बड़ा इमामबाड़ा: एक नवाब की दरियादिली का गवाह

बड़ा इमामबाड़ा: एक नवाब की दरियादिली का गवाह

‘जिसे न दे मौला, उसे दे असफउद्दौला’

ये कहावत पुराने नवाबी लखनऊ की है। लखनऊ के लोग अपने उदार और दरियादिल नवाबों के बारे कुछ ऐसा ही कहा करते थे। अब लखनऊ में न तो नवाब हैं और न ही उनकी शान-ओ-शौक़त लेकिन जो बचा रह गया है वो हैं उनकी बनवाई गईं शानदार इमारतें। नवाबों के समय की इमारतों में सबसे शानदार इमारत है बड़ा इमामबाड़ा जो नवाब असफ़उद्दौला ने अकाल से लोगों को राहत पहुंचाने के मक़सद से सन 1784 में बनवाया था।

बड़ा इमामबाड़ा सैलानियों के लिये एक बड़ा आकर्षण है। इमामबाड़े की सबसे बड़ी ख़ासियत है उसका मुख्य सभागार। अमूमन सभागर खंबों पर टिके रहते हैं लेकिन यहां मेहराबदार पचास फुट ऊंची छत वाले सभागार में कोई खंबा नहीं है। ये अपने आप में विश्व के सबसे बड़े सभागारों में से एक है और बेमिसाल इंजीनियरिंग का एक नमूना है।

बड़ा इमामबाड़ा कॉम्प्लेक्स  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

अवध के शाही ख़ानदान की शुरुआत होती है सआदत ख़ान बुरहान-उल-मुल्क (1680-1739) से जिन्हें मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले ने 1722 में अवध का सूबेदार नियुक्त किया था। नवाबों की राजधानी पहले फ़ैज़ाबाद हुआ करती थी जो अयोध्या के पास है। नवाब का रिशता ईरान के सफ़वाबी राजवंश से था। वह निशापुर के रहनेवाले थे और वे शिया संप्रदाय से थे।

सन 1775 में नवाब असफ़उद्दौला ने फ़ैज़ाबाद के बजाय लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया और इसके साथ ही शहर में सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विकास हुआ। नवाब असफ़उद्दौला को लखनऊ का आर्किटेक्ट जनरल माना जाता है। शहर को ख़ूबसूरत और वैभवशाली बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।

नवाब असफ़उद्दौला ने सन 1775 से सन 1797 के दौरान अपने शासनकाल में कई सुंदर महल, बाग़, धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष इमारतें बनवाईं थीं। ऐसा करने वाले वह पहले नवाब थे। उन्होंने मुग़ल वास्तुकला को टक्कर देने के इरादे से कई इमारतें बनवाईं और बहुत कम समय में लखनऊ को वास्तुकला की दुनिया में एक ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचा दिया था।

नवाब असफ़उद्दौला | विकिमीडिआ कॉमन्स 

सन 1910 में प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार जैम्स फ़र्गुसन ने अवधी और मुग़ल वास्तुशिल्प कला पर एक पर्चा लिखा था। उन्होंने लिखा था- साजसज्जा या अलंकरण की समृद्धि और व्यापकता ही अगर वास्तु के अस्तित्व का पर्याय होती तो भारत में शायद ही किसी रजवाड़े की राजधानी लखनऊ के बराबर वास्तु के उदाहरण प्रस्तुत कर सकती थी। वास्तव मुझे ये देख कर हैरानी होती है कि एक सदी के छोटे से शासन काल में इस राजवंश ने अपनी राजधानी में इतनी सारी सुन्दर इमारतें तैयार करवा दीं।

बड़ा इमामबाड़ा | विकिमीडिआ कॉमन्स 

असफ़उद्दौला की बनवाई गईं आरंभिक और सबसे बड़ी इमारतों में बड़ा इमामबाड़े को शुमार किया जाता है। ये इमारत पुराने शहर में इसे बनवानेवाले के सम्मान में बनवाई गई थी जिसे इमामबाड़ा-ए-असफ़ी के नाम से जाना जाता था। नवाब ने 1783-84 में पड़े भीषण अकाल में लोगों की मदद के लिये ये इमामबाड़ा बनवाया था। माना जाता है कि इसके निर्माण कार्य में 22 हज़ार लोगों को लगाया गया था।

नवाब ने आदेश दिया था कि निर्माण का काम सूर्यास्त के बाद रात भर चलेगा ताकि अंधेरे में उन लोगों को पहचाना न जा सके जो संभ्रांत घरों से ताल्लुक़ रखते थे और जिन्हें दिन में मज़दूरी करने में शर्म आती थी। रात को काम करने वाले ज़्यादातर लोग दक्ष नहीं थे और इसलिये काम भी अच्छा नहीं होता था। इस दोयम दर्जे के काम को दिन में गिरा दिया जाता था और दक्ष लोग इसे फिर बनाते थे। ऐसे में ये अंदाज़ा लगाना लाज़िमी है कि इससे बहुत बरबादी हुई होगी लेकिन ऐसा था नहीं। निर्माण की अनुमानित लागत पांच से दस लाख रुपये थी। नवाब इमामबाड़ा बन जाने के बाद भी इसकी साजसज्जा पर सालाना पांच हज़ार रुपये ख़र्च करते थे।

