भारत में, बड़े पैमाने पर स्तूपों का निर्माण, मौर्य सम्राट अशोक (शासनकाल 269-232 ईसा पूर्व) द्वारा शुरू किया गया था। यह कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म में उनके रूपांतरण के बाद हुआ।
अशोक के शासनकाल से पहले, विभिन्न स्थानों पर बुद्ध (और उनके अवशेषों) को समर्पित आठ स्तूप थे जो उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं से संबंधित थे।
बौद्ध धर्म के प्रसार और अपने लोगों के ज्ञान को प्रोत्साहित करने के प्रयास में, अशोक ने इन पुराने स्तूपों से अवशेषों को खोदा और उन्हें सोने और चांदी से बने 84,000 बक्से में विभाजित किया और उनके ऊपर कई स्तूपों का निर्माण किया।
जबकि स्तूप आम तौर पर बौद्ध धर्म से संबंधित हैं, क्या आप जानते हैं कि भारत हिंदू और जैन स्तूपों का भी घर है? यहां कुछ सुंदर स्तूपों की सूची दी गई है जो प्राचीन भारत के इतिहास को समझने में हमारी मदद करते हैं।
1- विराटनगर स्तूप
जयपुर से 66 किलोमीटर दूर, उत्तर दिशा की ओर विराटनगर में एक प्राचीन बौद्ध स्तूप-परिसर के अवशेष मौजूद हैं। इन खंडहरों को जो चीज़ विशेष बनाती है, वह ये कि यह भारत में पाए जानेवाले सबसे प्राचीन बौद्ध चैत्य गृह हैं। चट्टानोंवाली बीजक की पहाड़ी की बुलंदी पर मौजूद यह खंडहर दूर से ही दिखाई पड़ जाते हैं।
ऐतिहासिक तौर पर विराटनगर, मत्स्य महाजनपद की राजधानी हुआ करती थी। मत्स्य महाजनपद, चौथी और छठी शताब्दी(ई.पू.) के बीच,उत्तर भारत के 16 साम्राज्यों में से एक हुआ करता था। प्राचीन हिंदू ग्रंथ महाभारत में भी विराटनगर का उल्लेख मिलता है। इसे राजा किरिता ने बसाया था जिसकी राजधानी में पांडवों ने भेस बदलकर, अपने निर्वासन के 13 वर्ष बिताए थे।
यहां आज भी कई स्थानों के ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनका सम्बंध महाभारत से है जैसे “भीम की डुंगरी”, या “भीमा-हिल” और “बाण-गंगा” । माना जाता है कि अर्जुन के तीर मारने से “बाण-गंगा” निकली थी।
पुरात्तव विभाग की खुदाई से पता चला है कि तीसरी शताब्दी(ई.पू.) और पहली शताब्दी के बीच विराटनगर बेहद ख़ुशहाल शहर था। यहां की खुदाई में 36 सिक्के मिले हैं जिन में से ज़्यादातर इंडो-ग्रीक बादशाहों के हैं। उनमें से एक सिक्का हरमिया राजवंस के युग का है जिसने यहां पहली शताब्दी (ई.पू.) में राज किया था।और पढ़ें
2- कंकाली टीला जैन स्तूप
यमुना के तट पर स्थित मथुरा नगरी , भारत के सबसे ऐतिहासिक और प्राचीन शहरो में से एक है | हिन्दू धर्म में मथुरा को भगवन श्री कृष्ण की नगरी होने के कारन महत्व प्राप्त है | गरुड़ पुराण में मथुरा का, भारत के सात सबसे पावन शहरो में से एक, ऐसा उल्लेख है | पर क्या आप जानते हैं , जितना हिन्दू धर्म में मथुरा का महत्व है उतना ही महत्व जैन धर्म में भी है | पर ज़्यादातर लोग मथुरा की जैन विरासत से अनजान है |
मथुरा का इतिहास तीन हज़ार साल से भी पुराना है | यहाँ पर पेंटेड ग्रे वेयर कल्चर के अवशेष मिले है जो हमे ये बताते है की यहाँ पर ११०० इसा पूर्व से मानवी आबादी रहा करती थी | समय के साथ, पंजाब से दक्षिण भारत जाने वाले व्यापारी मार्ग पर स्तित होने के कारण , मथुरा को महत्व प्राप्त हुआ | ४थि शताब्दी इसा पूर्व से मथुरा व्यापार का एक बड़ा केंद्र बना | दूर दूर से बड़े व्यापारी यहाँ आकर बसने लगे जिनमें जैन व्यापारी भी शामिल थे| यही से शुरू हुआ मथुरा नगरी और जैन धर्मियों का एक गहरा रिश्ता जो आज भी कायम है |
मथुरा की ऐतिहासिक जैन विरासत की ज्यादा तर जानकारी हमें एक छोटे से टीले में मिले अवशेषों से मिलती है , जिसे कंकाली टीला कहा जाता है | मथुरा के आज़ाद नगर परिसर में स्थित इस टीले का नाम, पास के कंकाली देवी मंदिर से मिला है |
