या देवी सर्वभुतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमों नमः।।
हमारा भारत हमेशा से ऋषि-मुनियों, संत-महात्मओं और देवी-देवताओं का देश रहा है। राजस्थान की भूमि शूर वीरों और शक्ति उपासकों की धरा रही है । यहां हर गांव-ढ़ाणी क़स्बे में भव्य मंदिर और कई जन आस्था के स्थलों के रूप में थान, चबुतरे देखने को मिलते हैं। इन जगहों पर आमजन भक्ति भाव से दर्शन कर ख़ुद को धन्य मानते हैं। जहाँ संत-महात्मओं ने कठोर तप कर मानव कल्याण के मार्ग प्रशस्त कर विश्व शांति की अलख जगाई, वहीं साधकों ने कठोर उपासना और जप-तप-पूजा के माध्यम से अपने ईष्ट देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का हर संभव प्रयास किया । यहाँ शक्ति के लिए सामान्यता माता या देवी माँ शब्द का प्रयोग किया जाता है। मारवाड़ क्षेत्र में गृहस्थी शुक्ल पक्ष की अष्टमी, नवमी अथा चतुर्दशी को माता की ज्योती (जोत) के दर्शन करते हैं।
शक्ति पूजा का यह अति सरल तरीक़ा रहा है। राजस्थान में कुलदेवी की आराधना शक्ति-पूजा के रूप में करने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। वेद, पुराण सहित अन्य कई पौराणिक ग्रन्थों में मातृशक्ति का उल्लेख मिलता है। राजस्थान में प्रत्येक राजवंश की स्थापना के साथ देवी शक्ति का सूत्र जुड़ा हुआ है। एक ओर जहाँ कुलदेवी के आशीर्वाद से यहां के शासक अपना विशाल राज्य स्थापित करने, युद्धों में विजय होने तथा अपने राज्य का चहुँमुखी विकास करने में सफल हुए । वहीं, यहाँ के शासकों ने अपनी-अपनी कुलदेवीयों के प्रति गहरी आस्था और विश्वास रखते हुए अनेक मंदिरों का निर्माण भी करवाया था। जो इतने वर्षों बाद भी जन-जन की आस्था के प्रमुख केन्द्र बने हुए हैं।
राज्य में 7वीं से 14वीं सदी तक प्रमुख रूप से प्रतिहार, पंवार, परमार, गुहिल, सोलंकी, चौहान, तंवर, गौड़, राठौड़, कच्छवाह, इन्दा और शाला वंश का शासन रहा था। इस दौरान नवदुर्गा के नौ रूपों के अलावा विविध रूप व नामों से लोकदेवीया पूजी जाती रही हैं।इनमें से मुख्य रूप से करणी माता, जमवाय माता, सचियाय माता, जीण माता, नागणेची माता, खीमेल माता,
सकराय माता, मनसा माता, चौथ माता, कैला या अंजनी माता, हिंगलाज माता, ज्वाला माता, आशापुरा व शाकम्भरी माता, भादरिया व तनोट माता, चामुण्डा माता, बायण माता, कैवाय माता, आई जी माता, सुंधा माता, धनोप माता, क्षेंमकरी, चिलाय, भ्रमर माता, पाडूका, दधिमती माता, फलवर्धिका माता, उष्ट्रवाहिनी, ब्राह्मणी, अरबुदा माता और इन्द्रबाईसा सहित राज्य में प्रमुख सभी गौत्र के साथ उनकी अलग-अलग कुलदेवियों के प्रति गहरी आस्था जुड़ी हुई है।
राज्य के बांकीदास की ख्यात सहित अन्य ग्रन्थों में इन देवीयों का उल्लेख है। विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न जाति-गौत्र के लोग, अपनी श्रद्धानुसार देवी पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं। इन शक्ति-पीठों का अपना अलग इतिहास रहा है। इनमें से एक ऐसा मंदिर भी है जहाँ विराजमान देवी मूर्ति, मदिरा का सेवन करती है।
भंवाल माता का मंदिर :