बड़ा इमामबाड़ा 1863–1887 | गेट्टी इमेजेज 

भव्य इमामबाड़ा परिसर वास्तुकार किफ़ायत उल्लाह ने डिज़ाइन किया था और उन्हीं ने बनाया था। इसे पूरा होने में छह साल लगे थे और इस पर क़रीब एक करौड़ रुपये ख़र्च हुए थे। ये इमारत इंडो-सार्सोनिक और मुग़ल-राजपूत वास्तुशिल्प का मिलाजुला नमूना है। इमामबाड़े के मुख्य द्वार से ही भीतर का विशाल बरामदा नज़र आता है जहां मेहराबदार तीन भवन और एक बाग़ है। यहां एक खिड़की भी है जहां से सैलानियों के अंदर जाने के लिये टिकट ख़रीदे जाते हैं।

इमामबाड़ा का मुख्य सभागार 162 फुट लंबा और 53 फ़ुट चौड़ा है। सभागार की छत मेहराबदार है जो शानदार वास्तुशिल्प का उदाहरण है। 16 फुट मोटे पत्थर को संभालने के लिये कोई खंबा नही है। इस पत्थर (स्लैब) का वज़न दो लाख टन है। साभागार की छत ज़मीन से 50 फ़ुट ऊंची है।

बारा इमामबाड़ा के अंदर की तस्वीर  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

इमारत की उत्तर और दक्षिण दिशा की तरफ़ दो बरामदे हैं। दक्षिण की तरफ़ वाला बरामदा उठा हुआ है जिसका इस्तेमाल प्लेटफ़ार्म की तरह किया जाता है जिसे शाहनशीं कहते हैं। यहां ताज़िया रखा जाता था । ताज़िया लकड़ी, काग़ज़ या धातु से बनाया जाता है जो दरअसल करबला में मौजूद इमाम हुसैन के मज़ार की नक़ल है। इसके अलावा यहां अन्य धार्मिक महत्व के,आला दर्जे के साना-चांदी से बने आभूषण, तथा सजे धजे बैनर भी रखे थे। सभागार के ऊपर, चारों तरफ़ ऊपर एक गैलरी भी बनी है।

मुख्य सभागार में अन्य दो तरफ़ अष्टकोणीय कमरे हैं जिनका व्यास क़रीब 53 फ़ुट है। पूर्व की दिशा में बने कमरों की खिड़कियां और बालकनी राजपूत शैली की हैं।

पश्चिम दिशा के कमरे को ख़रबूज़ावाला कमरा कहते हैं। ख़रबूज़े की तरह ही, इस कमरे की छत पर भी धारियां बनी हुई हैं। ऐसा माना जाता है ये कमरा एक बूढ़ी औरत के सम्मान में बनवाया गया था जो ख़रबूज़ बेचकर गुज़र बसर करती थी।

बारा इमामबाड़ा के अंदर की तस्वीर  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

एक कथा ये भी है कि जब इमामबाड़े का नक्शा बनाया जा रहा था तब बीच में ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा आ गया था जिसकी मालिक एक बूढ़ी औरत थी। उस महिला को ज़मीन बेचने के लिये मनाया गया लेकिन वो इस शर्त पर ज़मीन बेचने को तैयार हुई कि मोहर्रम पर हर साल नवाब के विशाल ताज़िये के साथ उसका भी ताज़िया इमामबाड़े में रखा जाए। नवाब ने न सिर्फ़ उसकी शर्त को माना बल्कि उसके ताज़िये के लिये ,इमामबाड़े में एक स्थाई कमरे का भी इंतज़ाम कर दिया गया।

इस कथा में कितनी सच्चाई है, यो तो पता नहीं लेकिन यह सच है कि आज भी इमामबाड़े में मोहर्रम के समय एक ताज़िया रखा जाता है जिसे बुढ़िया का ताज़िया कहते हैं।

यहां आने वाले ज़्यादातर सैलानियों को ये नहीं पता कि इमामाबाड़े का धार्मिक महत्व भी है। 61 हिजरी ( सन 680) को करबला में इमाम हुसैन की शहादत की याद में मोहर्रम के दसवें दिन यहां शिया मुसलमान जमा होते हैं। इमाम हुसैन ने यज़ीद की नाजायज़ मांगों को मानने से इंकार कर दिया था और उसकी सेना से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। इसीलिये मोहर्रम के महीने में इमामबाड़े में धार्मिक गतिविधियां होती हैं। मोहर्रम के पहले दिन इमामबाड़े के ऊपर एक काला झंडा लगाया जाता है और दोपहर को इमामबाड़ा परिसर के आसपास बड़े-बड़े ताज़िये निकाले जाते हैं और जुलूस भी निकाला जाता है। मोहर्रम की सातवीं तारीख़ को इमाम हुसैन के अनुयायी इमामबाड़े के मैदान पर जलते कोयले पर “ या हुसैन…या हुसैन ”कहते हुए नंगे पांव चलते हैं।

