मोहन बगान – राष्ट्रीय पहचान का एक प्रतीक

मोहन बगान – राष्ट्रीय पहचान का एक प्रतीक

ठीक 109 साल पहले सन 1911 में अंग्रेज़ सेना की टीम के ख़िलाफ़ भारतीय फ़ुटबॉल टीम की जीत ने देश भर में ह़गामा मचा दिया था। मोहन बगान के परचम तले बिना जूतों के खेल रहे भारतीय खिलाड़ियों ने ईस्ट यॉर्कशर टीम को 2-1 से हरा दिया था लेकिन ये महज़ एक जीत नहीं थी।

ये प्रतियोगिता प्रतिष्ठित आई.एफ़.ए. शील्ड प्रतियोगिता थी और मोहन बगान ने जिस समय विजयी गोल दाग़ा तब औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष अपने चरम पर था। सन 1905 में बंगाल को पूर्व और पश्चिम में विभाजित करने के, अंग्रेज़ों के फ़ैसले से बंगाली पहले से ही नाराज़ थे। इसलिये 29 जुलाई सन 1911 को जब बंगाली लड़कों ने अंग्रेज़ों की शक्तिशाली टीम को हराया तो पूरे देश में एक ही संदेश पहुंचा, “तुम भी जीत सकते हो।“

ऐसा नहीं कि भारतीय टीम ने पहली बार अंग्रेज़ों की टीम को हराया हो लेकिन ये जीत ऐसे समय में हासिल हुई थी जो बहुत नाज़ुक था। हालंकि जीत खेल के मैदान में हुई थी लेकिन इस जीत ने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया था। ये वो सूत्र था जिसने पूरे राष्ट्र को स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के एक धागे में पिरो दिया।

क्लब की स्थापना

पूरे देश में लोकप्रियता हासिल करने वाले भारत के पहले फ़ुटबॉल क्लब, मोहन बगान की स्थापना शहर के गण्मान्य, महत्वपूर्ण और अभिजात लोगों की मौजूदगी में 15 अगस्त सन 1889 को उत्तर कोलकता में कीर्ति मित्रा के मोहन बगान विला में हुई थी। ये लोग बंगाली युवाओं में खेल के प्रति रुचि जगाने के लिये जमा हुए थे। बैठक की अध्यक्षता भूपेंद्रनाथ बोस ने की थी जो बाद में, सन 1914 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। बोस के अलावा इस मौक़े पर मौजूद अन्य लोगों ने क्लब का नाम उस “विला” के नाम पर ही रखने का फ़ैसला किया जहां पहली बैठक हुई थी। उन्होंने इसका नाम मोहन बगान स्पोर्टिंग क्लब रखा।

क्लब के प्रथम स्थापना दिवस समारोह में क्लब के नाम से स्पोर्टिंग शब्द हटाकर मोहन बगान ऐथलेटिक क्लब कर दिया गया। इस समारोह के अध्यक्ष और प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी) के प्रो. एफ़. जे. रो का कहना था कि क्लब में कोई ग़ैर-ऐथलेटिक्स गतिविधियां होती हीं नहीं इसलिए क्लब का नाम स्पोर्टिंग क्लब के बजाय ऐथेलेटिक क्लब रखा जाना चाहिए ।

मोहन बागान क्लब का मुख्य प्रवेश द्वार | विकिमीडिया कॉमन्स 

देश के गौरव और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक मोहन बगान ऐथलेटिक क्लब ने 15 अगस्त सन 2020 को अपनी 131वीं वर्षगांठ मनाई।

बंगाल में फ़ुटबाल:शुरूआती दिन

आरंभ में, कलकत्ता में खेले गए कुछ फ़ुटबॉल मैचों में सिर्फ़ ब्रिटिश टीमें खेलीं थीं। सन 1838 में खेले गए पहले मैच में ईटानियन्स ने रेस्ट ऑफ़ कलकत्ता को 3-0 से हराया था। इसके बाद 13 अप्रैल सन 1854 को कलकत्ता के सिविलियन और बराकपुर के जेंटलमैन क्लब के बीच फ़ोर्ट विलियम के पास एस्पलेनैड ग्राउंड में एक दोस्ताना मैच खेला गया था। सन 1868 में इसी मैदान में ऐथेनियंस और रेस्ट ऑफ़ इंडिया के बीच हुए मैच को देखने के लिये बहुत बड़ी संख्या में दर्शक इकट्ठा हो गए थे।

भारतीय फ़ुटबॉल के इतिहास में वर्ष सन 1877 बहुत निर्णायक रहा। हुगली में दस साल का एक बच्चा नगेंद्र प्रसाद सरबाधिकारी अपनी मां के साथ नाव में कलकत्ता जा रहा था। नाव जब कलकत्ता के एफ़सी मैदान के पास पहुंची, तो उसने कूछ यूरोपीय लोगों को बॉल के साथ खेलते देखा। वह खेल देखकर बच्चा आकर्षित हो गया और उसने अपनी मां से नाव रोकने की मिन्नत की ताकि वह भी, उनके साथ खेल सके।

