इसके पहले कि हम इस सवाल का जवाब दें, हमें ये समझना होगा कि योगिनी हैं क्या और ये मंदिर बाक़ी मंदिरों से क्यों अलग हैं। माना जाता है कि इन मंदिरों की मुख्य देवी योगिनी के पास बहुत सी शक्तियां हैं और वे योगाभ्यास करती हैं। इसके अलावा इनका संबंध शाक्त और तंत्र संप्रदाय से है। संस्कृत साहित्य के अनुसार योगिनी मां काली दुर्गा का अवतार हैं। योगिनी की तांत्रिक देवी के रुप में भी उपासना की जाती है। तांत्रिक देवी शिव की सहचारी शक्ति के विभिन्न रुपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। कभी कभी इनका संबंध सप्त मातृका जैसी देवियों के विभिन्न समूहों से भी संबंध रहता है। सप्त मातृका सात देवियों का एक समूह है जिसका संबंध शक्ति और स्कंद (युद्ध देवता) से है।
मध्य प्रदेश में ग्वालियर से क़रीब 35 कि.मी. दूर मितावली या मितौली गांव में स्थित चौसठ योगिनी मंदिर इन्हीं योगिनियों को समर्पित मंदिर है और कहा जाता है कि यहां कभी 64 योगिनियों की मूर्तियां हुआ करती थीं। ये मंदिर एक छोटी सी पहाड़ी पर है। ये गोलाकार और छतविहीन मंदिर है।वास्तुकला में हाइपीथ्रल शब्द ऐसे भवन के लिये इस्तेमाल किया जाता है जिसकी छत नहीं होती। ये मंदिर इकत्तरसो महादेव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। ये नाम शायद इसलिये पड़ा है क्योंकि मंदिर के प्रमुख प्रकोष्ठ में शिव मंदिर है और मंदिर के अन्य प्रकोष्ठों में कई शिवलिंग हैं।
मंदिर और संप्रदाय
चौसठ योगिनी संप्रदाय मध्यकालीन भारत, ख़ासकर 9वीं और 12वीं सदी के बीच, सबसे गूढ़ संप्रदायों में से एक संप्रदाय था। इसी अवधि के दौरान ज़्यादातर चौसठ योगिनी मंदिरों का निर्माण हुआ था। आदिवासी संभवत: इनकी पूजा वन आत्मा या देवी के रुप में करते थे। बाद में इसका हिंदू देवी-देवता के समूह में समावेष हो गया। माना जाता है कि इन देवियों का आदिवासियों से तांत्रिक संप्रदाय में समावेष 8वीं सदी में हुआ था। लेकिन 17वीं सदी के आते आते योगिनी संप्रदाय और उनकी पूजा लगभग ख़त्म हो गई थी। तंत्रमंत्र की वजह से योगिनी और उनके मंदिरों को लेकर हमेशा से ही रहस्य बना रहा है।
योगिनियों को ज़्यादातर सुंदर महिला के रुप में दिखाया जाता है। ये महिला मोतियों और फूलों का हार पहने रहती हैं। इसके अलावा ये बाज़ूबंद, कंगन, कानों की बालियां भी पहने रहती हैं और सुंदर तरीक़े से केशविन्यास किया होता है। योगिनी देवियों का समूह है जो 64, 42 या फिर 81 का समूह होता है लेकिन चौसठ योगिनी समूह सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ है। योगिनी के साथ शिव के रुप भैरव को भी दिखाया जाता है जो अक्सर आक्रामक मुद्रा में होते हैं। इसके अलावा योगिनियों को नृत्य करते, तीर और त्रिशूल से शिकार करते और नगाड़ा बजाते भी दर्शाया गया है।
चौसठ योगिनी मंदिर की वास्तुकला अनोखी है। मंदिर जिस जगह स्थित होता है उसमें उसी स्थान की परंपरा वास्तुकला में परिलक्षित होती है। ज़्यादातर मंदिर छतविहीन होते हैं। इसके अलावा ये वृताकार होते हैं जबकि कुछ आयताकार भी हैं, जिसमें खजुराहो का एक मंदिर शामिल है।
