ताल छापर: प्राकृतिक सौन्दर्य और इतिहास का संगम

ताल छापर: प्राकृतिक सौन्दर्य और इतिहास का संगम

‘ये ये वै पर्वतास्तत्र तत्स्वरूपेण देवताः
तपस्यन्ति महात्मानस्तथा मुनिजनाः प्रिये,
कृष्ण सारस्तु चरित मृगो यत्र स्वभावतः
स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः”

मनुस्मृति में बड़ी महिमा और प्रंशसा करते हुए कहा गया है, कि जहाँ स्वरूचि से काले रंग के मृग निवास करते हों, वह यज्ञ करने योग्य देश है। ऐसी ही एक पावन भूमि जयपुर से 215 और बीकानेर से 150 कि.मी. दूर सुजानगढ़-नोखा सड़क मार्ग पर ताल छापर अभयारण्य नाम से मशहूर है। विश्व-विख्यात काले हिरणों के लिए अपनी विशेष पहचान रखने वाला छापर इन दिनों सैंकड़ों देशी-विदेशी जीवों की शरणस्थली बना हुआ है।

इन प्राणियों के बारे में स्थानीय वन अधिकारी उमेश बागोतीया बताते हैं, कि हर साल प्रवासी पक्षी सितम्बर माह से मार्च माह तक यहाँ रहना पंसद करते हैं. जिनमें मुख्य रूप से बगुला, चील, गरुड़, गिद्ध, सैंडग्रूज, बीईटर, नीलकंठ किंग, कान्य क्रेन, हंस, मौनिटर, पूंछ वाली छिपकली सहित अन्य वन्य जीव यहाँ देखे जा सकते हैं। दुनिया भर के विलुप्त होते दुर्लभ जीवों के अलावा विशेष डेमोयजिल क्रेन, जिसे स्थानीय भाषा में कुरजां कहां जाता है जो इस अभयारण्य की विशेष पहचान बनी हुई है।

विश्वप्रसिद्ध पक्षी कुरजां का समूह | उमेश बागोतीया

यह पक्षी सदियों से हज़ारों मील की दूरी तय करके राज्य के विभिन्न जगहों पर आते हैं। मारवाड़ की रंग-बिरंगी संस्कृति का हिस्सा बनी इन कुरजों पर विरह गीत ‘‘सुपनो जगाई आधी रात में, तने मैं बताऊ मन की बात, संदेशों म्हारे पिवने पहुचां दिज्योए, कुरजां ए म्हारो भंवर मिला दिज्योए” इसका उदाहरण है।

यहां के साहित्यकार गोपीदान चारण बताते हैं, कि चुरू ज़िले के सुजानगढ़ डूँगर बालाजी गोपालपुरा पहाड़ी के अलावा आस-पास की पहाड़ी-समूह के पूर्व की तरफ़ छापर गाँव तक, 719 हैक्टेयर का यह आरक्षित क्षेत्र ब्रिटिश काल में बीकानेर रियासत के महाराजा गंगासिंह जी का शिकारगाह हुआ करता था। मगर अब यह क्षैत्र जैव विविधता का सिरमोर कहा जाता है। आज छापर देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है। सन 1962 में इसे आरक्षित घोषित किया गया था । सन 1998 में यहां अभयारण्य बनाया गया था। इस जगह पर विविध क़िस्म के पेड़े-पौधे, असंख्य आयुर्वेदिक जड़ी-बूंटियों के अलावा यहाँ एक विशेष प्रकार की मोथीमा घास भी पाई जाती है, जो इस क्षेत्र की सुंदरता में चार चाँद लगा रही है।

तालाब पर हिरण | लेखक

मोहिल वंश

इतिहास के हर दौर में अपने नाम से नया वंश चलाने की महत्त्वाकांक्षा सभी राजपुरूषों में सैदव से ही रही है। सामाजिक कारणों से भी इन वंशों की शाखाएं बनना ज़रूरी होता था। इसी तरह चौहान राजवंश में भी अनेक शाखाओं ने जन्म लिया जिनमें से मोहिल एक शाखा थी। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भी इस वंश की गणना राजपूताना के उस समय के प्रसिद्ध 36 राजकुलों में की थी। मौजूदा छापर, सुजानगढ़ और लाडनू के आस-पास के क्षेत्रों में मोहिलवंश की स्थापना बागड़ रियासत के चौहान राणा सजन ‘‘सुरजन’’ सामौर के बड़े पुत्र मोहिल ने की थी। उसने द्रोणपुर के इसी छापर को अपनी राजधानी बनाई थी। चाम्पाजी सामौर की काव्य रचनाओं में भी मोहिल वंश की विस्तार से जानकारी मिलती है। इस वंश ने यहां लगभग चार सौ वर्षों तक शासन किया था।

