हम सभी जानते हैं, कि भारत में गुरुद्वारों का संबंध सिख गुरुओं और उनसे जुड़ी कहानियों से है। इसी आधार पर गुरुद्वारों के नाम भी रखे गये हैं। लेकिन क्या आपको पता है, कि एक ऐसा भी गुरुद्वारा है जिसका नाम “पत्थर” पर रखा गया है?
ये गुरुद्वारा पत्थर साहिब है, जो लेह (मौजूदा समय में केंद्र शासित क्षेत्र लद्दाख) में है। इसके साथ एक दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है। इसका संबंध सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक (1469-1539) के साथ है। दिलचस्प बात ये है, कि इस गुरुद्वारे से जुड़ी कहानी में सिख और बौद्ध धर्म का फ़्यूज़न (मिश्रण) है।
गुरु नानक घूम-घूमकर (पंजाबी में उदासी) शांति, प्रेम और करुणा का संदेश दिया करते थे। उनका मानना था, कि ये मानव जाति के लिये ईश्वर का संदेश है। कहा जाता है, कि उन्होंने 15वीं और 16वीं सदी में पूरे भारतीय उप-महाद्वीप की यात्रा की थी। इसके अलावा वह मध्य पूर्व एशिया और तिब्बत भी गये थे।
प्रसिद्ध लेखिका और इतिहासकार आँचल मल्होत्रा के लेख ‘ऑन द ट्रेल ऑफ़ गुरु नानक देव्स ट्रेवल फ़्रॉम तिब्बत टू ईरान’ के अनुसार 17वीं सदी के दौरान इन यात्राओं (उदासियों) को जनमसाक्षी के नाम से कई किताबों में दर्ज किया गया था। इससे कहानी कहने, यात्रा-वृत्तांत और संतचरित लेखन (संतों के बारे में लेखन) की एक नयी शैली विकसित हुई थी।
कई दस्तावेज़ों के अलावा डॉ. फ़ौजा सिंह (2004) की ‘एटलस ऑफ़ ट्रेवल्स ऑफ़ गुरु नानक’, डॉ. दलविंदर सिंह ग्रेवाल (1995) की ‘गुरु नानक्स ट्रेवल टू हिमालयन एंड ईस्ट एशियन रीजन’ और डॉ. सुरेंदर सिंह कोहली (1969) की ‘ट्रेवल्स ऑफ़ गुरु नानक’ नामक किताबों ने गुरु नानक की तीसरी यात्रा (कुछ लोगों का दावा है, कि ये दूसरी यात्रा थी) के वृत्तांत का समर्थन किया है, जो तिब्बती लामाओं की श्रुति परम्परा द्वारा लम्बे समय से चली आ रही है।
इंडियन डिफ़ेंस एकाउंट्स सर्विस के एस. सुरेंदर सिंह ने सिख रिव्यू (फरवरी-मार्च 1970) में एक भारतीय सैन्य दल का ज़िक्र किया है, जो सन 1950 के दशक में एक व्यापार मिशन पर ल्हासा गया था। ये दल एक बौद्ध मठ से रेशम के कपड़े पर बनी एक पेंटिंग लाया था, जो गुरु नानक की बताई जाती है। इस पेंटिंग में नानक तिब्बती संत के लिबास में नज़र आ रहे थे।
लोक कथाओं के अनुसार सन 1515 से लेकर सन 1518 तक अपनी तीसरी यात्रा (कुछ इसे दूसरी यात्रा बताते हैं) के दौरान गुरू नानक हिमालय के क्षेत्रों में गये थे। वहां से पंजाब वापस आते वक़्त,गुरू नानक सिक्किम , नेपाल और तिब्बत होते हुए यारकंद (चीन) गये थे।
सन 1517 के लगभग कश्मीर जाते समय नानक लद्दाख आए थे और ध्यान लगाने के लिये वहां एक ऐसे स्थान पर रुके थे, जिससे स्थानीय लोग डरते थे, क्योंकि उन्हें लगता था, वहां एक राक्षस रहता है।
