लखनऊ शहर के पश्चिम छोर यानी गोमती नदी के तट पर मूसा बाग़ के अवशेष हैं जो देखने में भूतहा लगते हैं लेकिन उसमें गुज़रे ज़माने की शाही आभा भी नज़र आती है। भारतीय- यूरोपीय शैली में बनी इस कोठी के अवशेषों को देखकर इसके गौरवशाली समय को आज भी मेहसूस किया जा सकता है। शहर से दूर इस कोठी में अवध के छठे नवाब सआदत अली ख़ां (1798-1814) शग़ल के लिये यहां वक़्त बिताया करते थे। कोठी के साथ शाही अतीत तो जुड़ा ही हुआ है लेकिन इसका समृद्ध और रहस्मय इतिहास भी है। सन 1857 के बग़ावत के दौरान ये क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करता था। इसके अलावा इसके साथ भूत-प्रेत की कहानी भी जुड़ी हुई है जो इसमें और भी दिलचस्पी पैदा कर देती है।
अवध के नवाब शान-ओ-शौक़त वाली जीवन शैली और मेहमान नवाज़ी के लिये जाने जाते थे। वे अपने दोस्तों, मेहमानों, उच्चाधिकारियों और सहयोगियों को प्रभावित करने के लिये शानदार दावतें करते थे और कार्यक्रमों का आयोजन करते थे। उनके सहयोगियों में अमूमन यूरोपीय लोग होते थे। मूसा बाग़ में किसी समय विशाल और ख़ूबसूरत बाग़ हुआ करते थे। यहां मेहमानों के मनोरंजन के लिये बाघों, दरियायी घोड़ों, हाथियों और भैंसों की लड़ाई का आयोजन किया जाता था। लड़ाई के दौरान मूसा बाग़ जानवारों की चीख़ों से गूंज पड़ता था।
मूसा बाग़- गार्डन ऑफ़ मोज़ेज़ । इसका नाम शायद पैग़बर मूसा के नाम पर रखा गया हो। हालंकि ये स्पष्ट नहीं है कि ऐसा क्यों किया गया था। माना ये भी जाता है कि मूसा शब्द, मस्यर (फ़्रांसीसी भाषा में जिसका अर्थ होता है “श्री”) का बिगड़ा हुआ रुप है। मस्यर का गार्डन या फ्रांसीसी का गार्डन। मूसा बाग़ को एक अन्य नाम से भी जाना जाता था। एक अनुमान के अनुसार ये नाम है “बारोवीन” जो उर्दू के शब्द “बेरुन-ए-शहर” का बिगड़ा रुप है। बेरुन-ए-शहर का अर्थ है शहर के बाहर। चूंकि मूसा बाग़ लखनऊ शहर के बाहर स्थित था इसलिये शायद इसे बोरोवीन के नाम से भी जाना जाता होगा।
लेकिन एक बात जो हम अच्छी तरह जानते हैं वो ये है कि 1803-1804 में आज़मउद्दौला की देखरेख में इस कोठी और इसके बाग़ों का भारतीय-यूरोपीय शैली में निर्माण हुआ था। ये कोठी नदी के तट पर इसलिये बनवाई गई थी ताकि यहां आसानी से पहुंचा जा सके। इसके अलावा यहां से ख़ूबसूरत नज़ारा भी दिखाई देता था। नदी की तरफ़ खुलने वाले विशाल अर्धगोलाकार, बरामदे में बैठकर नवाब और उनके मेहमान आलमगीर मस्जिद मच्छी भवन क़िला, पंच महल, रुमी दरवाज़ा, असफ़ी मस्जिद, बड़ा ईमाम बाड़ा, सुनहरा बुर्ज, दौलत ख़ाना और पक्का पुल जैसी लखनऊ की ख़ूबसूरत इमारतों को निहारा करते होंगे।
मूसा बाग़ में एक हिस्से में चार मंज़िलें और दूसरे हिस्से में नीचे की तरफ़, पानी के पास दो मंज़िलें हुआ करती थीं। यहां लाल मिट्टी की नलियां बनी हैं जिनके ज़रिये नदी की ठंडी हवा ऊपर छत तक जाती थी।
जगह को ठंडा रखने और हवा की आवाजाही की ये एक शानदार व्यवस्था थी। ये शाही कोठी अब खंडहर में तब्दील हो चुकी है लेकिन गुंबद की छत वाली दो विशाल छतरियों, पहाड़ी की ढ़लान में डूबे, बिना छत के हिस्से और मेहराबों तथा शिल्पकारी के अन्य नमूनों से कोठी के सुनहरे समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
