राजस्थान में उदयपुर से क़रीब 50 कि.मी. दूर स्थित है मंदिरों की नगरी नाथद्वारा। यहां आते ही आप भक्तिभाव में सराबोर हो जाते हैं। आपकी नज़र जहां जाएगी ,वहीं आपको कृष्ण दिखेंगे यानी पूरी नगरी कृष्णमय है। कृष्ण की छवियों में सबसे प्रसिद्ध है पिछवाई जो एक तरह की चित्रकला है। इसमें कपड़ों पर कृष्ण के चित्र बनाये जाते हैं। पिछवाई शब्द से किसी ऐसी चीज़ का आभास होता है जो पीछे की तरफ़ लटकी हो। लेकिन ये शब्द इतना मशहूर हो गया कि ये पुष्टिमार्ग की इस कला’ का पर्यायवाची बन गया है।
नाथद्वारा माखन चोर यानी कृष्ण के प्रति समर्पित एक नगर है। ये नगर कभी एक गांव हुआ करता था जिसका नाम सिंहाद था। लेकिन तभी एक अजीब घटना हुई, बिल्कुल दैवीय घटना की तरह, जिसने इसकी कायाकल्प कर दी। लेकिन इसके पहले कि हम इस बारे में कुछ और बताएं, चलिये जानते हैं पुष्टिमार्ग के उद्भव के बारे में। पुष्टिमार्ग वैष्णव धर्म का एक पंथ है और ये शहर इसी पंथ का एक महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थल है।
भक्ति आंदोलन की शुरुआत मौजूदा तमिलनाडु में 6 ठी और 7वीं शताब्दी में हुई थी। ये आंदोलन बाद में 15वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान पूरे भारतवर्ष में फैल गया। वल्लाभाचार्य एक तेलुगु ब्राह्मण थे जो उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र में रहते थे। ये वो दौर था जब दिल्ली सल्तनत का पतन हो रहा था और मुग़ल साम्राज्य का उदय। वल्लाभाचार्य ने 15वीं शताब्दी के अंत और 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में पुष्टिमार्ग पंथ की स्थापना की थी। पुष्टिमार्ग का शाब्दिक अर्थ ‘दया का मार्ग’ होता है। वल्लाभाचार्य भक्तिकाल के एक महत्वपूर्ण हस्ती थे और उन्होंने वैराग्य और साधुत् के विचार को ख़ारिज कर दिया था। उनका मानना था कि कृष्ण के प्रति समर्पण ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग है। उनके इसी विश्वास ने देश में समर्पण की एक अद्भुत बुनियाद डाली।
दिलचस्प बात ये है, कि शुरुआत में पुष्टिमार्ग पंथ को कई मुग़ल बादशाहों, ख़ासकर अकबर का संरक्षण मिला। अकबर, पंथ की गतिविधियों से प्रभावित थे और उन्होंने राजशाही के लिये प्रार्थना के बदले कर में कुछ छूट भी दी थी। कपड़ों के जानकार डॉ. कल्याण कृष्ण जैसे कुछ विद्वानों के अनुसार पिछवाई परंपरा मुग़ल कपड़ों, ख़ासकर टेंट जिसे शामियाना या कनात भी कहा जाते है, पर चित्रकारी से प्रभावित रही होगी।
पुष्टिमार्ग पंथ की स्थापना उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र में हुई थी। लेकिन राजनीतिक परिदृश्य बदलने से, औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान होनेवाली प्रताड़ना से बचने के लिये, सन 1672 में इस कला को यहां लाया गया। बताया जाता है कि औरंगज़ेब ने मथुरा में कृष्ण की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया था।