मितावली का चौसठ योगिनी मंदिर, इन मंदिरों का एक शानदार उदाहरण है। यहां मिले शिला-लेख (विक्रम संवत 1380 यानी सन 1323) के अनुसार इस मंदिर का निर्माण कच्छपघात राजवंश के राजा देवपाल ने अपने शासनकाल में करवाया था। देवपाल ने सन 1055- सन 1075 के बीच शासन किया था। कच्छपघात मूलत: पहले मध्य भारत के गुर्जर-प्रतिहार (8वीं-11वीं शताब्दी) और बाद में चंदेला राजवंश (9वीं-13वीं शताब्दी) में जगीरदार हुआ करते थे। कच्छपघात 10वीं शताब्दी के अंतिम दशक में शक्तिशाली बन गए थे और फिर मध्य भारत के एक महत्वपूर्ण शासक बन गए। उनका मध्यप्रदेश के ग्वालियर, दूबकुंड और नरवर पर 12वीं शताब्दी के अंत तक शासन था। कच्छपघात वास्तुकला के बड़े संरक्षक थे।अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने कई मंदिर बनवाए जिनमें ग्वालियर का सास-बहू मंदिर (या सहस्त्रबाहु मंदिर) सबसे अधिक प्रसिद्ध है।
मध्य प्रदेश में कार्यरत पुरातत्वविद शिवम दुबे का कहना है-“गुर्जर प्रतिहारों और चंदेलों का तंत्र संप्रदाय से संबंध था जिसका पता खजुरहो के मंदिरों से चलता है। कच्छपघात चूंकी उनके शासनकाल में जागीरदार रह चुके थे इसलिये हो सकता है कि उन पर तंत्र संप्रदाय का प्रभाव पड़ा हो। इस क्षेत्र में चौसठ योगिनी मंदिर तंत्र संप्रदाय को कच्छपघात राजाओं से मिलने वाले प्रश्रय पर इशारा कर सकते हैं।”
चौसठ योगिनी मंदिर बालूपत्थर का बना हुआ है और इसका अहाता गोलाकार है। इसमें 64 प्रकोष्ठ हैं और प्रत्येक प्रकोष्ठ के बाहर एक खुला मंडप है जो भित्ति स्तंभों पर टिका है। इन प्रकोष्ठों और मंडप की छतें अब सपाट हैं। प्लिंथ पर मध्य में एक गोलाकार मंडप है। इस मंडप में खंबों के दो बाड़े हैं और इसमें शिव का मुख्य मंदिर है। छतविहीन और गोलाकार ढ़ांचे के कारण, ऐसा माना जाता था कि यहां एक समय खगोलशास्त्र और गणित का अध्ययन किया जाता था। मगर इसका कोई सबूत नहीं है।
दुबे, चौसठ योगिनी मंदिर के बाहर स्थित एक अन्य छोटे मंदिर का भी उल्लेख करते हैं। उनका कहना है कि इस मंदिर के द्वार की चौखट पर जो मूर्तियां बनी हुई हैं वो खजुराहों की मूर्तियों से काफ़ी मिलती जुलती हैं जिससे इस क्षेत्र में तंत्र संप्रदाय के प्रभाव का पता चलता है। मंदिर के गोलाकार के बारे में उनका तर्क है, “ क़रीब 64 मूर्तियों का सामंजस्य बैठाने के लिये यही आकार बेहतर माना गया होगा। यही वजह है कि ज़्यादातर योगिनी मंदिर नागड़ा शैली के ऊंचे मंदिरों के बजाय गोलाकार हैं।“
कहा जाता है कि इन प्रकोष्ठों में कभी योगिनी की मूर्तियां होती थीं लेकिन आज यहां छोटे शिवलिंग ही दिखाई पड़ते हैं। ये भी कहा जाता है कि मितावली की कुछ मूर्तियांअब ग्वालियर में गुजरी महल पुरातत्व संग्रहालय में हैं।
ये मंदिर आज अच्छी तरह संरक्षित है और ग्वालियर पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट (1942-46) में इसकी व्यापक मरम्मत का ब्यौरा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मंदिर और उसके आसपास उग आए पेड़-पौधों और घासफ़ूंस को साफ़ किया गया और मंदिर को जाने वाली सीढ़ी की भी मरम्मत की गई। मध्य मंदिर की भी मरम्मत की गई क्योंकि यहां अभी भी पूजा होती है।
संसद भवन से संबंध?