सरबाधिकारी सड़क पर खड़ा हो गया और जब भी बॉल मैदान के बाहर गिरकर उसके पास आती वह ख़ुशी ख़ुशी बॉल को किक लगाकर वापस मैदान में भेज देता । ये किसी भारतीय द्वारा फ़ुटबॉल को किक लगाने की पहली सनद दस्तावेज़ी घटना थी।

कलकत्ता के हर स्कूल में पढ़ने वाला सरबाधिकारी फ़ुटबॉल खेल का दीवाना हो गया और इसे कभी भूल नहीं पाया। फिर उसने और उसके क्लास के साथियों ने मिलकर पैसे जमा किये और एक फ़ुटबॉल ख़रीदी लेकिन ग़लती से उन्होंने फ़ुटबॉल के बजाय रगबी बॉल ख़रीद ली। ज़ाहिर है रगबी बॉल पर किक लगाना बहुत मुश्किल था।

मोहन बागान ग्राउंड।  | विकिमीडिया कॉमन्स - सौम्यदेव सिन्हा

बहरहाल, प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रो. जी.ए. स्टैक ने बच्चों के लिये एक फ़ुटबॉल लाकर दे देदी और उन्होंने बच्चों को फ़ुटबॉल खेलने की कुछ बुनियादें बातें भी सिखाईं। इन छात्रों ने बॉयज़ क्लब बनाया जो सिर्फ़ भारतीय छात्रों के लिये था।

सन 1870 के दशक में कलकत्ता में पहला पेशेवर फ़ुटबॉल क्लब “कलकत्ता फ़ुटबॉल क्लब “ बना लेकिन सदस्यता सिर्फ़ ब्रिटिश मिडिल क्लब के संभ्रांत लोगों के लिये ही थी। इससे नाराज़ होकर कलकत्ता में व्यापारियों ने सन 1874 में ट्रैड्स क्लब शुरु किया। छह साल बाद इसका नाम बदलकर डलहोज़ी ऐथलेटिक क्लब कर दिया। इन क्लबों में सिर्फ़ अंग्रेज़ों को ही सदस्य बनाया जाता था।

ये सरबाधिकारी ही थे जिन्होंने कलकत्ता में भारतीयों के बीच क्लब संस्कृति को लोकप्रिय बनाया और उनके प्रयासों की वजह से प्रेसीडेंसी कॉलेज, शिवपुर इंजीनीयरिंग कॉलेज, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज और सेंट ज़ेवियर जैसी शैक्षिक संस्थानों ने फ़ुटबॉल क्लब बनाये। कुछ सालों के भीतर ही सरबाधिकारी का क़द बढ़ता गया और उन्होंने सन 1887 में वैलिंग्टन और सोवाबाज़ार जैसे क्लब स्थापित कर दिये। इस दौरान कई महत्वपूर्ण क्लब बने जिनमें सबसे ख़ास क्लब था मोहन बगान।

कामयाबी दर कामयाबी

15 अगस्त सन 1889 में स्थापना के बाद सालों तक बगान ऐथलेटिक क्लब की बंगाल के प्रबुद्ध और अभिजात वर्ग के लोगों ने वित्तीय तथा अन्य तरह से मदद की। फ़ुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी बनाने के अलावा क्लाब का मक़सद अनुशासित खिलाड़ी भी पैदा करना था। क्लब उन खिलाड़ियों को खेलने की इजाज़त नहीं देता था जो स्कूल या कॉलेज में फ़ेल हो गये हों। सिगरेट और शराब पीने की सख़्त मनाही थी। मोहन बगान की तरफ़ से खेलना हर प्रतिभाशाली खिलाड़ी का सपना बन गया था

इस बीच क्लब को एक के बाद एक सफलताएं मिलने लगीं। उसने सन 1904, सन 1905 और सन 1907 में उसने कूच बिहार ट्रॉफ़ी जीती। ये प्रतियोगिता सिर्फ़ भारतीय क्लबों के लिये होती थी। सन 1905 में ग्लैडस्टोन कप फ़ाइनल में जब उसने गत आईएफ़ए शील्ड चैंपियन डलहोज़ी क्लब को 6-1 से हराया तब क्लब के खिलाड़ियों की फ़िटनेस और हुनर देखने लायक था।

