महाराष्ट्र के गढ़चिरोली ज़िले को नक्सलवादी गतिविधियों की वजह से ‘रेड ज़ोन’ में रखा गया है. गढ़चिरोली छत्तीसगढ़ के बस्तर से लगी महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित है और ये ज़िला सुरक्षा बलों पर नक्सल हमलों को लेकर ही सुर्ख़ियों में रहता है. लिव हिस्ट्री इंडिया के लेखक अमित भगत ने माड़िया गोंड आदिवासी सामा वेलादी के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए गढ़चिरोली के जंगलों की ख़ाक छानी तब कहीं जाकर उन्हें उनका इतिहास पता चला. सामा वेलादी वो माडिया गोंड आदिवासी थे जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान अपने अद्वितीय साहस/शौर्य के लिए एल्बर्ट मैडल से सम्मानित किया गया था जो उस समय का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार था.
आप अक़्सर रंक से राजा और गुजरे ज़माने के महान लोगों के बारे सुनते रहते हैं . लेकिन क्या आपने कभी किसी ऐसे आम ग्रामवासी के बारे में सुना है जिसने विपरीत परिस्थितियों में ऊंचाईयां हासिल की हों और जिसे एल्बर्ट मैडल समान सर्वोच्च वीरता पुरस्कार मिला हो ? सामा वेलादी एकमात्र ही ऐसे माड़िया आदिवासी थे जिन्हें अंग्रेज़ी हुक़ुमत के समय ये सम्मान मिला था .
दिलचस्प बात ये है कि 1925 में जब उन्हें ये सम्मान मिला था तब ब्रिटेन के लगभग हर प्रमुख अख़बार ने वेलादी की बहादुरी की तारीफ़ करते हुए इस ख़बर को छापा था।
मेरे लिए वेलादी को खोजना महज़ एक इत्तफ़ाक रहा. जनवरी 2019 में चंद्रपुर से मुम्बई मेरा तबादला होने के बावज़ूद मैं उस शहर को नहीं भूल पा रहा था जो चार साल तक मेरा घर रह चुका था. चूंकि इतिहास में मेरी गहरी दिलचस्पी रही है, मैं इस शहर से संबंधित तमाम उपलब्ध दस्तावेज़ तलाशने लगा. चंद्रपुर एक ज़माने में ‘चाँदा’ राज्य हुआ करता था जिस पर गोंडं आदिवासी वंश ने क़रीब पांच सदियों तक राज किया. ये दु:खद और हैरान करने वाली बात है कि इस क्षेत्र में गोंड या मराठा शासन के बारे में बहुत कम रिकॉर्ड्स मौजूद हैं. अपर्याप्त भारतीय रिकॉर्ड्स के अभाव में मुझे ब्रिटिश रिकॉर्ड्स खंगालने (छानने) पड़े.
चंद्रपुर का इतिहास जानने के लिए मैंने ब्रिटिश लाइब्रेरी में उपलब्ध दस्तावेज़, ईस्ट इंडिया कंपनी और भारतीय कार्यालय के रिकॉर्ड्स के अलावा गार्डियन, इलस्ट्रेटेड वीकली और लंदन गैज़ट जैसी तब की पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ा. एक सुबह मैं लंदन गैज़ट का ऑनलाइन अभिलेखागार देख रहा था कि तभी 25 जून 1925 की एक ख़बर देखकर मैं चौंक पड़ा. ये ख़बर चाँदा (चंद्रपुर) के माड़िया गोंड आदिवासी सामा वेलादी को एल्बर्ट मैडल से सम्मानित करने संबंधी थी. वीरता का ये सम्मान उन्हें अंग्रेज़ वन अधिकारी एच.एस. जॉर्ज की जान, एक आदमख़ोर बाघ से बचाने के लिए दिया गया था. ये सम्मान उन्हें किसी और से नहीं बल्कि ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पंचम द्वारा घोषित किया गया था.
