प्राचीन काल से ही सनातन धर्म में, विभिन्न देवी-देवताओं के प्रतीक, मानव के प्रेरणा स्त्रोत के साथ-साथ जन-आस्था के केन्द्र भी रहे हैं। इसी तरह धर्म में अनेक सकारात्मक नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के कारण इन देवताओं के मंदिर सभी परम्पराओं की धुरी बने हुए हैं। सम्पूर्ण संसार में ईश्वर के विभिन्न रूपों की पूजा-अर्चना के लिये धर्म-स्थल सदियों से बनते चले आ रहे हैं।
पूर्व वैदिक धर्म ग्रन्थों के अनुसार आर्य मूलतः प्रकृति की पूजा करते थे और प्रकृति से ही उन्होंने अपने अनेक पुज्य देवों का चयन भी किया था। इस बात के सबूत मिले हैं कि आर्य, आकाश, वायु, चन्द्र, उषाकाल, अग्नि और सूर्य सहित अन्य प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करते थे। उत्तर वैदिक काल में सूर्य के अनेक रूपों में से विष्णु की कल्पना की गई तथा पंचदेवों में सूर्य देव की पूजा होने लगी। इसके बाद दशावतारों के अलावा शिव-शक्ति, जगत पिता ब्रह्मा, गणेश, श्रीकृष्ण सहित अन्य आदि देवी-देवता भी सांस्कृतिक परम्पराओं, धार्मिक सामजस्य एवं समरसता प्रदान करने वाले हमारे आराध्य देव के रूप में स्थापित हुए थे।
भारत वर्ष में वैदिक काल से ही सूर्य उपासना का उल्लेख मिलता है। ऋगवेद में सूर्य को अन्धकार का नाश करने वाला कहा गया है। भारतीय कला में प्रारम्भिक रूप से सूर्य-मूर्तियां, शुंग तथा कुषाण काल में अधिक मात्रा में बनाई गयी थीं। मथुरा संग्रहालय में रखी एक दर्जन मूर्तियां इस बात के प्रमाण हैं। वहीं ईरान से सूर्य उपासकों के भारत आने के बाद सूर्य उपासना में और सतत् रूप देखने को मिलता है। मगर इससे पहले भी अन्य प्राचीन सभ्यताओं, जैसे मिस्र और यूनान आदि की तरह सूर्य पूजा आदिकाल से ही यहां प्रचलित रही है। इसका विकास प्रागैतिहासिक काल से निरन्तर 14 वीं शताब्दी ईस्वी तक देखा जा सकता है। कुषाण-काल के बाद भारतवर्ष में गुप्त-काल में सूर्य प्रतिमाओं में मिश्रित रूप दिखाई देने लगा था। साम्ब, मार्कण्डेय, भविष्य पुराण में सूर्य देव को सर्वोच्च देव के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया था। इन पुराणों में सूर्य को ही त्रिदेव कहा गया है। इसी तरह पुराणों में कहा गया है कि सूर्य मूर्ति स्थापित करने से कई अश्वमेघ एवं वाजपेय यज्ञों का फल प्राप्त होता है। सूर्य देव की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों और पूजा अर्चना की विधियां धार्मिक ग्रन्थों में मिलती हैं। मुख्य रूप से भारत वर्ष में प्रतिवर्ष मकर संक्राति और छठ पूजा का बड़ा महत्व बतलाया गया है। मारवाड़ के गांवों में आज भी मकर संक्रान्ति महापर्व को उत्तरायन के रूप में उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है। इस दिन गांव के खेत-खलियानों, नदी,अंगोर भूमि पर युवक, मालदड़ी, गुल्ल-डंडा, सतोलिया, टोरादड़ी, कब्बडी के साथ पंतगबाज़ी, बाखी का आंनद लेते हैं। वहीं महिलायें, घरों में बाजरे का खीच, तिल के लड्डू, तिल पपड़ी, बड़ा बनाकर एक दूसरे को
