मध्यकालीन युग में सारे विश्व में भारत अचंभों का देश माना जाता था। मसाले, रेशम, क़ीमती मोतियों और यहां तक कि धर्म की तलाश में विदेशी यात्री यहां आया करते थे। इनमें कुछ नामों से हम परिचित है जैसे यूनान का मैगस्थनीस, चीन का ह्वेन त्सांग, फ़ारस का अल बरुनी, मोरक़्क़ो का इब्न बतुता और इटली का मार्को पोलो। इन सभी के यात्रा वृत्तांत इतिहास में दर्ज हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि अफ़नासी निकितिन नाम का एक रुसी यात्री भी था जो 15वीं शताब्दी में भारत आया था और उसने अपने अनुभव के बारे में एक यात्रा वृत्तांत भी लिखा था? इस यात्रा वृत्तांत से भारत औऱ रुस के बीच 500 साल पुराने संबंधों का भी पता चलता है।
अफ़नासी निकितिन का जन्म रुस के शहर त्वेर में हुआ था जो उस समय व्यापार का केंद्र था। यहां विश्व के कोने कोने से व्यापारी आते थे और उनके पास कई तरह की चीज़ों के बारे में ख़बरें होती थीं और उन कहानियों में भारत का बड़ा योगदान होता था। ये वो समय था जब भारत पर बहमनी सुल्तानों का शासन था जिनके फ़ारस के साथ व्यापारिक संबंध थे। भारत के बारे में तमाम ख़बरें सुनने के बाद निकितिन ने यहां आकर अपनी क़िस्मत आज़माने का फ़ैसला किया। उसने सुना था कि भारत में अच्छे क़िस्म के घोड़े नही होते इसलिये वह अपने साथ एक घोड़ा लेकर आया था ताकि उसे बेचकर अच्छी रक़म कमाई जा सके। बहरहाल, निकितिन और उसका घोड़ा मध्यपूर्व में होरमुज़ बंदरगाह पहुंच गए जहां से वे एक टूटेफूटे जहाज़ में अरब सागर के ज़रिये भारत रवाना हो गए।
भारत-यात्रा के दौरान निकितिन कई जगहों पर रुका और उसने अपनी किताब ‘जर्नी बियोंड थ्री सीज़’ में सारा यात्रा वृत्तांत लिखा। काला सागर और कैस्पियन सागर मार्ग से होते हुए वह पहले ईरान पहुंचा और फिर ओमान। इसके बाद वह सन 1469 में भारत के पश्चिमी तट पर उतरा। निकितिन कैम्बे (खंभाट) बंदरगाह पर उतरा था। वहां कुछ नील ख़रीदकर वह महाराष्ट्र की तरफ़ बढ़ गया जहां रायगढ़ ज़िले के चौल गांव में अपना अंतिम डेरा जमाया।
यहां आने पर उसे ये देखकर हैरानी हुई कि लोग बिना कपड़ों के घूमते हैं। उनके न तो सिर पर और न ही छाती पर कोई कपड़ा होता था और उनकी तोंद दिखती रहती थी। हालंकि उसने माना कि लोग भले ही कपड़े न पहनते हों लेकिन ज़ैवर ज़रुर पहने रहते थे। निकितिन के लिये जहां स्थानीय लोग एक अचंभा थे, वहीं इन लोगों के लिये भी निकितिन अंचंभे से कम नहीं था और वह उसका पीछा करते रहते थे।
उस समय स्थानीय शासक एक मुसलमान था जो बहमनी सुल्तान मोहम्मद शाह तृतीय (1463-1482) के मातहत था। सुल्तान चूंकि गद्दीनशीं होने के समय बच्चा था इसलिये महमूद गवां बतौर वज़ीर राजपाट देखता था। महमूद गवां बहुत शक्तिशाली था और उसे मालिक-ए-तुज़्ज़ार का ख़िताब मिला हुआ था। निकितिन उसे तुज़्ज़ार कहा करता था।
बहमनी सुल्तान की राजधानी बीदर हुआ करती थी, सो निकितिन ने बीदर जाने का फ़ैसला किया।उसने अपनी किताब में लिखा कि बीदर के बाज़ार में घोड़े, ज़रीवाला रेशम और अश्वेत लोग बिकते थे। निकितिन ने भी यहां अपना घोड़ा इतने अच्छे दामों में बेचा कि उसकी यात्रा का पूरा ख़र्च निकल गया। बीदर के महल के सात दरवाज़े होते थे और हर दरवाज़े पर सैकड़ों सशस्त्र गार्ड पहरा देते थे। वहां सैंकड़ों मुंशी आने-जाने वालों के नीम दर्ज करने के लिये बैठे होते थे। महल पूरी तरह सोने की नक़्क़ाशी से सजा हुआ था। उसने लिखा है कि हाथी सवारियां ढ़ोया करते थे और हाथी की पीठ पर लगे होदे पर बारह बारह लोग बैठे होते थे।
निकितिन ने उलु बैरम (ईद) के दौरान शाही जुलूस का बहुत चित्रोपम वर्णन किया है। उसने लिखा कि सुल्तान और उसके मुख्य अतिथि तीन सौ हाथियों के साथ जुलूस में निकले थे। इसके अलावा जुलूस में सशस्त्र सिपाही भी थे। इस क़ाफ़िले में घोड़े भी थे जिनकी ज़ीन सोने की थी। जुलूस में सुल्तान के हरम की महिलाएं थीं और ख़ूब नाच-गाना हो रहा था। खूबसूरत कपड़ों में सजा एक प्रशिक्षित हाथी, जिसके मुंह में लोहे की एक बड़ी चेन थी, लोगों और घोड़ों को सुल्तान से दूर रख रहा था। निकितिन ने बहमनी सल्तनत और विजयनगर साम्राज्य के बीच, दक्कन पर क़ब्ज़ा जमाने के लिये हुये युद्ध का भी उल्लेख किया है।
