तिरुचेंदूर मंदिर – जो कभी होता था एक डच क़िला

तिरुचेंदूर मंदिर – जो कभी होता था एक डच क़िला

सदियों से भारत के मंदिरों का विविध इतिहास रहा है। इनमें तिरुचेंदूर मंदिर की कहानी दो कारणों से अनोखी है। एक की डच (हॉलैंड निवासी) ने इस मंदिर को क़िले में तब्दील कर दिया था। और दूसरा, कि यही डच मुरुगन की पवित्र मूर्ति को भी श्रीलंका ले गए थे, और बातचीत के कई दौर के बाद मूर्ति वापस लाई जा सकी।

तमिलनाडु के तूतीकोरिन ज़िले के तिरुचेंदूर शहर में अरुल्मिगु सुब्रमण्यस्वामी मंदिर है। ये तमिलनाडु के छह सबसे पवित्र मुरुगन मंदिरों में से एक है। छह मंदिरों में से यह एकमात्र मंदिर है, जो समुद्र के पास स्थित है, जबकि बाक़ी पहाड़ों पर स्थित हैं। दंतकथाओं के अनुसार, यहीं पर भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र भगवान मुरुगन ने असुर राजा सुरपद्मा पर विजय प्राप्त की थी।

यह विश्वास करना कठिन है, कि इस मंदिर को कभी डच सेनाओं के एक गढ़ के रूप में इस्तेमाल किया था! इसकी शुरुआत 17वीं शताब्दी में हुई थी। तूतुकोड़ी (तूतीकोरिन ज़िला), एक प्रमुख बंदरगाह था, जो प्राचीन काल से मोतियों के लिए प्रसिद्ध था, और वर्षों से यात्रियों के आकर्षण का केंद्र हुआ करता था। मदुरै के नायक राजवंश के शासक तिरुमलई के साथ एक संधि के तहत डचों को तूतीकोरिन ज़िले के कयालपट्टिनम में एक क़िला बनाने की इजाज़त मिल गई। लेकिन इसे लेकर डच और पुर्तगालियों में जंग हुई। पुर्तगाली वैसे भी यहां 16वीं शताब्दी के आसपास से जो बसे हुए थे!

| श्रीराम एमटी- विकिमीडिया कॉमन्स

आख़िरकार पुर्तगालियों ने डचों को यहां से खदेड़ा, और उनके क़िले को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन जल्द ही, डचों ने सीलोन (श्रीलंका) में डच गवर्नर की मदद ली, और लगभग, सन 1646 ईसवी में तिरुचेंदूर में मुरुगन मंदिर के साथ-साथ तूतीकोरिन में पुर्तगाली क्षेत्रों पर हमला किया, और उस पर कब्ज़ा कर लिया।

उन्होंने न केवल मंदिर पर क़ब्ज़ा किया, बल्कि उन्होंने इसकी क़िलेबंदी की, और इसका इस्तेमाल बंदूक़ें रखने और पुर्तगालियों पर हमले करने के लिए करने लगे। यह भी कहा जाता है, कि मंदिर पर क़ब्ज़े के दौरान उन्होंने (डच) मंदिर में रखे सोने और चांदी की भी ख़ूब लूटपाट की थी।

ज़ाहिर है, कि पूजास्थल को बैरक में तब्दील करना स्थानीय लोगों को पसंद नहीं आया, और उन्होंने नायक राजा से इसके ख़िलाफ़ अपील की। राजा ने डचों को मंदिर ख़ाली करने के लिए कहा, और कयालपट्टिनम में उनके हुए नुक़सान की भरपाई की पेशकश की। लेकिन डचों ने राजा की बात अनसुनी कर दी।इस दौरान, तिरुचेंदूर के लोगों ने ख़ुद डचों के ख़िलाफ़ लड़ने का फैसला किया और कहा जाता है, कि उन्होंने 500-600 लोगों, 4 हाथियों और लगभग 50-60 घोड़ों का इंतज़ाम कर लिया था। लेकिन इस लड़ाई में उन्हें सफलता नहीं मिली और उनके क़रीब पचास लोग भी मारे गए। कहा जाता है, कि डचों ने सन 1648 के आसपास मंदिर को छोड़ दिया था। ऐसा भी कहा जाता है, कि मंदिर को छोड़ने से पहले, उन्होंने बमबारी से इसे ढ़हाने की भी कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हो सके थे।

जाते समय डच मंदिर में रखी मूर्तियां भी ले गए। ऐसा कहा जाता है, कि मूर्तियां वापस मंगवाने के लिए नायक शासक ने अपने स्थानीय गवर्नर वडामलाई पिल्लैयन के साथ एक दूत को सीलोन भेजा। सीलोन स्थित डच प्रशासन ने इस मांग के बारे में बटाविया में डच सरकार को सूचित किया था। कहा जाता है, कि सरकार ने मूर्तियों को वापस करने और मुआवज़े में जो भी राशि दी जा रही थी, उसे स्वीकार करने का निर्देश दिया। नतीजे में, लगभग, सन 1651 में मूर्तियों को वापस लाकर मंदिर में फिर स्थापित किया गया।

| विकिमीडिया कॉमन्स

कुछ कथाओं में इसके बारे में दिलचस्प बात कही गई है। वह यह है, कि जब डच मूर्ति लेकर भाग रहे थे तब समुद्र में ज़बरदस्त तूफ़ान आ गया था। तूफ़ान की वजह से उन्होंने मूर्तियां समुद्र में विसर्जित कर दीं। माना जाता है, कि इसके बाद तूफ़ान थम गया था। जल्द ही, मंदिर में मूल मूर्तियों की नक़ल को स्थापित करने का फ़ैसला किया गया। कहा जाता है, कि एक बार भगवान मुरुगन,वडामलाई पिल्लैयन के सपने में आए थे। इसके बाद वडामलाई पिल्लैयन कुछ लोगों के साथ समुद्र में गए, और कहा जाता है, कि मूर्तियों को दोबोरा प्राप्त करने में चमत्कारी रूप से सफल रहे। इन मूर्तियों को मंदिर में दोबारा स्थापित किया गया। यह भी कहा जाता है, कि मूर्तियों की नक़ल को पालमकोट्टा में तिरुप्पीरांतिस्वरर मंदिर में स्थापित किया गया।

तिरुचेंदूर मंदिर वर्षों से अत्यधिक पूजनीय रहा है, लेकिन इस मंदिर के निर्माण के बारे में कुछ ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। स्कंद पुराण के अनुसार, मंदिर का निर्माण यहां तब किया गया था, जब भगवान मुरुगन असुरों से लड़ रहे थे, और वह शिव की पूजा करना चाहते थे। बहरहाल, मंदिर का ऐतिहासिक रिकॉर्ड लगभग 8वीं शताब्दी में पंड्या शासन के दौरान मिलता है। मंदिर को पंड्या राजाओं से शाही संरक्षण प्राप्त था, और उन्होंने मंदिर को सोने के सिक्के और ज़मीन दान में दी थी। 17वीं शताब्दी के दौरान, जब यह इलाक़ा नायक शासन के अधीन आया, तो उन्होंने भी मंदिर को संरक्षण दिया। ऐसा कहा जाता है, कि मूल मंदिर शायद छोटा रहा होगा, जिसका शायद समय के साथ विस्तार होता गया। जिस मंदिर को आज हम उसके वर्तमानस्वरूप में देखते हैं, यह लगभग 17वीं शताब्दी में बनवाया गया होगा।

आज यह मंदिर भक्तों की कालातीत आस्था का प्रमाण है।

हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading