भारत की आज़ादी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अदब और तहज़ीब के शहर लखनऊ में ऐतिहासिक महत्व के कई स्मारक हैं और ऐसा ही एक भवन है रिफ़ा-ए-आम क्लब जो आज जर्जर हालत में है। एक समय ये क्लब भारत में राष्ट्रीय आंदोलनों का केंद्र हुआ करता था। फ़ारसी शब्द रिफ़ा का मतलब होता है ख़ुशी और आम का मतलब है सामान्य। इससे पता चलता है कि ये क्लब सामान्य लोगों को ख़ुशियां देता था। कभी कई क्लबों और जिमख़ानों के बाहर साइन बोर्ड पर लिखा होता था, ‘कुत्तों और हिंदुस्तानियों का आना मना है’ लेकिन ऐसे समय में ये रिफ़ा-ए-आम क्लब तह-ए-दिल से विरोध के स्वर का स्वागत करता था।
रिफ़ा-ए-आम क्लब की स्थापना सन 1860 में लखनऊ के गोलगंज इलाक़े में हुई थी। ये वो समय था जब यूनाइटेड प्रोविंसेस क्लब और और एम.बी. क्लब सिर्फ़ अंग्रेज़ों के लिये होते थे और यहां भारतीय लोगों को सदस्यता नहीं मिलती थी। इसे देखते हुए शाही परिवारों ने ख़ुद अपना क्लब बनाने का फ़ैसला किया और इस तरह रिफ़ा-ए-आम क्लब वजूद में आया। चूंकि इसे मेहमूदाबाद के राजा का संरक्षण प्राप्त था इसलिये इसे गुस्ताख़ी का तमग़ा मिल गया। ये क्लब लखनऊ में आम लोगों के लिये बने पहले भवनों में से एक था जिसने औपनिवेशिक लखनऊ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यहां भारतीय बौद्धिक और राजनीतिक विमर्श किया करते थे।
रिफ़ा-ए-आम ने भारत में आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी। सन 1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ और स्वदेशी आंदोलन शुरु हुआ तब यहां मुस्लिम लीग की अकसर बैठकें हुआ करती थी। यहां भारत के प्रमुख नेता और लेखक आते थे और ये हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक एकता का प्रतीक बन गया था।
रिफ़ा-ए-आम क्लब ने सन 1936 में भारत में प्रगतिशील लेखक आंदोलन को जन्म दिया और इस तरह साहित्य में क्रांति आई। नारी अधिकारवादी उर्दू लेखिका राशिद जहां ने यहां 9 अप्रैल सन 1936 में प्रगतिशील लेखकों का पहला सम्मेलन आयोजित किया जिसमें मुंशी प्रेमचंद ने अध्यक्षीय भाषण दिया था। उन्होंने प्रगतिशील लेखन की ज़रुरत के बारे में बताया और लेखकों सेअंग्रेज़ों द्वारा किये जा रहे दमन के बारे में लिखने का आग्रह किया। इस तरह से सयैद सज्जाद ज़हीर और अहमद अली के कुशल नेतृत्व में अंजुमन तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफ़िन-ए-हिंद अथवा प्रगतिशील लेखक आंदोलन की शुरुआत हुई। इसका मक़सद अभिनव लेखन को बढ़ावा देना था। आंदोलन से सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मुल्क राज आनंद जैसे कई प्रमुख लेखक जुड़ गए।
1900 के शुरुआती सालों में रिफ़ा-ए-आम ने कई राजनीतिक सभाएं आयोजित कीं। क्लब ने दिसंबर सन 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का संयुक्त अधिवेशन आयोजित किया था। अधवेशन में लखनऊ संधी हुई थी जिसके तहत राजनीतिक दलों में भारत को और स्वायत्तता और अधिक अधिकार दिलवाने के लिये अंग्रेज़ हुक़ूमत पर दबाव डालने पर सहमति बनी थी। महात्मा गांधी ने यहां 15 अक्टूबर सन 1920 में हिंदु-मुस्लिम एकता पर भाषण दिया था। 26 अप्रैल सन 1922 में जवाहरलाल नेहरु और वल्लभभाई पटेल ने क्लब में भाषण दिए थे जिसमें उन्होंने लोगों से स्वदेशी आंदोलन तेज़ करने का आग्रह किया था।
आज़ादी के बाद 40 और 60 के दशकों में क्लब कलाकारों, लेखकों, कवियों और अदाकारों का ठिकाना रहा। ये अदाकार यहां जमा होकर रिहर्सल करते थे। लंबे समय तक क्लब ने सांस्कृतिक गतिविधियों की अपनी परंपरा निभाई। 60 के दशक तक क्लब में नाटक, मुशायरे और कवि सम्मेलन होते रहे लेकिन फिर क्लब के सदस्य छिटकने लगे और क्लब बिखर गया। सन 1970 के आते आते क्लब पूरी तरह ख़त्म हो गया और ये असामाजिक तत्वों की गतिविधियों का अड्डा बन गया।
90 के दशक में लखनऊ विकास प्राधिकरण ने इसमें हस्तक्षेप करते हुए प्लॉट बेचने की कोशिश की जिसका शाही परिवार के सदस्यों ने विरोध किया। इस तरह कोर्ट ने प्राधिकरण की कार्रवाई पर रोक लगा दी। सन 2000 ने कोर्ट रोक हटा दी लेकिन तब से ये इमारत यूं ही खड़ी हुई है। इसे न तो सरकार अथवा किसी अन्य संबंधित विभाग का संरक्षण प्राप्त है और न ही वे इसकी देखभाल करते हैं।
रिफ़ा-ए-आम क्लब किसी वक़्त राजनीतिक और सांस्कृतिक गहमागहमी का केंद्र हुआ करता था लेकिन अब ये पतन की कगार पर है। यहां लोग अब कूड़ा फेंकते हैं और कूड़ा बीनने वाले यहां मंडराते रहते हैं। क्लब की इमारत पर दरारें पड़ गई हैं। क्लब इतना वीरान और ख़स्ता हालत में है कि इसे कुछ बेघर लोगों ने अपना आशियाना बना लिया है। क्लब के पास के मैदान को बस पार्किंग के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
दशकों तक न तो इस ऐतिहासिक भवन की कोई सुरक्षा की गई और न ही स्थानीय निगमों और अन्य सरकारी महकमों ने इसकी सुध ली। कई स्थानीय सांस्कृतिक संगठनों और ऐतिहासिक विरासत में दिलचस्पी रखने वालों ने इसे लेकर प्रदर्शन किये हैं और सरकार को लिखकर क्लब की बहाली की मांग की है। लेकिन आज भीक्लब का भविष्य अनिश्चित है…..
*मुख्य चित्र – सय्यद दानिश
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