कुछ लोगों का मानना है कि दिल्ली के संसद भवन की डिज़ाइन इस मंदिर से प्रेरित है। लेकिन ये बात ग़लत है और सिर्फ एक अफ़वाह है। यहाँ तक कि संसद भवन के इतिहास में भी ऐसा कोई ज़िक्र नहीं मिलता है।
सन 1911 में अंगरेज़ सरकार ने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली शिफ़्ट करने का फ़ैसला किया। इसके बाद नयी दिल्ली की डिज़ाइन बनाने के लिये एक टाउन प्लानिंग कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी में वास्तुकार सर एडविन लुटयन्स भी थे। लुटयन्स का साथ वास्तुकार हरबर्ट बेकर ने दिया। राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और संसद भवन बनाने का श्रेय इन दोनों वास्तुकारों को ही जाता है।
दिलचस्प बात ये है कि नयी दिल्ली की योजना में पहले संसद के लिये अलग से भवन बनाने की कोई योजना नहीं थी क्योंकि तब कौंसिल छोटी होती थी और इसकी बैठके सभागारों में होती थी। लेकिन इस बीच भारतीय परिषद अधिनियम 1909 आ गया जिसमें विधान परिषदों की सदस्य संख्या बढ़ाने का प्रावधान था। ऐसे में ज़्यादा सदस्यों को बैठाने के लिये एक बड़े भवन की ज़रुरत मेहसूस की गई। इस तरह से कौंसिल हाउस बना जिसे हम आज संसद भवन या पार्लियामेंट हाउस के नाम से जानते हैं। संसद भवन की डिज़ाइन हरबर्ट बेकर ने तैयार की थी।
संसद भवन की बेकर की मूल डिज़ाइन के अनुसार संसद भवन समबाहु त्रिकोणीय होना था जिसके तीन तरफ़ तीन चैम्बर होने थे- कौंसिल ऑफ़ स्टेट (अब राज्य सभा), लेजिस्लेटिव असैंबली (अब लोकसभा) और चैम्बर्स ऑफ़ प्रिंसेस। ये सभी विशाल गुंबद से जुड़े होने थे। लेकिन लुटयन्स इससे सहमत नहीं थे और इसमें कुछ बदलाव करना चाहते थे। उनका सुझाव था कि ये भवन रोमन कोलिसियम (विशाल स्टेडियम) की तरह होना चाहिये। यही वजह है कि आज हम गोलाकार संसद भवन देखते हैं जिसका गलियारा स्तंभयुक्त है। भारतीय वास्तुकला के उदहारण इसमें बस जाली, मुंडेर और खंभो के शिखरों जैसी चीज़ों में नज़र आते हैं।
इतिहासकार थॉमस आर. मेटकाफ़ ने, जिन्होंने ओपनिवेशिक भारत का अध्ययन किया है, अपनी किताब एन एंपीरियल विज़न: इंडियन आर्कीटेक्चर एंड ब्रिटैन्स राज, 1989, में कहा है कि लुटयन्स और बेकर, दोनों का रुझान भारतीय की जगह यूरोपीय वास्तुकला में ज़्यादा था। उन्होंने ये भी लिखा है कि बेकर चाहते थे कि डिज़ाइन न तो भारतीय हो, न ही रोमन हो और न ही इंग्लिश होनी चाहिये। इसकी डिज़ाइन राजशाही जैसी होनी चाहिये।
अभी तक कोई ऐसा सबूत या रिकॉर्ड नहीं मिला है जिससे चौसठ योगिनी मंदिर और संसद भवन का संबंध साबित हो सके। कुछ लोग संसद भवन को मंदिर से प्रेरित इसलिये मानते होंगे क्योंकि उन्हें मंदिर और संसद भवन के गोलाकार और खुले प्लान में समानता नज़र आती है। आज कई ऐसी वेबसाइट हैं जो इस तरह की बातें करती हैं लेकिन ये अभी तक साबित नहीं हो पाया है।
एक तरफ़ जहां मंदिर का संसद भवन से कोई संबंध नहीं है, लेकिन मोरेना का चौसठ योगिनी मंदिर कभी प्रसिद्ध रहे योगिनी संप्रदाय की एक उत्कृष्ट धरोहर है। देश में अन्य जगहों पर भी कुछ चौसठ योगिनी मंदिर हैं। इनमें से दो महत्वपूर्ण मंदिर ओडिशा में हैं। ये मंदिर भुवनेश्वर के पास हीरापुर और बोलनगीर के पास रानीपुर में हैं। मध्य प्रदेश में भी तीन मंदिर हैं- जबलपुर के पास भेड़ाघाट में, ग्वालियर के पास मोरेना ज़िले के मितावली गांव में और खजुराहो में।
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