इस ऐतिहासिक टीले के बारे में बहुत कम लोग जानते है , जिसका उत्खनन सं १८७० से लेकर १८९० तक हुआ | उत्खनन में मिले अवशेषों ने मथुरा के जैन कालीन इतिहास पर एक नया प्रकाश डाला | प्रख्यात पुरातत्त्ववेत्ता सर अलेक्जेंडर कन्निन्घम ने सं १८७१ में कंकाली टीले के पश्चिमी भाग का उत्खनन किया | खुदाई के दौरान उन्हे शिल्प , ख़ाब , रेलिंग , गेटवे आदि के अवशेष मिले जो कुषाण साम्राज्य के काल से थे | कुषाण साम्राज्य के काल में (लगभग सं ३० से सं ३७५ तक) मथुरा नगरी कुषाण सम्राटो की दक्षिणी राजधानी हुआ करती थी | कंकाली टीले की खुदाई में बड़ी तादाद में दानपात्र मिले जिनमें दाताओ के नाम लिखे हुए थे | ये दाता समाज के हर टपके से थे , एक लोहार की पत्नी , इत्तर के व्यापारी , एक तवाइफ़ , इत्यादि | इससे हमें मथुरा का जैन समाज कितना बड़ा और विभिन्न था ये पता चलता है | और पढ़ें
3- भरहुत स्तूप
उज्जैन से विदिशा होते हुए, एक रास्ता, पाटलिपुत्र को जाता है। वहां से यह रास्ता उत्तर की तरफ़ मुड़ता है और मैहर नदी घाटी पार कर कौशाम्बी और श्रावस्ती पहुंचता है। अपनी एतिहासिक पृष्ठ भूमि के साथ यहां एक बौद्ध स्थल भरहुत है जो शायद, भारत में महान बौद्ध स्थलों में से एक है। इसकी खोज भारतीय पुरातत्व के जनक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने सन 1874 में की थी। भरहुत स्तूप मगध साम्राज्य के मध्य प्रांत के एक छोर पर स्थित है। इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का मानना है कि जिस स्थान पर ये स्तूप स्थित है वह उस युग के प्रमुख राजमार्ग का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। हालंकि ये स्तूप अलग तरह का है लेकिन फिर भी सांची और उसके अन्य स्मारकों से ये काफ़ी मिलता जुलता है जो इसे विश्वस्नीय बनाता है।
भरहुत गांव मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में है। ये स्थान ई.पू. दूसरी सदी की बौद्ध कला के जटिल उदाहरणों में से एक है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भरहुत में मूल स्तूप अशोक मौर्य ने तीसरी ई.पू. में बनवाया था और दूसरी ई.पू. शताब्दी में इसे बड़ा रूप दिया गया।
कनिंघम ने जब सन सन 1874 में इसकी खोज की थी तब ये भरहुत स्तूप लगभग बरबाद हो चुका था और यहां के कटघरे और प्रवेश द्वार आसपास के कई गांव में भवनों की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां वेदिका (स्तूप के आसपास पत्थरों से बनी मंडेर और कटघरे) के सिर्फ़ तीन खंबे बचे थे। साथ ही पूर्वी तोरण का एक खंबा भी बचा था।
इन खंबों पर अभिलेख देखकर कनिंघम दंग रह गए और उन्होंने फ़ौरन अपने सहायक जोसेफ़ बेगलर को इस जगह की खुदाई करने करने का आदेश दिया। खुदाई होती देख गांववालों को शक हुआ कि ये लोग ज़मीन में दबा सोना निकालने के लिए खुदाई कर रहे हैं लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि कनिंघम सोने से भी कहीं ज़्यादा बेशक़ीमती ख़ज़ाने के लिए खुदाई कर रहे थे। और पढ़ें
4- सोपारा स्तूप
मुंबई के उत्तर में एक घंटे ड्राइव करें तो आप तेजी से फैलते हुए मुंबई महानगर – नाला सोपारा के एक उपनगर तक पहुंच जाएंगे। यह विश्वास करना कठिन है कि यह क्षेत्र एक प्राचीन शहरी केंद्र था, जो 2300 साल पहले शूरपराका या सोपारा के बंदरगाह के आसपास विकसित हुआ था। और इसके गौरवशाली अतीत का साक्षी एक स्तूप था जो आज भी खड़ा है। और जानने के लिए देखे यह वीडियो।
5- साँची स्तूपा
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा स्थापित किया गया साँची स्तूप बौद्ध धर्म के ध्यान का केंद्र रहा है। और जानने के लिए देखे यह वीडियो।
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