लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा भारत के प्रसिद्ध स्मारकों में से एक माना जाता है। इसे सन 1784 में अवध के नवाब असफ़ उद्दौला ने अकाल पीड़ितों को राहत पहुंचाने के मक़सद से बनाया था। लेकिन कोलकता के पास हुगली नदी के तट पर एक और ऐतिहासिक इमामबाड़ा है जो किसी राजा महाराजा की नहीं बल्कि एक महान बंगाली व्यापारी और समाज सेवक की धरोहर है। इन्होंने सन 1776-77 में आए भयानक अकाल के दौरान पीढ़ितों की मदद में अहम भूमिका निभाई थी।
ये इमामबाड़ा हाजी मोहम्मद मोहसिन (सन 1732-1812) द्वारा वसीयत में एक ट्रस्ट को दिए गए धन से बनाया गया था। सन 1776-77 में बंगाल में आए भयंकर अकाल में जिस तरह से हाजी मोहम्मद मोहसिन ने प्रभावित लोगों की मदद की थी, उसी के लिए उन्हें बंगाल के महानतम समाज सेवकों में से एक माना जाता है। हाजी मोहम्मद मोहसिन का जन्म सन 1732 में एक दौलतमंद शिया परिवार में हुआ था जिनका नमक का कारोबार हुआ करता था। ये व्यापारी बंगाल के नवाब मुर्शिद क़ुली ख़ान के दामाद नवाब शुजाउद्दीन मोहम्मद ख़ान के शासन काल ( सन 1727-1739) के दौरान फ़ारस से बंगाल आए थे।
ये सन 1757 के पलासी युद्ध के पहले की बात है जब बंगाल अंग्रेज़ों के नियंत्रण में नहीं था। बंगाल तब भारत का सबसे समृद्ध और ख़ुशहाल क्षेत्र हुआ करता था जो विश्व व्यापार का केंद्र भी था।
हाजी मोहसिन के दादा हाजी फ़ैज़ुल्लाह ने मुर्शिदाबाद में नमक के कारोबार में ख़ूब धन कमाया था और बाद में हुगली आकर बस गए थे। हाजी मोहसिन ने मुर्शिदाबाद में अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और फिर मद्य पूर्वी देशों, ईरान और तुर्की की यात्रा की।
माता-पिता के निधन के बाद हाजी मोहसिन को विरासत में ख़ूब धन-दौलत मिली। बेहद पढ़े लिखे हाजी मोहसिन महज़ इतिहासकार और गणितज्ञ ही नहीं बल्कि दक्ष मैकेनिक, पहलवान और तलवारबाज़ भी थे।
उनके ज्ञान से अवध के नवाब असफ़ुद्दौला ( सन 1748-1797 ) इतने प्रभावित हुए थे कि उन्हें लखनऊ में अपने दरबार में आने की दावत दी।
बहारहाल, इस बीच बंगाल पर काले बादल मंडराने लगे थे। सन 1757 के पलासी- युद्ध के बाद ब्रिटैन की ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल पर अपना शिकंजा कसने लगी थी। एक तरफ़ जहां किसानों और दस्तकारों का शोषण हो रहा था, वहीं भारतीय व्यापारियों के धंधों को चौपट किया जाने लगा था ताकि ईस्ट इंडिया के सामने कोई टिक ही नही पाए। भू-नीति में बदलाव और भारी कर की वजह से त्राही त्राही मच गई थी। इस दौर को ‘1770 के भयावह बंगाल अकाल’ के रुप में जाना जाता है। कहा जाता है कि अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी फ़ना हो गई थी।