कहा जाता है, कि वो राक्षस एक पहाड़ी के ऊपर रहता था। नानक ने अपने धर्मोपदेश देने के लिये ठीक पहाड़ी के नीचे एक स्थान चुना। लेकिन राक्षस के डर से लोग नानक के क़रीब जाने से हिचकते थे। समय बीतने के साथ लोग नानक पर विश्वास करने लगे। धीरे-धीरे स्थानीय लोग नानक को सुनने आने लगे और वे नानक को “रिनपोचे नानक लामा” नाम दिया । नानक की लोकप्रियता से राक्षस नाराज़ हो गया और उसने उनकी हत्या करने का फ़ैसला कर लिया।
एक दिन जब नानक ध्यानमग्न थे, राक्षस ने उन्हें मारने के इरादे से एक बड़ा पत्थर उन पर फेंका, लेकिन पत्थर पिघलकर मोम बन गया और नानक को कोई चोट नहीं आई। राक्षस ने फिर नानक को कुचलने के इरादे से अपनी पूरी ताक़त से पत्थर पर अपना पैर मारा, लेकिन वह ये देखकर दंग रह गया, कि जब पत्थर से उसने अपना पाँव हटाया तो देखा, कि पत्थर पर उसके पांव का निशान पड़ा और पत्थर पर नानक की छवि उभर आई।
नानक की आध्यात्मिक शक्ति और इस बात का एहसास होने के बाद कि वह महज़ इंसान नहीं हैं, राक्षस नानक के चरणों पर गिर पड़ा। नानक ने बुराई का रास्ता अपनाने के लिये उसे फटकार लगाई और उसे असली और एकमात्र ईश्वर की सेवा के ज़रिये मोक्ष का रास्ता दिखाया।
इसके बाद नानक ने अपनी पवित्र यात्रा जारी रखी और करगिल होते हुए श्रीनगर रवाना हो गये, जहां से वह अपनी जन्मभूमि पंजाब वापस आ गये।
तब से लेह के स्थानीय लोग के लिए ये पत्थर (शिलाखंड), पूजा का प्रमुख स्थान बन गया । सन 1835 में जब कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह के मशहूर जनरल ज़ोरावर सिंह कहलुरिया ने लद्दाख पर जीत हासिल की , तब भी इस शिलाखंड की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया था।
15 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ों से भारत के आज़ाद मिलने के बाद जम्मू-कश्मीर नवगठित राष्ट्र भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव का कारण बन गया, जिसकी वजह से जम्मू-कश्मीर को युद्ध विराम रेखा (अब नियंत्रण रेखा) से विभाजित कर दिया गया। इस विभाजन से लद्दाख का अधिकतर हिस्सा भारत के क़ब्ज़े में आ गया।
कश्मीर युद्ध (1948) और भारत-चीन युद्ध (1962) के बाद लद्दाख में बहुत बदलाव हुए और ये सैन्यकरण वाले महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक बन गया।
लद्दाख में बुनियादी सैन्य ढांचे को मज़बूत बनाने का काम शुरु हो गया था और सन 1960 के दशक में बॉर्डर रोड्स ऑर्गनाइज़ेशन (सीमा सड़क संगठन) ने ‘प्रोजेक्ट बीकन’ के तहत लद्दाख को कश्मीर से जोड़ने का काम शुरु कर दिया।
बहरहाल, इस दौरान शिलाखंड की खोज की कहानी फ़ैलने लगी और इसी के चलते गुरुद्वारा पत्थर साहिब की नींव भी पड़ी। सन 1965 में, गर्मी के मौसम के दौरान ‘प्रोजेक्ट बीकन’ के तहत लेह और नीमू के बीच सड़क बनाने का काम शुरु हुआ था। ये सड़क करगिल तक जाती है।