ये ख़बर पढ़कर मैं हैरान और दंग रह गया और तभी मैंने इसकी तह में जाने का फ़ैसला किया. शांति के समय, ये एल्बर्ट मैडल उन लोगों को दिया जाता था जो अपनी जान पर खेलकर दूसरों की जान बचाते थे. इस सम्मान की स्थापना 7 मार्च 1866 को रॉयल वॉरंट द्वारा की गई थी और मैडल का नाम हिंदूस्तान की तत्कालीन ब्रिटिश सम्राज्ञी क्वीन विक्टोरिया के पति राजकुमार एल्बर्ट के नाम पर रखा गया था.
सामा वेलादी के इतिहास की तह में जाने के लिए मेरे पास सिर्फ़ दो ज़रिये थे, पहला, आदिवासी हीरो ‘वेलादी सम्माई’ का नाम और दूसरा, चाँदा ज़िले के मुरवाई गांव के पास वो जंगल जहां बाघ नें अंग्रेज़ अफ़सर पर हमला किया था. लेकिन उस समय की घटनाओं की कड़ियां जोड़ना आसान काम नहीं था क्योंकि ये घटना क़रीब 95 साल पहले हुई थी और वो जगह मुझसे कम से कम एक हज़ार कि.मी. दूर थी.
ब्रिटिश शासित ‘मध्य प्रांतों’ का ‘चाँदा’ ज़िला अब दो ज़िलों में बंट चुका है – चंद्रपुर और गढ़चिरोली. मैंने सबसे पहले इन दो ज़िलों के 3800 गांवों की सूची बनाई. मुझे मुरवाई नाम से तो कोई गांव नहीं मिला हालंकि इससे मिलते जुलते नाम के गांव जैसे मोरावाही, मुरमाड़ी, मुड़ेवाही आदि ज़रुर दिखे. मैंने अपने एक दोस्त को चंद्रपुर ज़िले में मोरावाही गांव भेजा जो ताड़ोबा टाइगर रिज़र्व में कुष्ठ रोगियों के उत्थान के लिए काम करने वाले समाजसेवक बाबा आमटे के सोमनाथ प्रोजेक्ट के पास है. लेकिन उसे भी वहां सामा वेलादी का कोई सुराग़ नहीं मिला. यहां तक कि ज़िला प्रशासन और वन अधिकारियों से भी कोई ख़ास मदद नहीं मिली.
रिसर्च के दौरान मुझे भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी वी.टी.पत्की के बारे में पता चला जो 1978-80 में चंद्रपुर ज़िले में अल्लापल्ली डिविज़न के उप वन संरक्षक थे. उनसे मुझे पहला बड़ा सुराग़ मिला. उन्होंने एक गांव के बारे में सुन रखा था जिसका नाम उस वन अधिकारी के नाम पर रखा गया था जिसे सामा वेलादी ने बचाया था. इस गांव का नाम था जॉर्जपेठा!
मैंने नक्शे पर इस गांव को खोजा और पाया कि मुड़ेवाही गांव के पास ‘जार्जपेठा’ नाम की एक जगह है. ये जगह गढ़चिरोली ज़िले के सिरोंचा तेहसील के काफी अंदर थी. आज ये क्षेत्र नक्सल प्रभावित है और रेड कॉरिडोर का हिस्सा है. मैं सामा वेलादी की तलाश में मुंबई से 1100 कि.मी. के सफ़र पर निकल पड़ा. 26 घंटे के लंबे और थकान भरें सफ़र के बाद मैं किसी तरह बामनी रैंज के रैंज फ़ॉरेस्ट पहुंच गया. उस गांव तक पहुंचने के पहले मैंने एक स्थानीय दुभाषिये का इंतज़ाम किया क्योंकि वहाँ के माड़िया गोंड सिर्फ़ तेलुगु और माड़िया बोली ही बोलते थे. ख़ुशक़िस्मती से एक वन कर्मचारी साथ चलने को तैयार हो गया.