छतरियों, इनके गुंबदों और चित्रावली में बेलबूटों की अस्तरकारी से नवाबी दौर के शिल्पकारों और कारीगरों की दक्षता का पता चलता है। कोठी के अवशेषों के कुछ हिस्सों में, ख़ासकर कंगूरेदार स्तंभों पर गहरे लाल रोग़न की सजावट आज भी देखी जा सकती है। सन 1814 में स्मिथ और सन 1858 में डी.एस. डॉजसन ने अपने स्कैचों के ज़रिये कोठी की भव्यता और हरेभरे बाग़ों को दर्शाया है।
लखनऊ में रहने के लिये अंग्रेज़ों को मूसा बाग़ देने की दो बार पेशकश की गई थी, पहली बार नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर (1814-1827) ने और दूसरी बार उनके पुत्र नसीरउद्दीन हैदर (1827-1837) ने। लेकिन दोनों ही बार अंग्रेज़ों ने पेशकश ठुकरा दी। लेकिन फ़रवरी सन 1856 में जब अंग्रेज़ों ने अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-1856) को अपदस्थ कर उनके क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया तब ये कोठी उनके हाथों में चली गई।
एक साल बाद मूसा बाग़ ने, सन 1857 की ब़ग़ावत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लखनऊ में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सशस्त्र क्रांति के दौरान ये वाजिद अली शाह की पत्नी हज़रत महल और पुत्र शहज़ादे बिरजीस क़द्र का शक्तिशाली गढ़ बन गया था। 18 मार्च सन 1858 को कर्नल जैम्स औटरम नें वाजिद अली शाह के आलीशान महल परिसर क़ैसर बाग़ पर कब्ज़ा करने के बाद मूसा बाग़ पर हमला किया लेकिन बेगम हज़रत महल ने शक्तिशाली स्थानीय नेता मौलवी अहमदउल्लाह की मदद से अंग्रेज़ सेना का डटकर मुक़ाबला किया।
इस हमले में क़रीब पांच सौ भारतीय मारे गए और बेगम हज़रत महल तथा शहाज़ादे बिरजीस क़द्र, नेपाल के रास्ते में, बिठौली (अब उत्तर प्रदेश में) चले गए । मौलवी अहमदउल्लाह, पायावन भाग गए जहां 15 जून सन 1858 को उन्हें गिरफ़्तार करके उनका सिर क़लम कर दिया गया।
मूसा बाग़ पर हमले के दौरान अंग्रेज़ अफ़सर कैप्टेन फ़्रैडरिक वेल्स बुरी तरह घायल हो गया था। कोठी के अवशेष के सामने एक अहाते में उसकी क़ब्र है जिसे स्थानीय लोग “कप्तान शाह बाबा की मज़ार” कहते हैं। दिलचस्प बात ये है कि इस अंग्रेज़ अफ़सर को पीर बाबा भी माना जाता है और उसकी क़ब्र को सिगरेट वाले बाबा की मज़ार कहा जाता है। स्थानीय लोक कथा के अनुसार इस अंग्रेज़ सैनिक का भूत कभी कभी सिगरेट की तलाश में क़ब्र से निकलता है और उसे दूर से लोग जब क़ब्र की तरफ़ आते दिखते हैं तो वह वापस क़ब्र में चला जाता है। लोग यहां प्रसाद के रूप में सिगरेट चढ़ाते हैं और उनका मानना है कि इससे उनकी मन्नत पूरी होगी।
मूसा बाग़ हालंकि आज जर्जर अवस्था में है लेकिन स्थानीय सैलानियों और गोरा बाबा के भक्तों के बीच ये आज भी लोकप्रिय है। कोठी का बचा-कुछा वजूद भी अब ख़तरे में है क्योंकि यहां विकास के लिये निर्माण कार्य की योजना शुरू होनेवाली है।
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