डॉक्टर दीवान सिंह “कालेपानी” 

डॉक्टर दीवान सिंह “कालेपानी” 

डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप माना जाता है। शारीरिक दुख-दर्द में हर इंसान को सबसे पहले डॉक्टर ही याद आता है. कुछ डॉक्टर ऐसे भी होते हैं, जो सिर्फ़ बीमारी ही नहीं, बल्कि समाज और अपने देश में फैली बुराईयों का भी सलीक़े से इलाज करते हैं. हमारे अपने देश में ऐसे बहुत डॉक्टर हुए हैं, लेकिन इन सबमें एक ऐसा नाम शामिल है, जिसके बारे में ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं होगा और वह नाम है….डॉक्टर दीवान सिंह ‘कालेपानी’ .

सन 1894 में पंजाबी ढ़िल्लों परिवार में जन्में डॉक्टर दीवान ने सन 1921 में आगरा से डाक्टरी में डिप्लोमा हासिल किया . उसके बाद वह ब्रिटिश इंडियन आर्मी के चिकित्सा कोर में शामिल हो गए. इससे पहले डॉक्टर दीवान 1920 में असहयोग आन्दोलन में भी शामिल हुए थे, जिसके लिए उनको अंग्रेजों ने उनके बेहतरीन छात्र होने के कारण सिर्फ चेतावनी दी थी.. हिमाचल प्रदेश के दगशाई में सैन्य अस्पताल में कुछ महीने गुज़ारने के बाद, डॉक्टर दीवान को बर्मा की राजधानी रंगून भेजा दिया गया. इस बीच अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए डॉक्टर दीवान ने स्वंत्रता और स्वराज्य के बारे में अपने विचारों से अँग्रेज़ी सरकार की नाक में दम कर दिया था. मजबूरी में अँग्रेज़ी सरकार ने डॉक्टर दीवान को अंडमान और निकोबार द्वीप की सेलुलर जेल में कालेपानी की सज़ा मुक़र्रर की.

डॉ दीवान और उनकी पत्नी  

मगर देशभक्ति और डॉक्टरी ने दीवान जी का साथ यहाँ भी नहीं छोड़ा. अपने साथी क़ैदियों की मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं का इलाज करने के लिए उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. अंग्रेज़ों की यातनाओं और दुत्कारों से निजात दिलाने के लिए डॉक्टर दीवान ने अपने नए विचारों से वहाँ मौजूद क़ैदियों का उत्साह बढ़ाया. वहां उनकी कविताओं बहुत लोकप्रिय हुईं. डॉक्टर दीवान ने जेल से रिहा होने के बाद अपनी रचना “वगदे पानी” को सन 1938 में प्रकाशित करवाया. उनके आज़ादी और क्रान्ति के विचारों ने अंडमान में रह रहे भारतीयों को भी प्रभावित किया.उनकी ये रचना भारत में भी बहुत पसंद की गई. इस तरह डॉक्टर दीवान को एक देशभक्त और क्रांतिकार कवि का दर्जा भी हासिल हो गया था.

दूद्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले डॉक्टर दीवान को रिहा तो कर दिया गया था, मगर कम संचार के माध्यम और इतने वर्ष जेल में रहने की वजह से कई रिहा हुए कैदियों की तरह उन्होंने भी अंडमान को ही अपना घर बना लिया. इस बीच डॉक्टर दीवान अंडमान के पंजाबी सभा में शामिल हुए और उन्होंने वहाँ के स्कूलों में छात्रों को पंजाबी भाषा की शिक्षा दी, और अपनी कविताओं और विचारों को कई सभाओं और गुरुद्वारों में पेश किया. उन्होंने अपने कविताओं की दूसरी कलेक्शन “अंतिम लहरान” की भी रचना की.

