भारत में कई राज्यों में कई इमामबाड़े मौजूद हैं। उनमें से बहुत सारे वास्तुशिल्प और ऐतिहासिक महत्व रखते हैं । इमामबाड़ा का अर्थ है इमाम का घर या इमाम का दरबार। इस शब्द की उतपत्ति उत्तर भारत में हुई थी। इमामबाड़ा एक ऐसा भवन है जिसमें एक सभागार होता है। इस सभागार में मजलिस (सभा) के लिये लोग जमा होते हैं। इमामबाड़े के मुख्य भवन को अज़ाख़ाना कहते हैं। इसके गुंबद के नीचे तीन फ़ुट ऊंचे चबूतरे पर इमाम हुसैन के मूल मक़बरे और करबला के युदध में शहीद हुए लोगों की क़ब्रों की नक़ल बनी होती है। भवन में मजलिस के लिये एक या दो बड़े सभागार भी होते हैं। लेकिन क्या आपको पता हे भारत में ऐसे 2 इमामबाड़े हैं जिन्हें लोगों की मदद के लिए बनवाया गया था ?
आज हम आपको भारत के 2 महत्वपूर्ण इमामबाड़ों के बारे में बताते हैं जिन्हें पूरी तरह से लोगों के लिए एक राहत उपाय के रूप में बनाया गया था।
1- बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ
‘जिसे न दे मौला, उसे दे असफउद्दौला’
ये कहावत पुराने नवाबी लखनऊ की है। लखनऊ के लोग अपने उदार और दरियादिल नवाबों के बारे कुछ ऐसा ही कहा करते थे। अब लखनऊ में न तो नवाब हैं और न ही उनकी शान-ओ-शौक़त लेकिन जो बचा रह गया है वो हैं उनकी बनवाई गईं शानदार इमारतें। नवाबों के समय की इमारतों में सबसे शानदार इमारत है बड़ा इमामबाड़ा जो नवाब असफ़उद्दौला ने अकाल से लोगों को राहत पहुंचाने के मक़सद से सन 1784 में बनवाया था।
बड़ा इमामबाड़ा सैलानियों के लिये एक बड़ा आकर्षण है। इमामबाड़े की सबसे बड़ी ख़ासियत है उसका मुख्य सभागार। अमूमन सभागर खंबों पर टिके रहते हैं लेकिन यहां मेहराबदार पचास फुट ऊंची छत वाले सभागार में कोई खंबा नहीं है। ये अपने आप में विश्व के सबसे बड़े सभागारों में से एक है और बेमिसाल इंजीनियरिंग का एक नमूना है।
सन 1775 में नवाब असफ़उद्दौला ने फ़ैज़ाबाद के बजाय लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया और इसके साथ ही शहर में सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विकास हुआ। नवाब असफ़उद्दौला को लखनऊ का आर्किटेक्ट जनरल माना जाता है। शहर को ख़ूबसूरत और वैभवशाली बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।
असफ़उद्दौला की बनवाई गईं आरंभिक और सबसे बड़ी इमारतों में बड़ा इमामबाड़े को शुमार किया जाता है। ये इमारत पुराने शहर में इसे बनवानेवाले के सम्मान में बनवाई गई थी जिसे इमामबाड़ा-ए-असफ़ी के नाम से जाना जाता था। नवाब ने 1783-84 में पड़े भीषण अकाल में लोगों की मदद के लिये ये इमामबाड़ा बनवाया था। माना जाता है कि इसके निर्माण कार्य में 22 हज़ार लोगों को लगाया गया था।
नवाब ने आदेश दिया था कि निर्माण का काम सूर्यास्त के बाद रात भर चलेगा ताकि अंधेरे में उन लोगों को पहचाना न जा सके जो संभ्रांत घरों से ताल्लुक़ रखते थे और जिन्हें दिन में मज़दूरी करने में शर्म आती थी। रात को काम करने वाले ज़्यादातर लोग दक्ष नहीं थे और इसलिये काम भी अच्छा नहीं होता था। इस दोयम दर्जे के काम को दिन में गिरा दिया जाता था और दक्ष लोग इसे फिर बनाते थे। ऐसे में ये अंदाज़ा लगाना लाज़िमी है कि इससे बहुत बरबादी हुई होगी लेकिन ऐसा था नहीं। निर्माण की अनुमानित लागत पांच से दस लाख रुपये थी। नवाब इमामबाड़ा बन जाने के बाद भी इसकी साजसज्जा पर सालाना पांच हज़ार रुपये ख़र्च करते थे। और पढ़ें