14 वस्तुओं का वितरण करती हैं। इससे पूर्व नदी, सरोवर, तालाब, आदि धार्मिक जगहों पर स्नान कर सूर्य देव की विधिवत पूजा अर्चना कर ब्रह्मणों को दान दिये जाने की परम्परा आज भी क़ायम है। साथ ही गायों को चारा खिलाना और मंदिरों में पौष बड़ा कार्यक्रम रखा जाता है। भारतीय धार्मिक परम्परा में सौर पूजा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत वर्ष के प्रत्येक राज्य में सूर्य के विभिन्न शैलियों में मंदिर विद्यमान हैं। इसी प्रकार राजस्थान की कई जगहों पर ऐसे कई मंदिर हैं जो सूर्यदेव और उनके परिवार के सदस्यों को समर्पित हैं।
इनमें मुख्य रूप से सूर्य प्रतिमाओं के साथ-साथ संज्ञा, छाया, सावर्णि मनु, यम, यमुना, तापती दो अश्विनी कुमार, वैवस्वत मनु, शनिदेव और रेवंत महाराज की मूर्तियों का अंकन हुआ है। भारत में कोर्णाक और मोढ़रा का सूर्य मंदिर विश्वविख्यात है। बड़नगर में प्रथम सूर्य और चन्द्र देव की प्रतिमा एक साथ स्थापित है। राज्य में मुख्य रूप से जैसलमेर, रणकपुर, भाटून्द (पाली), वरमाण (सिरोही), कालिका मंदिर (चितौड़), बूढ़ादीत, मण्डाना (कोटा), सुद्ररासन (नागौर) के सूर्य मंदिर उल्लेखनीय हैं।
इसी तरह सूर्यदेव के परिवार के अन्य सदस्यों के पृथक रूप से प्राचीन काल में सूर्य पुत्र रेवंत और आधुनिक युग में शनिदेव के मंदिर बनने लगे हैं। अन्य देवों के मंदिरों में नवग्रह फलकों पर सूर्य और शनिदेव का अंकन मिलता है। विष्णु पुराण, वृहद संहिता, अश्वशास्त्र सहित अन्य कई ग्रंथों में सूर्य के अतिरिक्त सौर परिवार के अन्य सदस्यों का भी वर्णन मिलता है।
राज्य के झालावाड़, सीकर और अजमेर के राजकीय संग्रहालयों में तथा भाण्डारेज (दौसा) औसियां (जोधपुर), सरवाड़ (अजमेर) नगरी (चितौड़), हर्ष पर्वत (सीकर), बागौर (भीलवाड़ा) मेड़ता (नागौर) सहित अन्य जगहों पर सूर्य देव के अलावा रेवंत फलक और मूर्ति एक साथ देखने में आयी है। वहीं मारवाड़ के डेगाना के पास स्थित रेवत गांव की पहाड़ी पर प्राचीन मंदिर में सूर्य पुत्र रेवंत की मूर्तियां मौजूद हैं। यह मूर्तियां 8-9 वीं सदी प्रतिहार कालीन मानी जाती हैं। रेवत गांव के रेवंत महाराज:- नागौर ज़िले के मध्य में स्थित डेगाना उपखण्ड मुख्यालय से तीन किमी दूरी पर स्थित टंगस्टन पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर में कई पुराने पुरातात्त्विक साक्ष्य मौजूद हैं। मौर्य, कुषाण, गुप्त, प्रतिहार, मुग़ल, राठौड़ और अंग्रेज़ काल तक यहां की पहाड़ियों से टंगस्टन निकाला जाता रहा है । यहां से व्यापार करने वाले सेठ-साहूकार, घुमन्तु-क़बीले सूर्य पुत्र रेवंत की पूजा अर्चना करते थे। आज भी इस गांव की प्राचीन परम्परा के नुसार प्रत्येक रविवार को विशेष पूजा-अर्चना करने के लिये प्रथम जावणी का भोग रेवंत महाराज को लगाया जाता है। इनके अलावा चुरमा, लापसी और खीर का प्रसाद भी चढ़ाया जाता है। कुछ वर्षों पहले तक यहां सूर्य देव की प्रतिमा भी थी तथा वर्तमान में रेवंत सहित अन्य कई मूर्तियां खण्डीत अवस्था में मौजूद हैं।
