माउंट आबू राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन है, जो जैनियों और हिंदुओं का एक पवित्र स्थल भी है क्योंकि यहां कई मंदिर हैं। इस मंदिर परिसर में संगमरमर का बना एक परिसर ख़ास है, जो मंदिरों की अधिकता के लिये जाना जाता है। इसे दिलवाड़ा मंदिर परिसर कहते हैं।
राजस्थान के सिरोही ज़िले में माउंट आबू से क़रीब 2.5 कि.मी. दूर स्थित दिलवाड़ा मंदिर परिसर में पांच मंदिर हैं। ये मंदिर इस क्षेत्र के बदलते इतिहास को दर्शाते हैं।
ये पांचों मंदिर अलग-अलग समय में अलग-अलग राजवंशों के शासनकाल में बने थे।
जैनियों के लिये माउंट आबू सबसे पवित्र स्थल है। माना जाता है, कि 24वें तीर्थांकर महावीर एक भिक्षुक के रुप में यहां आये थे। माउंट आबू का उल्लेख ऋग वेद और स्कंद पुराण में अर्बुदा के नाम से मिलता है।
इस क्षेत्र का इतिहास मौर्य राजवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल से शुरु होता है, जिसने 321 से लेकर 297 ई.पू. तक शासन किया था। बाद में दूसरी सदी में यहां पश्चिमी क्षत्रपों का राज हो गया था। चौथी से लेकर छठी सदी के बीच ये क्षेत्र, गुप्त राजवंश के अधीन हो गया था। 7वीं और 13वीं सदी के दौरान यहां प्रतिहार, सोलंकी और परमार जैसे राजवंशों का शासन था।
सोलंकी राजवंश, जिसे चालुक्य राजवंश के नाम से भी जाना जाता है, एक मध्यकालीन राजवंश था जिसने 10वीं से लेकर 13वीं सदी तक शासन किया था। वे गुजरात और राजस्थान के हिस्सों पर राज करते थे और अन्हिलवाड़ (पाटन) उनकी राजधानी हुआ करती थी। सोलंकी राजवंश का वास्तुकला में बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस राजवंश का सबसे महत्वपूर्ण राजा भीम-प्रथम था, जिसने सन 1022 से लेकर सन 1064 तक शासन किया था। उसी के शासनकाल में ग़ज़नवी राजवंश के पहले शासक महमूद ग़ज़नी ने 11वीं सदी में भारत पर आक्रमण किया था। ग़ज़नी के हमले के बाद भीम ने अपने सारे पैतृक क्षेत्रों को दोबारा हासिल कर लिये थे। उसके शासनकाल में वास्तुकला ख़ूब फली-फूली थी। मोढेरा सूर्य मंदिर, माउंट आबू का दिलवाड़ा मंदिर, सोमनाथ मंदिर, जिसे दोबारा बनाया गया था, उसके समय के वास्तुकला के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। भीम की रानी उदयमति ने ही 11वीं सदी में पाटन में रानी की वाव (बावड़ी) बनवायी थी।
दिलवाड़ा के पांच मंदिरों में विमल वसाही औऱ लूना वसाही मंदिर सबसे प्रसिद्ध हैं। माउंट आबू का विमल वसाही सबसे पुराना मंदिर है, जिसका निर्माण सन 1031 में हुआ था। मंदिर में सन 1322 के एक अभिलेख के अनुसार ललिगा और विजादा नाम के दो व्यक्तियों ने अपने माता-पिता के आध्यात्मिक कल्याण के लिये मंदिर की मरम्मत का काम करवाया था। अभिलेख से मंदिर के इतिहास के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। इस मंदिर का निर्माण चालुक्य राजा भीम-प्रथम के मंत्री विमल शाह ने करवाया था।
ऐसा माना जाता है, कि जैन मुनी धर्माघोष सूरी का प्रवचन सुनने के बाद विमल शाह ने अपने मन को टटोला और अपने साम्राज्य को फैलाने की कोशिशों में की गई हत्याओं जैसे पापों का प्रायश्चित करने के लिये ये मंदिर बनवाया था।