ये कोई भी खिलाड़ी आपको बता सकता है कि जीत के लिये शारीरिक क्षमता की तरह मानसिक शक्ति भी ज़रुरी होती है। इन दोनों ही मामलों में मोहन बगान की टीम को तैयार करने में जिस व्यक्ति ने मदद की वो थे शैलेन बसु जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सुबेदार मेजर थे। सन 1900 में बसु क्लब के सचिव निर्वाचित हुए। उन्होंने खिलाड़ियों की फ़िटनेस पर काम किया और सेना में सैनिकों को शारीरिक रुप से मज़बूत बनने के लिये जो तरीक़े उन्होंने सीखे थे वहीं तरीक़े उन्होंने यहां भी अपनाए।

उसी साल कलकत्ता में अंग्रेज़ों की सैन्य छावनी फ़ोर्ट विलियम के पास कलकत्ता मैदान में मोहन बगान को अपना ख़ुद का मैदान मिल गया। पहेल 15 साल तक क्लब ने इस मैदान का स्तेमाल प्रेसीडेंसी कॉलेज के साथ मिलकर किया लेकिन बाद में ये मैदान पूरी तरह उसका अपना हो गया। आज कलकत्ता में मोहन बगान ग्राउंड को फ़ुटबॉल के बेहतरीन मैदानों में माना जाता है जो हुगली नदी के तट पर मशहूर ईडन गार्डन्स के एकदम सामने है।

सन 1906 से लेकर सन 1908 तक लगातार तीन साल मोहन बगान ने ट्रेड्स कप जीता। “स्किल्ड एंड फ़िट ग्रीन एंड मेरुन” क्लब का आदर्श वाक्य होता था। इस बीच क्लब अंग्रेज़ सेना की टीमों को टक्कर देने लगा। स्थानीय लीग में मोहन बगान का जीतना जारी था और उसकी लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी। आख़िरकार सन 1911 में आईएफ़ए शील्ड प्रतियोगिता में मोहन बगान को आमंत्रित किया गया। उस समय कलकत्ता में ये सबसे प्रतिष्ठित प्रतियोगिता होती थी। सन 1893 में स्थापित इंडियन फ़ुटबॉल एसोशिएशन इस प्रतियोगिता का आयोजन करती थी। ये एसोसिएशन अब पश्चिम बंगाल में फ़ुटबॉल खेल की कर्ताधर्ता है।

IFA शील्ड जीतने वाली पहली भारतीय टीम (मोहन बागान)। | विकिमीडिया कॉमन्स

सन 1907 से लेकर सन 1910 तक हाईलैंड लाइट इन्फ़ेंट्री और गॉर्डन बाईलैंडर्स जैसी अंग्रेज़ सेना की टीमें ये प्रतियोगिता जीतती रहीं थीं लेकिन सन 1911 में मोहन बगान ने ईस्ट यॉर्कशर रेजीमेंट को 2-1 से हराकर ये सिलसिला तोड़ दिया। मोहन बगान के लिये शिवदास भादुड़ी और अभिलाष घोष ने ऐसे समय गोल किये जब आज़ादी के लिये भारत का संघर्ष अपने चरम पर था।

मोहन बगान की जीत की ख़बर देश के कोने कोने में फैल गई। सन 1911में आईएफ़ए शील्ड जीतकर क्लब एक राष्ट्रवादी प्रतीक बन गया था। अंग्रेज़ सेना की शारीरिक रुप से मज़बूत टीम के ख़िलाफ़ क्लब के ग्यारह खिलाड़ी नंगे पांव खेले थे। इस जीत ने आज़ादी के लिये संघर्ष में एक नयी ऊर्जा का संचार कर दिया। लगा कि अगर फ़ुटबॉल में भारत अंग्रेज़ों को बराबरी से टक्कर दे सकता है तो फिर आज़ादी की लड़ाई में क्यों नहीं दे सकता?

सन 1911 में मोहन बगान की जीत ने ये भी दर्शाया कि उच्च जाति के बंगाली फ़ुटबॉल को लेकर कितने भावुक थे। टीम में दस बंगाली थे जिनमें छह ब्राह्मण, एक खिलाड़ी सुधीर कुमार ईसाई थे और एक अन्य शुक्ला बंगाल से नहीं थे। हालंकि ये छह खिलाड़ी उच्च जाति के थे लेकिन मालदार नहीं थे। कप्तान शिवदास सहित तीन खिलाड़ी सरकारी नौकरियों में थे। सभी खिलाड़ी कलकत्ता से भी नहीं थे। मनमोहन मुखर्जी उत्तरपारा और नीलमाधव भट्टाचार्य श्रीरामपुर से थे। कनु रॉय पूर्व बंगाल में मेमनसिंह से और भादुड़ी बंधु तथा सुधीर चटर्जी मूलत: फ़रीदपुर से थे।