2- हुगली का इमामबाड़ा, कोलकता
कोलकता के पास हुगली नदी के तट पर एक और ऐतिहासिक इमामबाड़ा है जो किसी राजा महाराजा की नहीं बल्कि एक महान बंगाली व्यापारी और समाज सेवक की धरोहर है। इन्होंने सन 1776-77 में आए भयानक अकाल के दौरान पीढ़ितों की मदद में अहम भूमिका निभाई थी।
ये इमामबाड़ा हाजी मोहम्मद मोहसिन (सन 1732-1812) द्वारा वसीयत में एक ट्रस्ट को दिए गए धन से बनाया गया था। सन 1776-77 में बंगाल में आए भयंकर अकाल में जिस तरह से हाजी मोहम्मद मोहसिन ने प्रभावित लोगों की मदद की थी, उसी के लिए उन्हें बंगाल के महानतम समाज सेवकों में से एक माना जाता है। हाजी मोहम्मद मोहसिन का जन्म सन 1732 में एक दौलतमंद शिया परिवार में हुआ था जिनका नमक का कारोबार हुआ करता था। ये व्यापारी बंगाल के नवाब मुर्शिद क़ुली ख़ान के दामाद नवाब शुजाउद्दीन मोहम्मद ख़ान के शासन काल ( सन 1727-1739) के दौरान फ़ारस से बंगाल आए थे।
ये सन 1757 के पलासी युद्ध के पहले की बात है जब बंगाल अंग्रेज़ों के नियंत्रण में नहीं था। बंगाल तब भारत का सबसे समृद्ध और ख़ुशहाल क्षेत्र हुआ करता था जो विश्व व्यापार का केंद्र भी था।
हाजी मोहसिन के दादा हाजी फ़ैज़ुल्लाह ने मुर्शिदाबाद में नमक के कारोबार में ख़ूब धन कमाया था और बाद में हुगली आकर बस गए थे। हाजी मोहसिन ने मुर्शिदाबाद में अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और फिर मद्य पूर्वी देशों, ईरान और तुर्की की यात्रा की।
उनके ज्ञान से अवध के नवाब असफ़ुद्दौला ( सन 1748-1797 ) इतने प्रभावित हुए थे कि उन्हें लखनऊ में अपने दरबार में आने की दावत दी।
बहारहाल, इस बीच बंगाल पर काले बादल मंडराने लगे थे। सन 1757 के पलासी- युद्ध के बाद ब्रिटैन की ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल पर अपना शिकंजा कसने लगी थी। एक तरफ़ जहां किसानों और दस्तकारों का शोषण हो रहा था, वहीं भारतीय व्यापारियों के धंधों को चौपट किया जाने लगा था ताकि ईस्ट इंडिया के सामने कोई टिक ही नही पाए। भू-नीति में बदलाव और भारी कर की वजह से त्राही त्राही मच गई थी। इस दौर को ‘1770 के भयावह बंगाल अकाल’ के रुप में जाना जाता है। कहा जाता है कि अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी फ़ना हो गई थी।
अकाल की स्थिति 1769 से लेकर 1773 तक बनी हुई थी और कहा जाता है कि इस दौरान गंगा के निचले मैदानी इलाकों में एक करौड़ लोगों की जानें गई थीं। हालात की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कई इलाक़ों में पूरी की पूरी आबादी ही ख़त्म हो गई थी। इस बीच लोगों के आदमख़ौर होने की भी ख़बरें आ रही थीं। लेकिन इस भयानक आपदा के बीच कर वसूली बदस्तूर जारी रही। बंगालियों ने अपने साथियों की हर संभव मदद करने की कोशिश की। हाजी मोहसिन ने अकाल पीढ़ितों की मदद के लिए कई लंगरखाने खोले और सरकार के अकाल राहत कोष में बहुत सा पैसा दिया। और पढ़ें
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