संगमरमर को तराशकर बनाया गया ये मंदिर, सोलंकी वास्तुकला की पराकाष्ठा को दर्शाता है। ये मंदिर प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभनाथ को समर्पित है, जिन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है। मंदिर में एक गर्भगृह, गुधामंडप (स्तम्भों वाला बरामदा), गुधामंडप के सामने नवचौकी (छत पर बने नौ आयताकार वाले कक्षों का सभागार) और रंगमंडप है। इस मंदिर के आसपास छोटे-छोटे मंदिर हैं, जिन्हें देवकुलिका कहा जाता है, जिनमें तीर्थंकरों की छवियां बनी हुई हैं। विमल शाह के वंशज पृथ्वीपाल ने मंदिर में सभागार बनवाया था। मुख्य मंदिर में ऋषभनाथ की सोने और पीतल की 57 इंच की एक मूर्ति है।
दिलवाड़ा मंदिर की छतें, स्तंभ और दीवारें बहुत सुसज्जित हैं, जो इस मंदिर की विशेषता है। विमल वसाही मंदिर के स्तंभ अलंकृत हैं। विमल वसाही मंदिर की छत बहुत ही सुंदर है, जो वृताकार झूमर से सुसज्जित है। छत पर 16 विद्या देवियों की छवियां बनी हुई हैं। रंगमंडप में जैन पुराण, जैन साहित्य, जैन देवी-देवताओं, हाथियों, संगीतकारों और नृतकों की छवियां अंकित हैं। पृथ्वीपाल ने सभागार के अलावा मंदिर में हस्तिशाला भी बनवाई थी, जिसमें 10 हाथियों की संगमरमर की सुंदर मूर्तियां बनी हुई हैं। हाथियों के पीछे विमल और उसके परिवार के सदस्यों की छवियां बनी हुई हैं।
यहां कालिया सांप को वश में करते कृष्ण, ऋषभनाथ के पुत्र भरत और बाहुबली के बीच युद्ध, केवल ज्ञान (परम ज्ञान) प्राप्त हुए भरत और लताओं तथा चींटियों की बांबी से घिरे ध्यानमग्न बाहुबली की छवियां भी बनी हुई हैं।
13वीं सदी में सोलंकी राजवंश कमज़ोर होने लगा था। 12वीं सदी के आसपास वघेल चालुक्य की सेवा में थे। वे ख़ुद को चालुक्य का वंशज बताते थे। वघेल धवल ने चालुक्य राजा कुमारपाल की मौसी से विवाह किया था, जिसने 12वीं सदी में शासन किया था। 13वीं सदी में राजा भीम-द्वितीय के शासनकाल के दौरान चालुक्य राजवंश बहुत कमज़ोर हो गया था। इस दौरान वघेल सेनापति जनरल लावण्य प्रसाद और उनके पुत्र वृद्धवला बहुत शक्तिशाली हो गये थे। लेकिन नाममात्र को सही, वे चालुक्य आधिपत्य को स्वीकार करते थे।
दिलवाड़ा में दूसरे सबसे पुराने मंदिर लूना वसाही का निर्माण वघेल शासक वृद्धवला के शासनकाल में हुआ था। सन 1230 में इस मंदिर का निर्माण कार्य वधेल वृद्धवला के मंत्री तेजपाल की देखरेख में हुआ था। इन दोनों भाईयों को महान भवन निर्माता माना जाता है। कुशल प्रशासक होने के अलावा, वे बहादुर योद्धा भी थे। उन्होंने जन कल्याण पर बहुत धन ख़र्च किया और कई जैन तथा हिंदू मंदिरों, मस्जिदों, कुओं, पुलों, अतिथि-गृहों और जलाशयों का निर्माण करवाया था। उनके द्वारा निर्मित मंदिरों में दिलवाड़ा का लूना वसाही मंदिर सबसे प्रसिद्ध है, जो तेजपाल की देखरेख में बना था।