अकाल की स्थिति 1769 से लेकर 1773 तक बनी हुई थी और कहा जाता है कि इस दौरान गंगा के निचले मैदानी इलाकों में एक करौड़ लोगों की जानें गई थीं। हालात की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कई इलाक़ों में पूरी की पूरी आबादी ही ख़त्म हो गई थी। इस बीच लोगों के आदमख़ौर होने की भी ख़बरें आ रही थीं। लेकिन इस भयानक आपदा के बीच कर वसूली बदस्तूर जारी रही। बंगालियों ने अपने साथियों की हर संभव मदद करने की कोशिश की। हाजी मोहसिन ने अकाल पीढ़ितों की मदद के लिए कई लंगरखाने खोले और सरकार के अकाल राहत कोष में बहुत सा पैसा दिया।
हाजी मोहसिन की रहमदिली और दरियादिली की वजह से स्थानीय लोग उन्हें संत मानने लगे थे।
हाजी मोहसिन की दौलत में तब और इज़ाफ़ा हो गया, जब उनकी सौतेली बहन मन्नूजान ख़ानम का सन 1803 में इंतक़ाल हो गया। वह मिर्ज़ा सलाउद्दीन की बेवा थीं और उनके पास बहुत दौलत थी लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। उनके पति मिर्ज़ा सलाहउद्दीन हुगली के फ़ौजी गवर्नर थे। मन्नूजान ख़ानम ने मरने के पहले अपनी तमाम दौलत और ज़मींदारी अपने 71 वर्षीय भाई के नाम कर दी थी।
इस बीच हाजी मोहसिन के माता-पिता का निधन हो गया था और मन्नूजान ख़ानम भी बेवा हो गईं थीं। मन्नूजान ख़ानम के निधन के बाद 71 साल के हाजी मोहसिन मोहम्मद आग़ा मोताहार और पिता हाजी फ़ैज़ुल्लाह की बेशुमार दौलत के अकेले वारिस बन गए थे। उन्होंने भी शादी नहीं की थी।
20 अप्रेल सन 1806 में हाजी मोहसिन ने एक ट्रस्ट बनाकर अपनी सारी दौलत दान कर दी। ट्रस्ट बनाकर उन्होंने निर्देश दिया कि उनकी जायदाद से होने वाली कमाई सरकार को रजस्व देने के बाद नौ हिस्सों में बराबर बांट दी जाए। इन नौ हिस्सों में से तीन हिस्से मोहर्रम-उल-हराम के आशुरा सहित अन्य धार्मिक त्योहारों, इमामबाड़ा के भवनों और क़ब्रिस्तानों की मरम्मत पर ख़र्च किए जाएं। इसके अलावा चार हिस्सों से ट्रस्ट का ख़र्च चलाया जाएगा, साथ ही कर्मचारियों का वेतन, पेंशन और और आर्थिक मदद दी जाएगी। बाक़ी दो हिस्सों को दो मुतव्वलियों (मैनेजरों) के बीच बराबर बांटा जाएगा।
हाजी मोहसिन का सन 1812 में इंतक़ाल हो गया। लेकिन ट्रस्ट और उन तमाम संस्थानों के रुप में उनकी विरासत ज़िंदा रही जिनकी उनके ट्रस्ट ने मदद की थी।
हाजी मोहसिन के निधन के बाद ट्रस्ट के धन से बंगाल में कई शैक्षिक संस्थानों और स्कूलों की मदद की गई। लेकिन सन 1818 में सरकार को पता चला कि मैंनेजर ट्रस्ट की जायदाद हड़प रहे हैं । यह बात सामने आने के बाद मैंनेजरों और सरकार के बीच सन 1818 से लेकर सन 1835 तक मुक़दमेबाज़ी चलती रही और आख़िर में मैनेजर मुक़दमा हार गए । इस दौरान ट्रस्ट के पास साढ़े आठ लाख रुपये जमा हो गए थे जिसका इस्तेमाल सन 1836 में हुगली मोहसिन कॉलेज बनाने में किया गया।