रेवंत को पौराणिक कथानकों में सूर्य देव की पत्नी संज्ञा का पुत्र बताया गया है। पुराणों की कथाओं में रेवंत का, भूलोक में कारवाँ व्यापारियों तथा घुमन्तू क़बीलों द्वारा पूजा करने और उनके मनपसंद पेय मदिरा का प्रसाद चढ़ाने का प्रसंग मिलता है। इसी क्रम में कालिका पुराण एवं ब्रह्मपुराण में रेवंत की पूजा, दर्शन तथा उससे प्राप्त शुभत्व की प्राप्ति की महिमा बतायी गयी है। वहीं कुवलयमाला में कहा गया है कि प्राचीन काल में समुन्द्री व्यापार करने वाले व्यापारी घोर संकट के समय अन्य देवों के साथ-साथ रेवंत की भी आराधना करते थे। सूर्य देव द्वारा रेवन्त को अश्वों का स्वामी बनाया तथा जो मानव अपने गन्तव्य मार्ग पर पहुँचने के लिए रेवंत की पूजा कर प्रस्तान करते थे। उसे मार्ग में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है10वीं सदी में रेवंत वनों के रक्षक के रूप में भी पूजे जाने लगे।
नकुल के अश्वशास्त्र में वर्णित है कि जो व्यक्ति रेवंत के 28 नामों का प्रतिदिन प्रातः पाठ करेगा उसके अश्वों पर कभी आपत्ति नहीं आयेगी। साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर रेवंत की मूर्ति के निर्माण का प्राचीन उल्लेख वराहमिहिर कृत वृहत्संहिता में मिलता है। इसके अनुसार रेवंत को अश्व पर आरूढ़ होकर मृग्यारूपी क्रीड़ा में दर्शाया जाना चाहिये।
मेड़ता और रेवत गांव की अनुपम दुलर्भ मूर्तियां:- ऐतिहासिक नगर मेड़ता के पौराणिक कुण्डल सरोवर की खुदाई करते समय सन 2018 में प्राप्त रेवंत मूर्ति भारतीय शिल्प की अनुपम कृति है। यह मूर्ति भूरे रंग के पत्थर पर निर्मित है जो पुराणों में निर्दिष्ट रेवंत के कला शिल्प नियमों को पालन करने का प्रमाण है। इस मूर्ति में सूर्यपुत्र रेवंत पूर्णरूप से सुसज्जित घोड़े पर बैठे हैं। घोड़े के सिर के पास एक सेविका खड़ी है। उसने अपने दोनों हाथो में एक मदिरा पात्र पकड़ा हुआ है। मूर्ति में रेवंत के सिर पर छत्र का सुन्दर शिल्प है, जिसे घोड़े के पीछे खड़े एक दास ने थाम रखा है। मूर्ति के नीचे घोड़ा, सूकरो के युद्ध का दृश्य अंकित है। यह मूर्ति 10वीं सदी की है। इसी तरह 8-9वीं सदी की, रेवंत गांव में मौजूद मूर्ति के सिर के पीछे सुन्दर प्रभा मण्डल दिखाया गया है। घोड़े के अर्द्धभग्न शीश के निकट एक सेविका का सुन्दर अंकन किया हुआ है। इस मूर्ति में सूर्य पुत्र रेवंत पूर्ण रूप से सुसज्जित घोड़े पर बैठे हैं। उनके सिर के पीछे सुन्दर प्रभामण्डल दिखाया गया है। मूर्ति में एक सैनिक खड़ा है जिसके हाथों में ढ़ाल और तलवार बने हुए हैं। शीर्ष में रेवंत के शीश पर राजसी छत्र और एक छायादार वृक्ष का सुन्दर शिल्प भी है जिसे अश्व के पृष्ठ में खड़े एक सेवक ने थाम रखा है। घोड़े की पीठ सुसज्जित है। इस प्रकार की मूर्तियों का अध्ययन से जानकारी मिलती है कि राजस्थान में रेवंत की मूर्तियों का निर्माण गुप्त काल से आरम्भ होकर 15वीं सदी तक निरन्तर होता रहा है। ऐसी मूर्तियां मध्यकाल में उन जगहों पर स्थापित की गयी होगी जो व्यापारिक प्रभाव वाले क़स्बे रहे होगें।
मारवाड़ में प्रत्येक गावं में मंदिरों, बावड़ियो, सरोवरों, कुओं या जूना खड़ों पर गोवर्धन स्तम्भ मिलते हैं।यह स्तम्भ गुर्जर प्रतिहार कालीन माने जाते हैं। इन पर भी पूर्व दिशा की और सूर्य, पश्चिम में गोवर्धनधारी और श्रीकृष्ण या हनुमान, उत्तर में शिव-पार्वती और दक्षिण में गणेश का सुन्दर अंकन किया होता है।
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