नाथद्वारा में प्रचलित लोक-कथाओं के अनुसार सन 1669 में जब औरंगज़ेब ने मंदिरों को नष्ट करने की धमकी दी तब तिलिकायत दामोदर प्रथम (1667-1704) को शहर से भागना पड़ा ता और वह अपने साथ श्रीनाथजी की छवि भी ले गये थे। उदयपुर के महाराणा राज सिंह (1652-80) ने उन्हें और श्रीनाथजी को अपनी राजधानी बुलाया। कहा जाता है कि महाराणा राज सिंह ने उन्हें सुरक्षित लाने के लिये एक लाख राजपूत सैनिकों की फ़ौज भेजी थी। लेकिन उदयपुर से 50 कि.मी. दूर बैलगाड़ी, जिसमें कृष्ण की छवि रखी थी, वह मिट्टी में धंस गई और जिसे बाहर नही निकाला जा सका। इस घटना को एक दैवीय संकेत माना गया और सन 1671 में सिंहाद गांव के एक नये मंदिर में श्रीनाथजी ने इस छवि को प्रतिष्ठित कर दिया। चमत्कार के सम्मान में गांव का नाम नाथद्वारा रख दिया गया, मतलब भगवान का द्वार।
कृष्ण की छवि के स्थानांतरण ने कृष्ण भक्ति और कृष्ण के चित्रण के एक नये युग की शुरुआत कर दी। नाथद्वारा में मंदिर की स्थापना से आकृष्ट होकर आदि गौड़ और जानकी ब्राह्मण पंथ के कलाकार नाथद्वारा आ गए। इस तरह से उनकी परंपरा और कलात्मक परंपरा का समागम हो गया। कई कलात्मक परम्पराएँ मेवाड़ में पहले से भी मौजूद थी।
इस विषय पर और जानने के लिये लिव हिस्ट्री इंडिया ने अहमदाबाद स्थित प्रतिष्ठित कलाकार और पुष्टिमार्ग के जानकार अमित अंबालाल से बात की। अंबालाल ने “कृष्ण एज़ श्रीनाथजी:राजस्थानी पैंटिंग्स फ़्रॉम नाथद्वार”नाम की किताब लिखी है जो सन 1987 में प्रकाशित हुई थी। इसे इस विषय पर लिखी गई मौलिक किताबों में माना जाता है।
अंबालाल के अनुसार दरअसल मंदिर कृष्ण का निवास है। नाथद्वारा नगर अपने आप में ही ब्रज है, जो कृष्ण का पैतृक निवास है। यहां बहने वाली नदी यमुना है और मंदिर के बारह द्वार कृष्ण के बारह कुंज हैं।
मंदिर में कृष्ण की छवि की, पुजरी और भक्त, एक बच्चे की तरह देखभाल करते हैं। सुबह की शुरुआत होती बालक कृष्ण को जगाने के साथ । इसके बाद उन्हें स्नान कराया जाता है। श्रंगार किया जाता है। सुबह आरती होती है, भोजन दिया जाता है और फिर सुलाया जाता है। दिन में आठ बार श्रद्धालुओं को उनके दर्शन करने दिये जाते हैं। इनमें आरती और श्रृंगार के समय के दर्शन सबसे अधिक महत्वपूर्ण माने जाते है। कृष्ण की छवि की पृष्ठभूमि में पिछवाई होती है।
अंबालाल ने पुष्टिमार्ग पंथ के बारे में एक दिलचस्प बात लिखी है कि कृष्ण भक्ति सच्चे समर्पण से उपजती है और भक्तों का ह्दय तथा आत्मा भगवान पर केंद्रित रहता है। अंबालाल आगे लिखते हैं कि सच्चा भक्त हर तरह से रसिक होता है पुष्टिमार्ग से प्रेरित कला में इसकी झलक मिलती है। यही वजह है कि पुष्टिमार्ग और नाथद्वार दोनों को उनकी कला और भोजन के लिये जाना जाता है। पिछवाई पैंटिंग्स और छप्पन भोग नाथद्वारा के दो महत्वपूर्ण योगदान हैं।
पिछवाई कपड़े पर हाथों से की गई चित्रकारी है जो मंदिर की दीवारों पर लटकी रहती हैं। ये नाटकीय भी होती हैं और भक्तिपरक भी। ज़्यादातर पिछवाई पैंटिंग में कृष्ण को श्रीनाथजी के रुप में दिखाया जाता है। इसमें सात साल के कृष्ण गोवर्धन पर्वत उठाए नज़र आते हैं।
दिलचस्प बात ये है कि पुष्टिमार्ग की स्थापना के पहले कपड़े पर पैंटिंग की तुलना में लकड़ी, लोहे या फिर पत्थर की मूर्तियों को ज़्यादा महत्व दिया जाता था। माना जाता था कि ये वस्तुएं भगवान की आध्यात्मिक उपस्थिति के लिये एकदम अनुकूल हैं। कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के कला इतिहासकार जॉन लिस्पैड के अनुसार ये सब तब बदल गया जब वल्लाभाचार्य ने कहा कि मूर्ति और पैंटिंग दोनों में भगवान विराजमान हो सकते हैं। इस तरह कृष्ण न सिर्फ़ पत्थर और लोहे की मूर्ति में विराजमान हो सकते हैं बल्कि पैंटिंग में हो सकते हैं। इसीलिये हम पाते हैं कि हिंदू धर्म के कुछ ही संप्रदायों ने पैंटिग को उतना महत्व दिया है जितना पुष्टिमार्ग ने दिया है।