राजस्थान की धरती चमत्कारों और आध्यात्म में हमेशा से अग्रणी रही है। इसी आध्यात्म ने जहां आस्तिकों के सामने चमत्कार किये, वहीं नास्तिकों को निरून्तर भी कर दिया । यहां गांव-गांव और गली-गली में ऐसे आश्चार्य छिपे हुए हैं कि उन्हें सुनने पर एक बार तो किसी को विश्वास हीनहीं होता । यदि किसी से कहा जाये कि पत्थर की एक मूर्ति मदिरा का सेवन करती है तो यह विश्वास करना मुश्किल होगा। कोई इसे जादू तो कोई इसे तंत्र-मंत्र तो कोई इसे दैविय चमत्कार कहेगा मगर सैकड़ों लोगों की आंखों देखी बात असत्य तो नहीं हो सकती। यह मंदिर नागौर ज़िले के मेड़ता सिटी से 25 कि.मी. दूरी पर भंवाल गांव में है। यहाँ विराजमान देवी प्रतिमा अपने भक्तों की ओर से, प्रसाद के रूप में लाई गई बोतल में से मात्र ठाई प्याला मदिरा प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करती है। वैसे तो यहाँ प्रतिदिन सैंकड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं लेकिन विशेष रूप से चैत्र और अश्विन माह के नवरात्रि के दौरान यहाँ देश-विदेश से भक्त अपनी मनोकामनाएँ लेकर पहुँचते हैं। गर्भगृह में स्थापित रूद्राणी (कालीका) प्रतिमा को पुजारी एक प्याले में मदिरा लेकर, तीन बार होठों को स्पर्श कराते हैं, जिसमें से दो प्याले पूरे और तीसरा प्याला आधा खाली हो जाता है। तीसरे प्याले में से शेष बची हुई मदिरा भैरव प्रतिमा को चढ़ाई जाती है। वही दूसरी प्रतिमा जो ब्राह्मणी माता है, उनको मीठी प्रसादी चढ़ाई जाती है।
मंदिर परिसर में बीड़ी, सिगरेट, ज़र्दा या चमड़े से बना सामान व्रजित होती है। वर्षा काल में भक्त, चूरमा, बाटी की सवामणी भी विभिन्न अवसरों पर यहां चढ़ाते हैं। यहाँ भक्तगण अपने बच्चों के मुण्डन, जन्मोत्सव, विवाह के बाद नव दम्पती द्वारा जात लगायी जाती है। वर्तमान में गोस्वामी परिवार पुजा-अर्चना करता है । लाडनू, बीदासर, चुरू क्षेत्र के बैगाणी महाजन परिवार नवरात्रि में नौ दिनों तक यहाँ आकर विधिवत पूजा-अर्चना करते हैं। इन परिवारों ने दूर-दराज़ से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए धर्मशालाओं का निर्माण भी करवाया गया है।स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले यह गाँव कुचामन ठिकाने की जागीर में था। इस गाँव को भुवाल भी कहाँ जाता है जो भूपाल शब्द का अपभ्रंश है।
मंदिर की स्थापत्य कला :
यह मंदिर प्राचीन स्थापत्य-कला एवं पुरातात्विक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण स्थल रहा है। इस मंदिर के गर्भगृह में देवी कालीका एवं ब्राह्मणी की पत्थर की मूर्तियां विराजमान हैं। इन दोनों प्रतिमाओं के पास भैरव भगवान की प्रतिमा भी मौजूद है। मंदिर के एक पत्थर के स्तभ्म पर संवत 1170, ज्येष्ठ वदि 10 का लेख अंकित हैं जिसमें चौहान शासकों द्वारा जीर्णोद्वार करवाने का उल्लेख है। इस मंदिर की परिक्रमा में भगवान गणेश, छः हाथों वाली त्रिमूर्ति ब्रह्म, विष्णु, महेश, महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति के अलावा बाहरी भाग में सैकड़ों की संख्या में विभिन्न देवी- देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं। इनकी नक़्क़ाशी और उत्कृष्ट खुदाई प्राचीन काल की स्थापत्य-कला की भव्यता को दर्शाती है।
पुरातात्व की दृष्टि और इतिहासकारों के अनुसार यह मंदिर अपने मूल निर्माण के समय-विष्णु भगवान (वराह अवतसर) को समर्पित पंचाचतन मंदिर रहा था। जिसमें मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर बने हुए थे। जो किसी अन्य देवी को समर्पित थे। मंदिर में नवग्रह के अलावा त्रिमुर्ति, शिव-पार्वती, नृसिंह अवतार, भगवान कार्तिकेय, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि मूर्तिया स्थापत्य कला का बैजोड़ उदाहरण हैं। इस मंदिर का समय समय पर जीर्णोद्वार होता रहा है। यह मंदिर भारतीय इतिहास और पुरातात्विक के महत्व को अपने में समेटे हुए जो आज भी देवी उपासकों का श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है।
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