ऐसा नहीं है कि निकितिन सभी चीज़ों से प्रभावित हो गया था। उसने लिखा है कि एक तरफ़ जहां उच्च जाति के लोग रेशम के कपड़े पहनते थे वहीं दूसरी जाति के तन पर कपड़ा ही नहीं होता था। निकितिन के अनुसार मुस्लिम व्यापारियों ने उसे ये कहकर गुमराह किया था कि भारत विपुलता का देश है। लेकिन उसे ऐसी कोई चीज़ नहीं मिली जो वो अपने देशवासियों के लिये ख़रीद सके। नील और काली मिर्च हालंकि सस्ती थी लेकिन विदेशी व्यापारियों को इन पर अधिक कर देना पड़ता था और इसके अलावा समुद्री डाकुओं की वजह से इन्हें समुद्र मार्ग से ले जाना भी ख़तरों से ख़ाली नहीं था।
खानपान के बारे में निकितिन का कहना था कि पुरुष गोश्त,मुर्ग़ा,अंडे और सूअर खाते थे लेकिन गाय का गोश्त नहीं खाते थे। आम खानपान में चावल, खिचड़ी, सब्ज़ियां और दूध होता था तथा नारियल से शराब बनाई जाती थी। बैल के गोबर के कंडों को जलाकर रोटियां और खाना बनाया जाता था और आग बुझने के बाद लोग इसकी राख अपने चेहरे, माथे और बदन पर लगाते थे।
निकितिन लिखता है कि एक बार वह धार्मिक नगरी पर्वत गया था जहां का मंदिर उसे बहुत पसंद आया था। मंदिर से निकितन का आशय शायद आंध्र प्रदेश में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर से होगा। उसने कहा कि मंदिर परिसर उसके पैतृक शहर त्वेर से आधा था। यहां हज़ारों की तादाद में श्रद्धालु पैदल या बैल गाड़ियों में आते थे।
निकितिन के अनुसार उस समय भारत में 84 धर्मों को मानने वाले लोग थे और सभी लोग भगवान में विश्वास रखते थे। लोग अलग अलग आकार के बुतों की पूजा करते थे। इनमें हाथी की शक्ल (गणेश) और बंदर की शक्ल (हनुमान) के बुत भी शामिल थे। अलग अलग धर्मों को मानने वाले एक साथ न एक साथ खाते पीते थे और न ही उनमें आपस में शादियां होती थीं।
निकितिन रायचुर औऱ गोलकुंडा के पास हीरों की खान देखने भी गया था जहां से हीरे का व्यापार पूरे विश्व में होता था। उसने हीरों की क़िस्मों और क़ीमत के बारे में भी लिखा। निकितिन ने कालीकट और सीलोन ( श्रीलंका) का भी ज़िक्र किया लेकिन विद्वानों को शक़ है कि वो कभी इन जगहों पर गया होगा। कालिकट के बारे में वह लिखता है कि ये व्यापार का केंद्र था। कालिकट के पास काली मिर्च, रंग बनाने वाले पेड़ों, सुपारी, कर्पूर, दालचीनी, अदरक और हर तरह के मसालों की पैदावार होती थी। इन मसालों को विदेश में बेचा जाता था। सीलोन हीरे-मोती और अच्छी नस्ल के हाथियों के लिये मशहूर था।
इतने समय तक भारत में रहने के बाद निकितिन को अपने घर की याद सताने लगी। वह लिखता है कि घर छोड़ने के बाद ईस्टर का त्यौहार चार बार आ चुका है और इस दिन वह तारों को निहारकर दिल को तसल्ली दे रहा है। निकितिन ईसाई धर्म को मानने वाला था लेकिन कई बार उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की गई हालंकि उसने भारत में अपना नाम ख़ोजा यूसुफ़ खोरासानी रख लिया था।
तीन साल तक भारत में रहने के बाद निकितिन वापस रुस रवाना हो गया। वह महाराष्ट्र के डाभोल से इथोपिया और फिर मस्क़त गया। लेकिन चूंकि उसकी किताब अचानक ही ख़त्म हो जाती है, इसलिये लगता है कि त्वेर पहुंचने के पहले ही सन 1472 में स्मोलेंस्क के पास निकितिन की मौत हो गई होगी। स्मोलेंस्क त्वेर से 400 कि.मी. दूर था।
निकितिन न तो कोई दार्शनिक था और न ही कोई विद्वान लेकिन उसके पास चीज़ों को देखने और उन्हें समझने की ज़बरदस्त क़ुव्वत थी जो उसके लेखन में साफ़ नज़र आती है। उसने भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व्यवस्था और जीवनशैली का गहराई से अध्ययन किया था जो हमारे लिये आज भी भारतीय समाज को समझने में मदद करता है। उसकी किताब में जिस भारतीय जीवन का चित्रण है उस पर सन 1957 में हिंदी और रुसी भाषा में फ़िल्म बनी थीं। हिंदी फ़िल्म का नाम परदेसी था जिसमें महमूद गावां की भूमिका पृथ्वीराज कपूर ने अदा की थी, निकितिन की भूमिका रुसी कलाकार ओलेग स्त्रिझनोव और स्थानीय लड़की चंपा की भूमिका नरगिस दत्त ने निभाई थी।
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