मुड़ेवाही गांव पहुंचकर मैं सामा वेलादी के नाती-पोतों से मिलकर दंग रह गया. शुरु में तो वे थोड़े हिचके लेकिन जल्द ही मेरे साथ घुलमिल गए. फिर उन्होंने मुझे वो बेशक़ीमती चीज़ निकालकर दिखाई जिसके लिए मैं इतनी दूर चलकर आया था. ये था एल्बर्ट मैडल जिस पर सामा वेलादी का नाम खुदा हुआ था. वेलादी को इसके साथ 45 एकड़ ज़मीन, चांदी का एक बेल्ट और चांदी का एक बाज़ूबंद भी मिला था.
वेलादी को इसके साथ 45 एकड़ ज़मीन, चांदी का एक बेल्ट और चांदी का एक बाज़ूबंघ भी मिला था।
सामा का पोता लिंगा मुड़ेवाही का सरपंच है. वह मुझे क़रीब 5 कि.मी. दूर उस जगह ले गया जहां बाघ ने अंग्रेज़ अफ़सर पर हमला किया था. ये पैदल यात्रा आसान नहीं थी. पेड़ों से झड़ी सूखी पत्तियों से भरें जंगल से गुज़रते हुए ख़ामोशी ने एक तरह की दहशत सी पैदा कर दी थी. ये ख़ामोशी सूखी पत्तियों पर जूते के पड़ने से होने वाली सरसराहट से ही टूटती थी. बीच बीच में लिंगा उस क्षेत्र में बाघों के हमलों के क़िस्से सुनाता रहा उस कारण दहशत का माहौल और भी बढ़ता गया.
धीरे-धीरे मैं उस 9 नवंबर 1924 की सुबह घटी घटना की कड़ियों को जोड़ने में कामयाब हो गया. दक्षिण चाँदा (अब गढ़चिरोली तेहसील) के तत्कालीन उप वन संरक्षक एच.एस.जॉर्ज पारसेवाड़ा गाँव के कैंप जा रहे थे और बीच में बेजुरपल्ली पहुंचे थे. आज भी बेजुरपल्ली से पारसेवाड़ा का 15 कि.मी. का सफ़र काफी कठिन माना जाता हैं क्योंकि रास्ते में घना जंगल पड़ता है जहां बाघ, तेंदुए और भालू से अचानक मुठभेड़ हो सकती हैं. ख़तरे को देखते हुए गांव के प्रमुख ने सामा वेलादी को जॉर्ज के साथ भेज दिया.
यात्रा का समय कम करने के लिए जॉर्ज और सामा ने बैलगाड़ी को रास्ते में ही छोड़कर जंगल के बीच से जाने का फ़ैसला किया. जॉर्ज के पास अँग्रेजी बनावट की १२ बोर की बंदूक थी. लेकिन अभी वे कुछ दूर ही चले थे कि एक विशाल आदमख़ोर बाघ ने पीछे से जॉर्ज पर झपट्टा मारकर उनकी गर्दन पकड़ ली और उन्हें घसीटकर ले जाने लगा. जॉर्ज किसी तरह हिम्मत जुटाकर मदद के लिए चीख़े. सामा ने बंदूक चलाने की कोशिश की लेकिन सेफ़्टी लॉक की वजह से चला नहीं सके. इस बीच बाघ और अधिक हिंसक हो चला था और तभी सामा बंदूक़ के दूसरे चौड़े हिस्से से बाघ के सिर पर तब तक वार करता रहा जब तक कि बाघ ने जॉर्ज की गर्दन नहीं छोड़ी .
बाघ लहूलुहान जॉर्ज को छोड़कर सामा की तरफ़ लपका. सामा के पास अपने बचाव के लिए सिर्फ़ बंदूक़ थी, जो उसे चलानी नहीं आती थी. बाघ ने अपने जबड़े से बंदूक़ की नली इतनी ताक़त से पकड़ी कि बंदूक के आगे की छोर से आठ इंच तक उस पर दांत के गहरे निशान पड़ गए! काफ़ी संघर्ष के बाद बाघ वापस जंगल में भाग गया.