ग्रीन और मरुन की विरासत

सन 1911 में जब मोहन बगान ने आईएफ़ए शील्ड जीती तो मध्य आयु का एक प्रशंसक सुधीर चैटर्जी के पास पहुंचा और पास ही में फ़ोर्ट विलियम के ऊपर लहराते यूनियन जैक की तरफ़ इशारा करके बोला, “तुमने आईएफ़ए शील्ड तो जीत ली लेकिन अब उसका क्या होगा ?” इस प्रशंसक का तात्पर्य ये था कि मोहन बगान के खिलाड़ियों ने साबित कर दिया कि अंग्रेज़ों को हराया जा सकता है और उन्हें आज़ादी के आंदोलन में शामिल होना चाहिये। चैटर्जी ने जवाब दिया कि जब वे दूसरी बार शील्ड जीतेंगे तब आज़ादी भी मिलेगी। और हुआ भी यही। मोहन बगान ने सन 1947 में शील्ड जीती और उसी साल भारत भी आज़ाद हो गया।

क्रिकेट में यॉर्कशर और फ़ुटबॉल में स्पेन के ऐथलेटिक बिलबाओ क्लब की तरह मोहन बगान ने भी क़रीब एक सदी तक विदेशी खिलाड़ियों को क्लब में जगह नहीं दी। क्लब सही मायने में भारतीय था और उसका उद्देश्य प्रतिभाशाली युवा भारतीय खिलाड़ियों को विकसित करना था। लेकिन सन 1990 के दशक में ये नीति बदल गई। क्लब ने चीमा ओकेरी और जोस रामीरेज़ बैरेटो जैसे विदेशी खिलाड़ियों को अपनी तरफ़ से खेलने का अवसर दिया।

आज़ादी के बाद मोहन बगान क्लब राष्वादी प्रतीक नहीं रहा। भारतीयों के लिये ये परंपरा और कुलीनता का प्रतीक बन गया। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, बिधान चंद्र रॉय (पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री 1948-1962), सिद्धार्थ शंकर रॉय (पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री 1972-1977), सबसे लंबे समय तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु (1977-2002) और मशहूर संगीतकार राहुल देव बर्मन क्लब के प्रशंसकों में थे। सन 1980 और सन 1990 के दशकों में हालंकि कांग्रेस और वाम मोर्चा के बीच सैद्धांतिक मतभेद हो गये थे लेकिन ग्रीन तथा मेरून जर्सी के प्रति दोनों का प्रेम यथावत रहा।

यह मोहन बागान 1889 प्रशंसकों के समुदाय का आधिकारिक लोगो है | विकिमीडिया कॉमन्स

क्लब ने पिछले 131 सालों में कई रिकॉर्ड बनाए हैं। मोहन बगान ने तीस कलकत्ता लीग, 16 डुरंड कप, 14 रोवर्स कप, 22 आईएफ़ए शील्ड ट्रॉफ़ी, 14 फ़ेडरेशन कप ख़िताब जो एक रिकॉर्ड है, और पांच नैशनल लीग खिताब जीते हैं। इनमें तीन ख़िताब नैशनल फ़ुटबॉल लीग में और दो आई-लीग में जीते हैं। हाल ही में यानी 2019-2020 के सीज़न का आई-लीग ख़िताब भी जीता है।

सन 1977 में महान फ़ुटबाल खिलाड़ी पेले, मोहन बगान (ग्रीन और मेरून जर्सी) क्लब के लिये ईडन गार्डन्स मैदान पर खेले थे। इसी क्लब ने सन 2008 में साल्ट लेक स्टेडियम में जर्मनी के महान गोलकीपर ओलिवर काह्न के लिये बिदाई मैच का आयोजन भी किया था। क्लब ने कई दिग्गज खिलाड़ी देश को दिये हैं जिनमें गोस्था पाल भी थे जो टैक्लिंग और शक्तिशाली किक लगाने के लिये जाने जाते थे। पाल एकमात्र ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जिनके सम्मान में कोलकता मैदान में उनकी प्रतिमा लगाई गई है। कोलकता में उनके नाम पर एक सड़क भी है।

इनके अलावा सन 1948 ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम के कप्तान तालिमेरेन एओ, सन 1951 एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम और सन 1952 ओलंपिक टीम के कप्तान सेलन मन्ना( सेलेंद्रनाथ मन्ना), सन 1956 ओलंपिक में भारतीय टीम के कप्तान समर बोदरु बैनर्जी, सन 1962 एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम के कप्तान चुन्नी गोस्वामी, प्रदीप कुमार बैनर्जी और जरनैल सिंह जैसे खिलाड़ी इस क्लब की देन रहे हैं।

मोहन बगान का उत्कृष्ट फ़ुटबॉल खेलने का सिलसिला जारी है। हालंकि इसकी सभी जीतें महत्वपूर्ण हैं लेकिन सन 1911 की जीत का कोई सानी नहीं है।

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