसे बना भारतीय उप-महाद्वीप | LHI

क़रीब दो सौ मिलियन साल बाद महाद्वीप लॉरेशिया और गोंडवाना में बंट गए। मध्य भारत के प्रांत गोंडवाना के नाम पर रखे गए नाम गोंडवाना में मौजूदा समय के अफ़्रीका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्टिका, भारतीय उप-महाद्वीप और यहां तक कि मैडगास्कर शामिल थे।

160-180 मिलियन सालों के बाद ये महाद्वीप भी विभक्त होने लगा। इस प्रक्रिया में दस लाख साल लग गए । गोंडवाना के बाक़ी हिस्से से छिटकने के बाद भारत और मेडागास्कर पूर्व दिशा की तरफ़ खिसकने लगे। क़रीब 80-90 मिलियन साल के बाद ये दोनों हिस्से अलग हो गए। इसके बाद भारतीय प्लेट का पूर्व की दिशा में खिसकना जारी रहा और क़रीब 50 मिलियन साल बाद ये आख़िरकार यूरोशिया प्लेट से टकरा गई जिससे एक रचना बनी जबकि चट्टान जैसे पुराने ढांचे बरक़रार रहे।

नंदी पहाड़ियां धारवाड़ क्रेटन का हिस्सा हैं

आज भारत में हम जो प्राकृतिक अजूबे देखते हैं वे लाखों सालों के भौगेलिक कायाकल्प के ही नतीजे हैं। इन्हीं में से एक अजूबा है धारवाड़ क्रेटन (चट्टान) जिसका उल्लेख बिदीशा ने किया। क्रेटन पृथ्वी की परत का वह हिस्सा है जिसमें अरबों सालों तक कोई बदलाव नहीं हुआ । कर्नाटक में नंदी पहाड़ियां धारवाड़ क्रेटन का हिस्सा हैं जो भारतीय ज़मीन के आरंभिक बिल्डिंग ब्लॉक हैं। ये विश्व की सबसे पुरानी चट्टानों में से एक हैं। ये लगभग साढ़े तीन अरब साल पुरानी हैं। इसके अलावा भारत में और भी कई भूगर्भित अजूबे हैं जैसे गुफाएं, दर्रे, खनिज वाले स्थान और चट्टानें आदि। हम में से कई लोगों को ये नहीं पता है कि जिस समय में हम रह रहे हैं उसे आधिकारिक रुप से मेघालयन युग कहा जाता है। मेघालय राज्य में चूना पत्थर और बालू पत्थर की क़रीब 1700 गुफाएं हैं जो 491 कि.मी. क्षेत्र में फैली हुई हैं। विश्व की सबसे लंबी बालू पत्थर की गुफा भी मेघालय में है।

मेघालय की एक गुफ़ा | रॉबी शों 

भूविज्ञान के मामले में राजस्थान और गुजरात जैसे राज्य बहुत समृद्ध हैं और यही वजह है कि यहां कई साम्राज्य ख़ूब फूलेफले। राजस्थान में उदयपुर के पास ज़ावर में जस्ते की कई खानें हैं और इसे ब्रिटिश म्यूज़ियम ने जस्ता प्रगलन की की पहली खान के रुप मे मान्यता भी दी है। लेकिन हैरानी की बात ये है कि ये आज भी भारत में संरक्षित क्षेत्रों में शामिल नहीं है।

क्या आपको पता है कि भारत में तीस तरह के डायनासॉर होते थे? गुजरात के बालासिनोर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी डायनासॉर स्फुटनशाला और उत्खनन क्षेत्र है। आलिया बाबी ने इस क्षेत्र के विकास के लिए काम किया है और आज यहां बालासिनोर डायनासॉर पार्क है जो आज भी कई जीवाश्म की जन्मभूमि है। यहां हर साल बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं। बालासिनोर पार्क हालंकि बहुत प्रसिद्ध है लेकिन भारत के बाक़ी भूगर्भित स्थान आज भी उपेक्षित हैं।