जॉर्ज उठा लेकिन ग़श खाकर सामा की बाहों में गिर गया. जॉर्ज के गले में बाघ के चार दांत धंसे थे और चार इंच गहरा ज़ख़्म हो गया था जिससे बहुत ख़ून बह रहा था. बहरहाल, इस दुःस्वप्न का अभी अंत नहीं हुआ था. बाघ को अभी भी ख़ून की गंध आ रही थी और वो उनका पीछा कर रहा था. दोनों को पास ही मुडेवाही के ब्रिटिश कैंप पहुंचना था लेकिन बाघ लगातार उनका पीछा कर रहा था. आख़िरकार सामा ने जॉर्ज को अपने कंधे पर उठाया और कैंप की तरफ़ भागना शुरु किया जो वहां से चार कि.मी. दूर था. ये रास्ता बहुत दुर्गम था और सामा को इस बीहड़ के रास्ते से होकर संकरे टीले और नाले पार करने पड़े.
आख़िरकार सामा जॉर्ज को कंधे पर उठाए कैंप पहुंच गया. बाद में जॉर्ज को चाँदा ले जाया गया और जब वहां उनकी तबीयत कुछ सुधरी तो उन्हें नागपुर के मेयो अस्पताल भेज दिया गया. मेयो अस्पताल में वह पूरी तरह ठीक हो गए.
सामा की बहादुरी पर ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि सामा को एल्बर्ट मैडल से सम्मनित किया जाएगा जो उस शांति समय में सर्वोच्च सम्मान था. ये सम्मान पाने वाले सामा दूसरे असैनिक भारतीय थे. उनके अलावा ये सम्मान नाविक ग़रीब शाह को 1914 में 45 यात्रियों को यमुना नदी में डूबने से बचाने के लिए दिया गया था.
सामा सम्मान लेने चूंकि लंदन नहीं जा सके थे इसलिए उन्हें मध्य प्रांत के मुख्यालय नागपुर बुलाने का फ़ैसला किया गया जहां सर मोंटेगु बटलर ने उन्हें सम्मानित किया. लेकिन गवर्नर हाउस में सम्मान समारोह के पहले तब हलचल सी मच गई जब लोगों ने देखा कि ग़रीब सामा गोंडो के पारंपरिक वेषभूषा में सिर्फ़ लंगोटी पहनकर मैडल लेने पहुंचे.
ये विडंबना ही है कि आज़ादी के बाद सामा के साथ न्याय नहीं हुआ. सम्मान में उन्हें मिली नदी किनारे की उपजाऊ ज़मीन 1950 और 60 के दशक में प्राणहिता नदी की बाढ़ में ढह गई। उनका परिवार आज भी मुआवज़े की लड़ाई लड़ रहा है.
सामा वेलादी का 1968 में निधन हो गया. सामा के सबसे बड़े बेटे 70 साल के जोगा मुझे उस जगह ले गए जहां सामा की स्मारक शिला है. ताड़ी सामा की पसंदीदा शराब थी. ये शराब ताड़ के पेड़ से निकलने वाले रस से बनाई जाती है और इसे बांस से बनी बोतल में रखा जाता है. शायद इसीलिए इस तरह की एक बड़ी बोतल सामा की स्मारक शिला के ऊपर लटकी हुई थी. हर शुभ अवसर पर उनका परिवार यहां उनको श्रद्दांजलि देता है. आदिवासी परंपरा के अनुसार उनका परिवार हर साल अपनी फ़सल का पहला अनाज उनकी स्मारक शिला पर अर्पित करता है.
मैं वापस मुंबई लौट आया. मुझे ख़ुशी है कि मैं इस बहादुर माडिया गोंड हीरो की कहानी दुनियां के सामने ला सका, ऐसी कहानी जो गढ़चिरोली के नक्सल प्रभावित जंगलों में खो गई है.
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