अमित अंबालाल बताते हैं कि पुष्टिमार्ग एकमात्र ऐसा पंथ है जहां पृष्ठभूमि में पिछवाई पैंटिंग होती है। फूलों से बनाई गयी पिछवाई का आरंभिक उल्लेख 16वीं शताब्दी के अष्ठछाप कवियों की कविताओं में भी मिलता है। ये आठ कवि वल्लाभाचार्य के अनुयायी थे जो बहुत पढ़े-लिखे थे। इन्होंने पंथ के लिये कविताएं लिखी थीं। अंबालाल के अनुसार सन 1730 में पहली बार कपडे से बनी पिछवाई का उल्लेख मिलता है।
पिछवाई पैंटिंग में कृष्ण के जीवन के कई वृतांत हैं। इसके अलावा शरद पूर्णिमा, रासलीला, अन्नकूट या गोवर्धन पूजा, जन्माष्टमी, गोपाष्टमी, नंद महोत्सव, दीवाली और होली जैसे त्यौहार का चित्रण इनमें देखा जा सकता है। मुख्य मंदिर में पिछवाई पैंटिंग नियमित रुप से त्यौहार और मौक़े के अनुसार बदली जाती है।
पैंटिंग को प्रतिष्ठित करने और पूजा योग्य बनाने के पहले पुजारी इसका अध्ययन करते हैं और तभी भोग लगाया जाता है। अमित अंबालाल के अनुसार नाथद्वारा पिछवाई में हरा रंग प्रमुख होता है। ये रंग कृष्ण और राधा के मिलन को दर्शाता है। नीला रंग कृष्ण और पीला रंग राधा के लिये इस्तेमाल किया जाता है। हरा रंग दोनों के मिलन का प्रतीक है।
ज़्यादातर पिछवाई पैंटिंग में हरीभरी ज़मीन, पेड़, गाय, अन्य पशु और पक्षी देखे जा सकते हैं। दरअसल पिछवाई में श्रद्धा और उल्लास छलकता है। दिलचस्प बात ये है कि वैष्णव संप्रदाय में बेहद लोकप्रिय दशावतार विषय नाथद्वारा की कला-परंपरा का हिस्सा नहीं है। एक अन्य दिलचस्प तथ्य ये है कि पिछवाई परंपरा दक्कन में भी विकसित हुई जो नाथद्वारा पिछवाई से प्रेरित है। इस परंपरा में चित्रकारी गहरी पृष्ठभूमि में की जाती है और इसमें सुनहरे रंगों का प्रयोग किया जाता है। दक्किनी पिछवाई में कृष्ण को प्रतीकात्मक रुप में दिखाया जाता है।
एक तरफ़ जहां चित्रकारी वाली पिछवाई पैंटिंग विख्यात है वहीं कशीदाकारी, मुद्रित और मशीन से बनी हुई पिछवाई भी होती है जिनके बारे में लोग इतना नहीं जानते। हालंकि टैक्सटाइल (कपड़ा) पैंटिंग कला का सबसे लोकप्रिय रुप है लेकिन इसी तरह की पैंटिंग काग़ज़ और नाथद्वारा की दीवारों पर भी बनाईं जाती हैं। ये परंपरा आज भी जारी है। नाथद्वारा नगरी जाने पर आप शहर की दीवारों पर विभिन्न भावों में कृष्ण के चित्र देख सकते हैं।
पिछवाई पैंटिंग की लोकप्रियता एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी है कि पुष्टिमार्ग ने चित्रसेवा को बढ़ावा दिया था जो उस समय एक अनूठी बात थी। इससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिला क्योंकि उनकी कलाकृतियां का इस्तेमाल न सिर्फ़ मंदिरों में होता था बल्कि श्रद्धालू भी इन्हें घर ले जाकर इनकी पूजा करते थे।
आज पिचवाई पैंटिंग ज़्यादातर काग़ज़ और कपड़ों पर की जाती है। आज पिछवाई चित्रकारी में खनिज और जैविक रंगों की बजाय आधुनिक रसायनिक (एक्रेलिक), ऑयल और वॉटर रंगों का प्रयोग होता है लेकिन श्रृद्धा का भाव नहीं बदला है।
ख़ुशी की बात ये है कि नाथद्वारा की चित्रकारी परंपरा आज भी ज़िंदा है। नाथद्वार में चित्रकार आज भी हर दिन नगर की दीवारों को पिछवाई कलाकृति से सजा रहे हैं।
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