बालासिनोर पार्क | LHI

काफ़ी लंबे समय से जियो हेरिटेज उपेक्षा का शिकार रही है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण गठन सन 1851 में हुआ था। उसने पिछले वर्षों में राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारकों के रुप में सिर्फ़ 32 भूवैज्ञानिक स्थलों की पहचान की है। इनमें से ज़्यादातर भूगर्भित समृद्ध राज्सथान, ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और तमिलनाडू जैसे राज्यों में हैं। राजस्थान में दो स्थानों की, जियो हेरिटेज स्थलों के रुप में पहचान की गई है लेकिन आधिकारिक रुप से इसकी घोषणा होना बाक़ी है। भारत मे एक भी जियोपार्क नहीं है। डॉ. रेड्डी ने बताया कि जियोपार्क है क्या और कहा, “जियोपार्क भूविज्ञान नहीं है, ये भूविज्ञान केंद्रित पार्क है। इसमें एक या दो महत्वपूर्ण भूगर्भित और सांस्कृतिक तथा पुरातात्विक स्थान हो सकते हैं।” डॉ. रेड्डी और डॉ. राणावत जैसे लोगों ने भारत मे जियोपार्क के विकास के लिए मुहिम चला रखी है।

दुर्भाग्य से भूगर्भित स्मारक के रुप में घोषणा के अलावा भारत की इन अनमोल विरासतों को बचाने के लिए कुछ ख़ास नहीं किया गया है। आख़िर क्यों?

हमारे विशेषज्ञ इस बात पर एकमत थे कि इस उपेक्षा की मुख्य वजह जागरुकता की कमी है। लोगों को ये तक नहीं मालूम कि भारत में इस तरह की भू-संपदा भी होती है। डॉ. राणावत ने कहा- “स्कूल में भूविज्ञान नहीं पढ़ाया जाता और इसलिए लोगों में जागरुकता नहीं है। हालंकि लोग रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भूविज्ञान का इस्तेमाल करते हैं लेकिन फिर भी उनमें जागरुकता नहीं है। इसे लोकप्रिय बनाने की ज़रुरत है।” बालासिनोर पार्क का ज़िक्र करते हुए आलिया ने कहा कि पहले स्थानीय लोगों को डायनासॉर के बारे में पता ही नहीं था। “गांव वाले अनभिज्ञ थे, उन्हें पता ही नहीं था कि डायनासॉर क्या था। इसलिए पहले हमें इस प्रागैतिहासिक जीव के महत्व के बारे में बताना पड़ा जो उनके लिए एक चट्टान मात्र था क्योंकि उन्हें इसमें जीव दिखा ही नहीं। इसलिए हमें उन्हें बताना पड़ा कि डायनासोर क्या था।”

इस मामले में नियम-क़ानून का अभाव भी एक मसला है। आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में भूगर्भीय स्थानों के संरक्षण के लिये कोई क़ानून नहीं है। भू-धरोहर अथवा भू-विविधता के लिए हमारे देश में कोई क़ानून नहीं है। भू-धरोहर की दुर्दशा के बारे में बात करते हुए बिदीशा ने कहा, “हमारे देश में जेव विविधता क़ानून है जिसके अनुसार हम पौधे या फिर पौधों की ख़ास क़िस्म देश के बाहर नहीं ले जा सकते लेकिन हमारे यहां भू-विविघता क़ानून नहीं है। यहीं हम पिछड़ रहे हैं। बिना भू-विविधता क़ानून के अगर कोई जीवाश्म देश के बाहर ले जाना चाहे को तो कोई उसे रोक नहीं सकता। एक समय तो लोगों ने डायनासॉर के अंडे सैलानियों को 500 रुपये में बेचे थे…ये बहुत शर्मनाक है…”