इस दौरान एक बहुत ही विशाल पत्थर मिला, जिस पर बौद्ध प्रार्थना के झंडे लगे हुए थे। इस पत्थर की वजह से सड़क बनाने में बाधा आ रही थी। इसे हटाने के लिये बुलडोज़र मंगवाया गया, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद ये शक्तिशाली बुलडोज़र भी पत्थर को नहीं हटा पाया। कई कोशिशों के बाद आख़िरकार बुलडोज़र के ब्लेड टूट गये, मगर पत्थर नहीं हट पाया।
उस दिन सड़क बनाने के काम में जुटे कर्मचारियों को, सपनों मे, पत्थर को वहां से न हटाने के संदेश आने लगे, जिसके बारे में उन्होंने अपने सैनिक अधिकारियों को भी बताया। लेकिन अधिकारियों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और उन्होंने धमाकों के ज़रिय़े पत्थर को हटाने का फ़ैसला किया।
पत्थर हटाने के लिये एक से ज़्यादा बुलडोज़र लगाय गये, डायनामाइट लगाया गया, लेकिन पत्थर टस से मस नहीं हुआ। हैरानी की बात ये है, कि जिन सैनिक अधिकारियों की देखरेख में सड़क बनाने का काम चल रहा था, उन्हें भी वही सपने आने लगे जो कर्मचारियों को आये थे।
ये ख़बर तेज़ी से पूरे इलाक़े में फैल गई और स्थानीय बौद्ध लामाओं और वहां के लोगों ने काम में हस्तक्षेप किया। लोगों ने एक संत के बारे में बताया, जिन्हें गुरु नानक, गोम्पका महाराज और रिनपोचे नानक लामा जैसे अनेक नामों से बुलाया जाता था।
दिलचस्प बात ये थी, कि जैसा कि कथाओं में दावा किया गया था, कर्मचारियों और अधिकारियों को पत्थर पर संत की पीठ, कंधे और सिर के चिन्ह मिले जिन्हें आज भी गुरुद्वारे में देखा जा सकता है।
इसकी जानकारी वरिष्ठ सैनिक और सरकारी अधिकारियों को दी गई। स्थानीय लोगों और लामाओं से इससे संबंधित लोक कथा सुनने के बाद उन्होंने सिख धर्म के प्रतिनिधियों से इसकी और पुष्टि की। इस तरह लामाओं, सैन्य बलों, सिख धर्म प्रतिनिधियों और राज्य सरकार के बीच एक गुरुद्वारा बनाने को लेकर सहमति बनी, जिसका नाम इस “पवित्र पत्थर” के नाम पर रखा गया।
इस तरह से गुरुद्वारा पत्थर साहिब अस्तित्व में आया। सड़क पत्थर के पास से निकाली गई। ये पत्थर आज भी वहां मौजूद है। यहां से गुज़रने वाले सैन्य दल गुरुद्वारे में रुक कर ही आगे जाते हैं। इसकी देखरेख, वहां तैनात भारतीय सेना की सिख रेजीमेंट की कई बटालियन करती हैं।
सन 2010 में यहां बादल फटने से पत्थर साहिब गुरुद्वारा रेत में लगभग धंस गया था, लेकिन सैनिकों और स्थानीय लोगों की तुरंत कार्रवाई की वजह से गुरुद्वारे को उसके मूल रुप में फिर बहाल कर दिया गया।
लेह को श्रीनगर से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-1ऐ पर करगिल या श्रीनगर जाते समय लेह से सड़क मार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। आज ख़तरनाक घाटियों से उतरने-चढ़ने के शौक़ीन लोग यहां रुक कर प्रार्थना करते हैं और गुरुद्वारे के लंगर में चाय-नाश्ता करते हैं ,जो दिन भर खुला रहता है। यहां दोपहर का भोजन भी मिलता है।
पत्थर साहिब गुरुदारे की कहानी दरअसल कई धर्मों और समाज के कई वर्गों का एक सुंदर मिलन है, जो सौहार्द, दृढ़ संकल्प और अमन का ख़ूबसूरत संदेश देता है।
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