इस मंदिर का निर्माण तेजपाल की पत्नी अनुपमादेवी और पुत्र लूनासिम्हा के आध्यात्मिक कल्याण के लिये किया गया था। हालांकि इस मंदिर की डिज़ाइन विमल वसाही मंदिर की तरह ही है, लेकिन इसकी सजावट कहीं बेहतर है। ये मंदिर भी सफ़ेद संगमरमर को तराश कर बनाया गया है। रंगमंडप हालांकि छोटा है, लेकिन इसकी छत पर बारीक गोलाकार नक़्काशी है। छत के मध्य में सुसज्जित झूमर लगा हुआ है। नीचे 72 तीर्थंकरों की गोलाकार परिधि में छवियां बनी हुई हैं। इसके अलावा जैन भिक्षुओं की 360 छोटी छवियां भी हैं। हस्तिशाल में सफ़ेद संगमरमर को तराशकर बनाईं गईं हाथियों की मूर्तियां हैं, जिनके पीछे मंदिर निर्माताओं और उनके परिवार के सदस्यों की छवियां भी बनी हुई हैं। इस मंदिर की एक और विशेषता वे सुसज्जित आले हैं जिनमें देवरानी (छोटे भाई की पत्नी) और जेठानी (बड़े भाई की पत्नी) की छवियां बनी हुई हैं। माना जाता है, कि ये छवियां वास्तुपाल और तेजपाल की पत्नियों की हैं। गर्भगृह के अंदर 22वें तीर्थंकर नेमीनाथ की एक बड़ी मूर्ति है, जो काले बसाल्ट पत्थर की बनी हुई है।
वघेल राजवंश का शासनकाल बहुत कम समय तक चला था। सन 1304 में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने अंतिम वघेल शासक कर्ण को हरा दिया था और इस तरह वघेल राजवंश समाप्त हो गया था।
15वीं- 16वीं सदी के आसपास अहमदाबाद के सुल्तान बेगड़ा (शासनकाल 1458-1511) के मंत्री भीम शाह ने दिलवाड़ा में पीतलहार मंदिर बनवाया था, जो तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित था। यह मंदिर तीर्थंकर आदिनाथ के पीतल की मूर्ति की वजह से पीतलहार के नाम से जाना जाता है ।इस समय जो मूर्ति है, उसे 16वीं सदी में मूल मूर्ति की जगह स्थापित किया गया था। 108 मन की ये मूर्ति दो मंत्रियों सुंदर तथा गदा की निगरानी में देव नामक शिल्पी ने बनाई थी। ये मंदिर अन्य दो मंदिरों की तरह अलंकृत तो नहीं है, लेकिन इसमें कई जैन तीर्थंकरो औऱ देवी-देवताओं की छवियां बनी हुई हैं।
15वीं सदी के अंत में दिलवाड़ा में चौथे मंदिर का निर्माण हुआ, जो 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को समर्पित है। तीन मंज़िल और एक कंगूरे वाले चौमुख मंदिर को खरतार वसाही भी कहा जाता है। ये मंदिर पांचों मंदिरों में सबसे ऊंचा है। अन्य मंदिर जहां संगमरमर के बने हुए हैं, वहीं चौमिख मंदिर भूरे बलुआ पत्थर का बना है। मंदिर में मौजूद अधिकतर आकृतियां संघवी मंडालिक नामक व्यक्ति और उसके परिवार के सदस्यों ने दान की थीं। तीनों मंज़िलो के गर्भगृह में चार मुख वाली आकृतियां और पैदा होने के पहले तार्थंकरों की माताओं के 14 सपनों का चित्रण है, जो इस मंदिर की विशेषताएं हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर जैन देवी-देवताओं के चित्रण हैं।
16वीं और 18वीं सदी के बीच एक छोटा मंदिर बनाया गया था, जो 24वें तीर्थंकर महावीर को समर्पित है। 18वीं सदी के क़रीब सिरोही के कलाकारों ने मंदिर की चित्रकारी की थी। हालांकि ये विमल वसाही और लूना वसाही की तरह भव्य नहीं हों, लेकिन इस मंदिर में रुपांकनों और पशुओं की सुंदर और बारीक नक़्क़ाशी है।
आज इस मंदिर परिसर को देखने विश्व भर से इतने लोग आते हैं, कि माउंट आबू दिलवाड़ा मंदिरों का पर्याय बन गया है।
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