छापर की ऐतिहासिक पृष्ट भूमि

मोहिल वंश की राजधानी रहे छापर के इतिहास पर मुथा नैणसी, डॉ.गोपीनाथ शर्मा, डॉ. परमेश्वरलाल सोंलकी, भंवरलाल जांगिड़, राजेन्द्र व्यास, सोहनलाल प्रजापति, सुधीर कुमार चौमाल, करणीदान सामौर सहित कई साहित्यकारों ने बहुत कुछ लिखा है। इनके ग्रन्थों के अनुसार यह क़स्बा ऐतिहासिक घटनाओं, भौगोलिक संरचनाओं, पुरातात्विक धरोहरों, धर्मगुरु, प्रचारकों, पर्यावरण प्रेमियों और समाज सेवकों की कर्म भूमि रहा है। भूगोलवेत्ता डा. तेजसिंह चौहान के अनुसार ईसा पूर्व से यह क्षेत्र समुद्र के खारे जल से भरा हुआ था। यहां खुदाई में निकाली शिलाओं पर लहरों के निशान, सबूतों के तौर पर देखे जा सकते हैं। इनके अलावा बड़ी तादाद में मिलने वाली सीपियों, शंखों, कोड़ियों और घोंघों जैसे जीवों के खोलों से भी यहां समुद्र होने की पुष्टि होती है। प्राचीन काल से ही यहां खारे पानी की झील रही थी।

प्राचीन भवन | लेखक

इस पानी से नमक बनाए जाने के कारण इस जगह को क्षार, खार और खारड़ा कहा जाने लगा तथा बाद में बस्ती बसने पर ये क्षारपुर, छारपुर और फिर छापर कहलाने लगा। क्योंकि ये तालाब के पास खुली जगह पर बसा था, इसलिए इस गांव का नाम ताल-छापर हो गया था। यह क्षेत्र कभी मोहिलवाटी भी कहलाता था। छापर के मोहिल राजवंश का इतिहास भी बलिदान और वीरता के लिए पूरी दुनिया में मशहूर रहा है। सन 1105 के लगभग चौहान वंश के राणा मोहिल छापर क्षेत्र के शासक हुआ करते थे। इन्हीं के वंशज मोहिल कहलाए, जो कि चौहान वंश की एक उप शाखा मानी जाती है। यहाँ परमारों, डाहलियों, बागड़ियों, द्रोगाचार्य वंश, चंदेल, राठौड़ और मुग़लों का भी प्रभुत्व रहा था। मगर मोहिलों का इतिहास काफ़ी उज्जवल रहा है। यह सपादलक्षीय (सवा लाख गाँवों के मालिक) चौहान राजाओं के मण्डली के थे । इन्हें राणा की उपाधि प्राप्त थी।

| लेखक

शिलालेख

प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने छापर के पास स्थित चरला (चरलू) गाँव के शिला-लेखों को प्राचीन माना है। इन पर संवत 1200 से 1241 तक अंकित है, जबकि छापर गाँव की गौशाला में मौजूद शिला-लेख संवत 1311 से 1348 के हैं। इनमें से एक शिला-लेख प्रसिद्ध शासक सोहनपाल का भी है। इस प्रकार यह क्षेत्र, इन वीरों की वीरता , त्याग एवं बलिदान के इतिहास से भरा पड़ा है।

प्राचीन शिला-लेख | लेखक

‘‘आन बेग राखबै, सर माणक मुकूट,

मोहिल कीर्ति फैली, पग-पग चारो कूंट”

इस गाँव के विकास में बीकानेर रियासत के दौर में लाल कोठी, तालाब, करणी माता जी मंदिर सहित अन्य धरोहरों का निर्माण भी करवाया गया था। यहाँ वैदिक सनातन भागवत धर्म के अलावा जैन तथा विश्नोई धर्मो के संत, महात्माओं का उद्गम स्थल भी रहा है। छापर के आस-पास कई मशहूर धार्मिक और पर्यटक स्थल हैं, जैसे- सालासर में हनुमान जी का मंदिर, गोपालपुरा पहाड़ी पर द्रोणाचल मंदिर, रणधीसर की पहाड़ी, स्यानण डूँगरी, मल्ल श्री और सुजानगढ़ का दक्षिण भारत शैली का भगवान वैंकटेश्वर मंदिर। छापर में खारे पानी की एक उथली झील भी मौजूद है। यहां के नमक उद्योग से कई श्रमिकों को भी रोजगार मिला है।

करणी माताजी मंदिर | लेखक

‘‘कृष्ण मृग धरा में छापर, मन भावन ग्राम सुहावन है,
पर्यटकों का जमघट लगता, आकर्षित विश्व जन है।“

मुख्य चित्र: विश्वप्रसिद्ध कृष्ण मृग। फ़ोटो सौजन्य – उमेश बागोतीया

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