महाराष्ट्र और गुजरात के बीच मौजूद छोटा-सा क्षेत्र दादरा और नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्ज़ें में था लेकिन भारतीय स्वतंत्रता सैनानियों ने इसे दो अगस्त सन 1954 को पुर्तगालियों के क़ब्ज़े से आज़ाद करा लिया था। बाद में यानी सन 1961 में गोवा भी पुर्तगालियों से आज़ाद हो गया लेकिन दिलचस्प बात ये है कि आख़िर दादरा और नगर हवेली पर पुर्तगालियों का कब्ज़ा कैसे हुआ ?
16वीं शताब्दी में पुर्तगाली लगातार सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे थे और भारत पर उनका नियंत्रण बढ़ता जा रहा था। सन 1510 में उन्होंने बीजापुर के आदिल शाहों से गोवा जीत लिया था। इसके बाद उन्होंने पश्चिमी भारतीय तट के उत्तरी क्षेत्र पर भी जल्द कब्ज़ा कर लिया। इसी तरह पुर्तगालियों ने दमन (1531), साल्सेट, बॉम्बे और वसई (1534) तथा दीव (1535) पर भी कब्ज़ा कर लिया। 25 साल के भीतर पुर्तगालियों का कोंकण तट पर चौल से लेकर दीव द्वीप तक साम्राज्य फैल गया था और मराठों के आने के पहले 200 वर्षों तक इन पर उन्होने राज किया। सन 1739 में पुर्तगालियों को लगभग ख़ात्मा सा हो गया था। मराठा और पुर्तगालियों के बीच सन 1739 के युद्ध में बाजीराव के भाई चीमाजी अप्पा के नेतृत्व में मराठा सेना ने दमन और दीव को छोड़कर वसई सहित पुर्तगालियों के ज़्यादातर अधिकार क्षेत्रों को जीत लिया था।
विडंबना ये है कि शुरु में दादरा और नगर हवेली पुर्तगाली उपनिवेश क्षेत्रों में शामिल ही नहीं थे। ये दोनों क्षेत्र दरअसल उन्हें मुआवज़े के रुप में मिले थे और क़िस्मत के निराले खेल से पुर्तगालियों का इन पर कब्ज़ा बना रहा ।
सन 1780 के दशक तक परगना अथवा दादरा और नगर हवेली की प्रशासनिक इकाई मराठा शासन के अंतर्गत थी। सन 1772 में कभी मराठा नौसेना के कमांडर जानोजी धुलप ने संताना नाम के पुर्तगाली युद्धपोत को ज़ब्तकर उसे डुबा दिया। इससे नाराज़ होकर पुर्तगालियों ने पुणे में पेशवा के दरबार में अपना राजदूत भेजा और मुआवज़े की मांग की। उस समय मराठा दरबार में काफ़ी उठापटक चल रही थी और सत्ता कई के दावदारों के बीच संघर्ष चल रहा था। इसके अलावा सन 1782 का प्रथम एंग्लो-मराठा युद्ध भी ख़त्म हो चुका था और साल्सेट द्वीप अंग्रेज़ों के पास चला गया था। पुर्तगालियों मराठाओं के सिर पर सवार थे और मराठा अंग्रेज़ों के साथ मिलकर अपनी मुसीबत और नहीम बढ़ाना चाहते थे। सन 1783 में इस संकट से निपटने के लिये मराठाओं ने दोस्ताना भाव के तहत संताना युद्धपोत की भरपाई के लिये पुर्तगालियों को नगर हवेली के 72 गांवों से मिलने वाले राजस्व की पेशकश की। दो साल बाद उन्होंने दादरा से भी मिलने वाला राजस्व उन्हें देना शुरु कर दिया। सौदा ये था कि पुर्तगाली संताना युद्धपोत की भरपाई पूरी होने के बाद दादरा और नगर हवेली वापस मराठाओं को दे देंगे।
लेकिन नियति कुछ और ही थी। मराठा साम्राज्य में सत्ता-संघर्ष की वजह से किसी ने भी पुर्तगालियों से ये क्षेंत्र वापस नहीं मांगे। वे आपसी लड़ाई में इतने व्यस्त थे कि वे जो उनका था उस पर दावा करना ही भूल गये। सन 1818 में तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य का पतन हो गया और इस तरह ये अध्याय भी समाप्त हो गया तथा ये क्षेत्र पुर्तगालियों के पास ही रह गये जिन पर सन 1954 तक उनका क़ब्ज़ा रहा।
22 जुलाई 1954 की रात फ़्रांसिस मस्करेन्हास और वामन देसाई के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता सैनानियों ने दादरा में घुसकर एक स्थानीय पुलिस थाने पर कब्ज़ा कर लिया जिसमें सिर्फ़ तीन पुलिसकर्मी मौजूद थे। इसके फ़ौरन बाद अन्य कार्यकर्ताओं ने पुर्तगाली अफ़सरों पर क़ाबू पाकर कई गांवों पर कब्ज़ा कर लिया। दो अगस्त सन 1954 को राजधानी सिलवासा को आज़ाद करा लिया गया और इस तरह आख़िरकार इन क्षेत्रों पर पुर्तगालियों का शासन समाप्त हो गया।
भारत के औपनिवेशिक इतिहास में दादरा और नगर हवेली, जिन्हें पुर्तगालियों को तश्तरी में देकर भुला दिया गया था…..इनकी कहानी अपने आपमें बेहद अनौखी है।
आवरण चित्र साभार- दादरा और नगर हवेली टूरिज़्म वेबसाइट
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