लेकिन मोहसिन फ़ंड से जो भव्य भवन बना वो था हुगली का इमामबाड़ा। इसका निर्माण सन 1845 में शुरु हुआ था। ये इमामबाड़ा सन 1694 की एक पुरानी इमारत के मलबे के ऊपर बनाया गया था। ये काम मैनेजर सय्यद करामत अली की देखरेख में हुआ था। सरकार द्वारा ट्रस्ट के अधिग्रहण के बाद गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने करामत अली को इमामबाड़े का मैनेजर नियुक्त किया था। दरअसल गवर्नर जनरल पहले एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (सन 1839-1842) में, करामत अली की सेवाओं से बहुत प्रभावित हुए थे। नये इमामबाड़े के निर्माण का काम सन 1845 में शुरु हुआ और सन 1861 में इमामबाड़ा बनकर तैयार हो गया था। इस पर कुल ख़र्चा 2,17,413 रुपये हुआ था।
हुगली इमामबाड़े के मुख्य द्वार पर 80 फुट ऊंची दो मीनारें हैं । इन मीनारों के अंदर 152 घुमावदार सीढ़ियां हैं जो गैलरी की तरफ़ जाती हैं। गैलरी से गांवों का ख़ूबसूरत नज़ारा देखा जा सकता है।
दोनों मीनारों के बीच एक मीनार पर एक विशाल घड़ी लगी है जो लंदन की मैसर्स ब्लैक एंड हुरे कंपनी ने बनाई थी और इसकी क़ीमत तब 11,721 रुपये थी।
मुख्य द्वार से भीतर दाख़िल होते ही सामने एक बड़ा चौकोर पक्का अहाता है जिसके चारों तरफ़ दो मंज़िला भवन हैं। अहाते के बीच में एक ख़ूबसूरत टैंक है जिसमें फ़व्वारा भी लगा हुआ है। पूर्व की दिशा में ख़ूबसूरत ज़रीदालान है यानी नमाज़ पढ़ने का मुख्य हॉल। ज़रीदालान का फ़र्श काले और सफ़ेद संग-ए-मरमर से बना है। ज़रीदालान के अंदर पैग़ंबर मोहम्मद, बीबी सईदा फ़ातिमा, हज़रत अली, इमाम हसैन और इमाम हसन की याद में पांच शानदार ताज़िये रखे हुए हैं।
इमामबाड़ा की ऊपरी दीवार पर हाजी मोहम्मद मोहसिन के वसीयतनामें की कॉपी नक्श है जो फ़ारसी और अंग्रेज़ी में लिखी है । हाजी मोहसिन का मक़बरा इमामबाड़े के पीछे है।
पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में आज भी कई शैक्षिक संस्थान हैं जो ‘मोहसिन फंड’ की मदद से चल रही हैं। लेकिन उनकी सबसे ख़ूबसूरत विरासत है हुगली इमामबाड़ा जो आज भी सैलानियों को लुभाता है।
लाइव हिस्ट्री इंडिया ट्रेवल गाइड
हुगली इमामबाड़ा से सबसे क़रीब रेल्वे स्टेशन बंदेल जंक्शन है जो हावड़ा जंक्शन से 39 कि.मी. और सियाल्दाह स्टेशन से क़रीब 46 कि.मी. की दूरी पर है । हावड़ा-बंदेल लोकल ट्रेन या हावड़ा-बुर्दमान मैन लाइन लकोल ट्रैन से, आसानी से, बंदेल जंक्शन पहुंचा जा सकता है।
बंदेल जंक्शन से हुगली इमामबाड़ा जाने के लिए स्थानीय वाहन उपलब्ध हैं। आप बंदेल चर्च से भी नाव में बैठकर हुगली इमामबाड़ जा सकते हैं।
इमामबाड़ा परिसर में प्रवेश के लिए दस रुपये का टिकट लगता है जो जुलाई 2019 से लगाया गया है। इमामबाड़ा में तस्वीर लेने पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन ज़रीदालान में फ़ोटोग्राफ़ी की मनाही है।
लेखक का परिचय
सेख आब्दुल आमिन अमीन रिसर्च स्कॉलर हैं और कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्दालय में पढ़ाते हैं। वह धरोहर और इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं जिसे वह कला, संस्कृति और धर्म के नज़रिये से देखने- समझने की कोशिश करते हैं।
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.