बिना संरक्षण के इन स्थलों में चोरी और तोड़फोड़ होती रहती है। यहां से लोग चट्टानें और जीवाश्म चुरा कर ले जाते हैं और उन पर किसी का बस नहीं है। प्राकृतिक क्षरण और क्षति भी एक समस्या है। आधुनिकीकरण, गैरक़ानूनी या अधिक खनन, निर्माण और चट्टानों की तुड़ाई से भी हमारे प्राकृतिक संसाधनों और हमारे बहुमूल्य स्थलों को नुकसान हो रहा है। इनमें से ज़्यादातर स्थल, जो प्राकृतिक रचान हैं, खुले में हैं और इन्हें सुरक्षित रखने का कोई इंतज़ाम नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो हम इन महत्वपूर्ण स्थानों को खो देंगे।

हम अपनी भू-धरोहर को कैसे बचा सकते हैं?

हमारे विशेषज्ञों के सुझावों और कथन के आधार पर ये ऐसे कुछ उपाय हैं जिसके द्वारा हम हमारी भू-धरोहर को संजो सकते हैं और सुरक्षित रख सकते हैं।

1- शिनाख़्त, सुरक्षा, प्रोत्साहन

डॉ. राणावत ने हमारी भू-धरोहर के संरक्षण के लिए यह मंत्र दिया है। उन्होंने कहा कि सबसे पहले हमें महत्वपूर्ण स्थानों की पहचान करनी चाहिए और फिर उसके संरक्षण की दिशा में काम करना चाहिए। स्थान की शिनाख़्त औऱ उसके संरक्षण के बाद स्थानीय लोगों को इन स्थानों के महत्व के बारे में जागरुक करना चाहिए।

2- जागरुकता अभियान

ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण के लिए जागरुकता बहुत ज़रुरी है। स्थानीय लोगों को उनके क्षेत्र में मौजूद स्थानों के प्रति संवेदनशील बनाने की ज़रुरत है। एक बार जब उन्हें इनका महत्व समझ आ जाएगा तब इन स्थानों को बढ़ावा देने की की मुहिम में शामिल किया जा सकता है। डॉ. रेड्डी ने बताया कि कैसे उनकी टीम ने विशाखापत्तनम में य़र्रमट्टी दिब्बालू और नैचुरल आर्क के लिये फ़ोटोग्राफ़ी आदि जैसी प्रतियोगिताओं में वाइज़ेग में स्थानीय स्कूल के बच्चों, फ़ोटोग्राफ़र्स, कलाकारों और पत्रकारों शामिल किया था।

य़र्रमट्टी दिब्बालू | विकिमीडिआ कॉमन्स 

3.हमारी स्थलों और धोरहरों की सुरक्षा के लिए क़ानून

हमारे सभी विशेषज्ञ इस बात पर एकमत थे कि भारत में भूगर्भीय स्थलों की सुरक्षा के लिए क़ानून ज़रुरी हैं। बिना क़ानून और दिशा-निर्देश के इन स्थलों में चोरी और तोड़फोड़ होती रहेगी। बिदीशा ने भू-धरोहर के क़ानूनी मसौदे पर काम किया है। उनका कहा कि उनके जैसे स्वयंसेवी क़ानून का मसौदा तो बना सकते हैं लेकिन सरकार और क़ानूनी विभाग ही इसे बेहतर तरीक़े से बनाकर इसका पालन करवा सकते हैं।

4. चिरस्थाई पर्यटन

बालासिनोर डायनासॉर परियोजना से प्रेरणा लेते हुए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि ये चिरस्थाई पर्यटक स्थल बनें। भारत के बाहर अमेरिका के भव्य कैनियन (दर्रा) जैसी धरोहर सैलानियों के लिए बड़े आकर्षण का केंद्र है।

भारत के कई हिस्सों में ऐसे लोग हैं जो इन स्थलों और जियो पार्क के विकास के लिए अपनी क्षमता के हिसाब प्रयत्नशील हैं लेकिन समय आ गया है कि सरकार को भी आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करनी चाहिए।

ये सत्र अंग्रेज़ी में हमारे चैनल पर दिखाया गया है। आप इस सत्र की पूरी परिचर्चा अंग्रेज़ी में यहां देख सकते हैं-

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