डॉक्टर दीवान की कविताओं में प्यार-मोहब्बत या व्यंग नहीं होता था. उनकी कवितायें परम्परा से अलग हटकर होती थीं. डॉक्टर साहब अपनी रचनाओं में अपने ख़्यालों को गहराई और सरलता से पेश करते थे. यही वजह रही कि उनकी कवितायें आगे चलकर पंजाबी कवियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनीं.

सन 1942 में अंडमान और निकोबार पर जापान का कब्ज़ा हो गया था, जो वहाँ बसे भारतीयों पर बहुत भारी पड़ा. जहां एक तरफ राश बिहारी बोस और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आने से पहले जापानी सेना भारतीय सैनिकों पर अमानवीय अत्याचार कर रही थी, वहीँ अंडमान में भी ये सिलसिला जारी रखा गया. ब्रिटिश और अमेरीकी सेनाओं से हारने का दोष जापानियों ने अंडमान के निवासियों पर भी ठहराया.उस ग़ुस्से में जापानियों ने खुले आम 42 भारतीयों की हत्या की और बड़ी संख्या में औरतों को बलात्कार का शिकार बनाया और उनकी हत्यायें कीं.

जापानी सेना अंडमान मे 

जब नेताजी ने अंडमान का रुख़ किया, तब जापानी फौजियों ने डॉक्टर दीवान को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ रेडियो पर भाषण देने को लिए पेनांग बुलाया . डॉक्टर साहब ने ये कहने से ना सिर्फ इनकार किया, मगर उन्होंने कईयों के साथ मिलकर नेताजी को जापानियों द्वारा किए अत्याचारों से भी रूबरू कराया. गंभीरता से सुनने के बजाए, नेताजी ने बात को अनसुना कर अंडमान-वासियों को जापानी सेना के साथ वफादारी दिखाने की हिदायत दी.

नेताजी  सेल्लूलर जेल के दौरे पे 

डॉक्टर दीवान की इस हरकत से आगबबूला होकर जापानी सेना ने पंजाबी सभा के 65 सदस्यों को जेल में रखा और डॉक्टर दीवान को 82 दिनों तक अमानवीय यातनाएं दी. जिसके बाद, उनको और उनके सदस्यों को अंडमान-वासियों के सामने खुलेआम हत्या कर दी गई थी.

डॉक्टर साहब की यादें लगभग ओझल हो रही थीं. पंजाब में, डा.दीवान के परिवार ने, उनकी मौत के कई साल बाद, सन1962 में उनकी दूसरी रचना “अंतिम लहरान” का प्रकाशन करवाया. उनकी ये रचना स्वदेश लौटे पंजाबी सभा के सदस्यों साथ आई थी.

डॉक्टर साहब के चार बेटों में सबसे बड़े मोहिंदर आगे चलकर पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बने, और 1968 में अंडमान में पंजाब यूनिवर्सिटी से संबद्ध एक डिग्री कॉलेज के प्रशासन कार्य के लिए अपनी बीवी के साथ गए. सफ़र बहुत बोर करने वाला भले ही था. मगर अंडमान पहुँचते ही, मोहिंदर और उनकी बीवी को हैरत तब हुई जब स्थान्नीय लोगों ने डॉक्टर दीवान के इस बेटे (मोहिंदर )और बहु का सम्मान के साथ स्वागत किया. अपने इन दो सालों के कार्य के दौरान, मोहिंदर ने अपने पिता के बारे में ढेर सारी जानकारी हासिल की. तभी स्वदेश लौटकर मोहिंदर और उनके परिवार ने अपनी जमा-पूँजी से डॉक्टर साहब पर एक स्मारक बनाने की ठानी, और आज ये स्मारक चंडीगढ़ से बड्डी के रास्ते सिसवान में स्थित है.

दुर्भाग्य की बात ये है, कि स्मारक के निर्माण से पहले तक डॉक्टर दीवान और उनके कारनामों का ज़िक्र अंडमान की पंजाबी सभा और इतिहासकार बिपनचन्द्र के लेखों के सिवा कहीं नहीं मिलता

हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading