पाटलीपुत्र शहर को तो सभी जानते हैं। ये मगध साम्राज्य की राजधानी हुआ करती थी। बाद में मगध मौर्य साम्राज्य के रुप में विकसित हुआ। लेकिन छठी और पांचवी शताब्दी (ई.पू). के बीच सभी मार्ग राजगीर की तरफ़ जाते थे जो सौ कि.मी. दूर था। मगध की मूल राजधानी राजगीर को प्राचीन समय में गिरिब्रज नाम से भी जाना जाता था। भारतीय इतिहास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यहां आने पर आपको लगेगा मानो आप पवित्र घरती पर चल-फिर रहे हों। यहां गौतम बुद्ध ने वास किया था और वह जिस गुफा में रहते थे वहां से पहाड़ियों के मनोरम दृश्यों का आनंद उठाते थे। यहां 24वें जैन तीर्थंकर वर्धमान महावीर भी रहे थे और उन्होंने यहीं से धर्मोपदेश भी दिये थे।
मौर्य शासकों द्वारा बनाया गया राजगीर चार मीटर चौड़ी और 40 कि.मी. लंबी प्राचीन और ऐतिहासिक विशाल दीवार से घिरा हुआ है। ये सही मायने में भारत के सबसे ऐतिहासिक शहरों में से एक है जहां आपको क़दम क़दम पर इतिहास को महसूस करेंगी।
राजगीर अथवा राजगृह की उत्पत्ति के बारे में कोई जानकारी नहीं है लेकिन छठी (ई.पू.) सदी में महाजनपद के समय के दौरान ये बड़ा शहर हुआ करता था। ये मगध पर शासन करने वाले बिंबसार (543-491 ई.पू.) ही थे जिन्होंने राजगीर को अपनी राजधानी बनाया था।
बिंबसार ने राजगीर को अपनी राजधानी क्यों बनाया इसका कारण ढूंढ़ना बहुत मुश्किल नहीं है। राजगीर दो पाहड़ियों के बीच लगभग तीन सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित था और ज़ाहिर है इसकी वजह से ये बहुत सुरक्षित था। यहां गर्म पानी के चश्मे बहुत थे । उस गर्म पानी से कई बीमारियां दूर हो जाती थीं। इसके अलावा ये प्राचीन भारत के दो महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग उत्तरपथ और दक्षिणपथ पर स्थित था।
राजगीर को पहले गिरिब्रज के नाम से जाना जाता था जिसका उल्लेख हिंदू, बौद्ध और जैन ग्रंथों में मिलता है। इसे सिंदु-गंगा मैदानी इलाक़े में बसा सबसे बड़ा शहर माना जाता था जिसकी आबादी 36 हज़ार हुआ करती थी। पाली ग्रंथों के अनुसार इस शहर में 40 कि.मी. लंबी विशाल दीवार के अलावा 32 बड़े और 64 छोटे द्वार हुआ करते थे।
कहा जाता है कि राजगीर पहले नागा और यक्ष पूजा का केंद्र होता था लेकिन बाद में ये एक महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र बन गया। ‘मनियार मठ’ के स्थान में एक बड़ा चैत्यग्रह होता था। ये पहले एक मंदिर हुआ करता था जो शहर के संरक्षक देवता “मणि नाग ” को समर्पित था। यहां टेरकोटा से बनीं कुछ नागा मूर्तियां मिली हैं जिससे पता चलता है कि यहां बौद्ध और जैन धर्म के आने के पहले नाग पूजा होती थी।
राजा बिंबसार भगवान बुद्ध के मित्र और संरक्षक थे और कहा जाता है कि उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। ऐसे कई सबूत उपलब्ध हैं जिससे पता चलता है कि बुद्ध अक्सर राजगीर आया करते थे और महत्वपूर्ण धर्मोपदेश देते थे। बुद्ध बहुत यात्राएं किया करते थे लेकिन ‘गिद्धकुता’ अथवा “वल्चर पीक” उनकी पसंदीदा जगह थी जो राजगीर के आसपास की एक पहाड़ी की चोटी है।
कहा जाता है कि बुद्ध को शहर और इसके आसपास का इलाक़ा बहुत पसंद था। कहा जाता है कि शहर के बारे में ख़ुद बुद्ध ने पाली ग्रंथ “दीघ निकाय” में ये कहा है: ‘राजग्रह मनोरम है, गिद्धकुता मनोरम है, …..सप्तपर्णी गुफा मनोरम है… वेणुवन की कलाडका झील मनोरम है …जिवाका के आम के कुंज मनोरम हैं।’
आश्चर्यजनक बात ये है कि जिन जगहों का ज़िक्र बुद्ध ने ख़ुद किया है उनमें से कई अभी भी मौजूद हैं। शाही बाग़ वेणुवन राजा बिंबसार ने बुद्ध को उपहार में दिया था। जिवाका के आमों के कुंज में बुद्ध की उनके मौसेरे भाई देवदत्त ने हत्या करने का प्रयास किया था।
राजगीर में एक जगह है जिसे बिंबसार जेल कहते हैं। कहा जाता है कि यहां बिंबसार के पुत्र अजातशत्रु ने उन्हें बंदी बनाकर रखा था। अजातशत्रु ने बिंबसार से मगध साम्राज्य हड़प लिया था। लोक-कथाओं के अनुसार बूढ़े हो चुके राजा बिंबसार ने आग्रह किया था कि उन्हें ऐसी जगह बंदी बनाकर रखा जाय जहां से वह गिद्धकुता पर बुद्ध को साधना करते देख सकें। राजा बिंबसार का 491( ई.पू.) में निधन हो गया।
कहा जाता है कि बिंबसार के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी अजातशत्रु को पछतावा हुआ और उसने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। पाली ग्रंथों के अनुसार 483(ई.पू) में बुद्ध के निधन के बाद उनके अवशेष अजातशत्रु, कुशीनगर के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, अट्टकपा के बाहुबलियों, रामग्राम के कोलियों और वेठद्वीप के लोगों के बीच बराबरी से बांट दिये गये। अजातशत्रु ने अपने हिस्से के बुद्ध के अवशेष राजगीर में एक स्तूप में रख दिये।
कहा जाता है कि बुद्ध की मृत्यु के बाद अजातशत्रु ने राजगीर में बौद्ध परिषद की बैठक बुलाई थी। इसका उद्देश्य बुद्ध की शिक्षा और उनके द्वारा स्थापित मठ-संहिता को संजोना था। कहा जाता है कि ये प्रसिद्ध बैठक सप्तपर्णी गुफाओं में आयोजित की गई थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार सप्तपर्णी गुफाएं राजगीर के पास वैभवगिरि पर स्थित सोन भंडार गुफाएं ही हैं।
राजगीर न सिर्फ़ बैद्ध परंपरा बल्कि जैन धर्म में भी एक महत्वपुर्ण स्थान रखता है। यहां जैन धर्म के 24वें तीर्थांकर महावीर ने विपुल पहाड़ी पर अपना धर्मोपदेश दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने राजगीर में 14 वर्षा ऋतुएं बिताईं थीं। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि 20वें तीर्थांकर मुनीव्रत का जन्म भी यहीं हुआ था। राजगीर के आसपास वैभवगिरि पर्वत पर कई जैन मंदिर हैं। सोन भंडार गुफाओं में जैन अभिलेख अंकित हैं। जैन वृतांत में राजा बिंबसार का राजा श्रेणिक नाम से उल्लेख है जिसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था।
राजगीर का हिंदू मिथकों से भी संबंध है। महाभारत में मगध की राजधानी गिरिवराज का उल्लेख है। कहा जाता है कि पांच पांडव भाईयों में से एक भीम ने कुश्ती के मुक़ाबले में यहां के शासक जरासंध को मार दिया था। राजगीर में जरासंध का अखाड़ा है और लोक-कथाओं के अनुसार यहीं भीम और जरासंध के बीच कुश्ती हुई थी।
अजातशत्रु के पुत्र उदयन ने 460 ई.पू. में पाटलीपुत्र (पटना) को अपनी राजधानी बना लिया था और इसके बाद ही राजगीर का एक राजनीतिक केंद्र के रुप में महत्व कम होने लगा। लेकिन तब भी ये बौद्ध केंद्र बना रहा। 406 में यहां चीनी यात्री फ़ाहियान आया था और उसने फोगौजी नामक किताब लिखी। इस किताब में उसने शहर की आसपास की पहाड़ियों का उल्लेख करते हुए पांच पहाड़ियों के बारे में लिखा है जो शहर की दीवार की सुरक्षा घेरे की तरह थीं। इसके अलावा दो दर्रों का भी उसने ज़िक्र किया है जो प्रवेश द्वार थे। लेकिन साथ ही उसने ये भी लिखा कि शहर उजाड़ और वीरान था। गुप्तकाल के बाद संभवत: शहर का पतन हो गया था हालंकि इसकी वजह नहीं पता है।
राजगीर के इतिहास के बारे में 19वीं शताब्दी में ही पता चला और तभी इसे मान्यता मिली। 19वीं शताब्दी के स्कॉटलैंड के प्रसिद्ध भूगोल, वनस्पति और प्राणी वैज्ञानिक फ़्रांसिस बुकानन ने सन 1811 में मौजूदा समय के बिहार और उत्तर प्रदेश के स्मारकों और प्राचीन वस्तुओं का अध्ययन किया और दिलचस्प खोज पर एक रिपोर्ट तैयार की। सन 1861 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संस्थापक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने बोध गया और राजगीर की यात्रा के दौरान एक महत्वपूर्ण खोज की। सन 1950 में प्रसिद्ध भारती पुरातत्वविद अमलानंद घोष ने भी यहां छोटे पैमाने पर खुदाई करवाई थी।
राजगीर आज अंतरराष्ट्रीय बौद्ध तथा जैन धर्म के दायरे का एक हिस्सा है जहां दुनिया भर से सैलानी और श्रद्धालु आते हैं।
आवरण छवि- गिद्धकुता अथवा वल्चर पीक/विकीमीडिया कॉमंस
क्या आपको पता है सन 1930 के दशक में जब डॉ. भीमराव आंबेडकर मुम्बई में बस गये थे तब उन्होंने अपने निवास का नाम प्राचीन राजगीर के बैद्ध-स्थल राजगृह के नाम पर रखा था।
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