मुहर्रम, 1795: आसफ उद दौला, अवध के नवाब, मुहर्रम के दौरान शास्त्रों से पढ़ने वाले मौलवी को रात में सुनना | विकिमीडिआ कॉमन्स 

मोहर्रम के महीने में हर दिन इमामबाड़े में मजलिस (धार्मिक प्रवचन) का आयोजन होता है। मोहर्रम की सातवीं और नौवीं तारीख़ के बीच की रातों पर इमामबाड़े को रौशनियों से सजाया जाता है। मोहर्रम के दसवें दिन अशूर के दिन ताज़ियों को करबला पर ले जाकर दफ़्न किया जाता है। और फिर चहल्लुम यानी चालीसवें दिन अलम और जनाज़ों का जुलूस निकाला जाता है

इमामबाड़े के मुख्य सभागार में नवाब आसफ़ुद्दौला की क़ब्र है। असफ़उद्दौला की अंतिम इच्छा के मुताबिक़ उन्हें इमारत के भू-तल में दफ़्न किया गया था। बाद में उनकी ख़ास बेगम शम्सुन्निसा को भी वही दफ़्न किया गया था। मुख्य सभागार बड़े-बड़े शीशों, फ़ानूस, लैंप और अन्य क़ीमती चीज़ों से सुसज्जित है जो नवाब ने यूरोपीय व्यापारियों से ख़रीदी थीं।

बारा इमामबाड़ा के अंदर एक चंदवा के नीचे आसफ उद-दौला की साधारण कब्र; सीता राम द्वारा एक जल रंग, सी। 1814-1815 | विकिमीडिआ कॉमन्स 

इमामबाड़े की शिल्पकला तो बेमिसाल है ही लेकिन इसके अलावा इसका एक और आकर्षण है भूल भुलैया। ये भूल भुलैया इमारत के तीन स्तरों के अंदर है। पूरी इमारत मेहराबदार दरवाज़ों, खिड़कियों और गलियारों पर खड़ी है। आप 45 सीढ़ियां चढ़कर एक आयताकार बालकनी में एक सकरे गलियारे में पहुंचते है। ये बालकनी मध्य इमारत की तरफ़ खुलती है। गलियारों के ऊपर बनी भूल भुलैया में कई संकरे और घुमावदार रास्ते हैं। दरअसल भूल भुलैया संकरे मार्गों और सुरंगों का एक ऐसा जाल है जिसमें कोई भी भ्रमित हो सकता है। यहां सीढ़ियां भी हैं जो अचानक अपनी दिशा बदल देती हैं, आप कभी ऊपर तो कभी नीचे आ जाते हैं।

भूल भुलैया का प्रवेश द्वार  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

वास्तुकला की पराकाष्ठा वाली भूल भुलैया की छत्त को खोखला बनाया गया ताकि छत्त का वज़न कम हो जाए और इमारत की दीवारे बिना सहारे के खड़ी रहें। छत्त पर सैंकड़ो दरवाज़े बनाये गये हैं जो आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इस अद्भुत रचना को नाम दिया गया है…भूलभुलैया । ये शायद भारत की एकमात्र भूल भुलैया है। इमारत में कई तरह की बालकनियां और झरोखे हैं। इन्हें इस तरह से बनाया गया है कि दिन के समय भी यहां पर्याप्त रौशनी और हवा रहती है।

भूलभुलैया की वास्तुकला | विकिमीडिआ कॉमन्स 

इमामबाड़ा परिसर में चहारदीवेरी से लगे दो बाग़ हैं जहां ऊंचे दरवाज़े हैं। इसके अलावा कई और मेहराबदार दरवाज़े (ग़ुलाम गर्दिश) भी हैं। यहां एक बड़ी सी मस्जिद है जिसे आसफ़ी मस्जिद कहा जाता है। यहां हर शुक्रवार को शिया मुसलमान नमाज़ अदा करते हैं। ईद और बक़रीद पर भी यहां नमाज़ पढ़ी जाती

परिसर में एक शाही बावली भी है जो एक जलाशय के ऊपर बना हुआ है। ये जलाशय निर्माण कार्य के दौरान पानी जमा करने के लिये बनाया गया था। अपने सम्मानीय मेहमानों के लिये नवाब ने पांच मंज़िला महल बनवाया था जिसे मेहमानख़ाना कहते हैं। लेकिन इसका अब थोड़ा सा ही हिस्सा बचा रह गया है यानी.. रुमी दरवाज़ा । सन 1858 में इमामबाड़े परिसर को क़िले में तब्दील कर दिया गया था और तभी अंग्रेज़ों ने इसके बाक़ी दरवाज़े तुड़वा दिये थे। दरवाज़ों को तुड़वाकर अंदर तोपें रखी दी गईं थीं।

शाही बावली | विकिमीडिआ कॉमन्स 

इमामबाड़े के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने है नौबत ख़ाना । जहां नगाड़ा बजाने वाले कलाकार रहते थे। वे आम दिनों में नगाड़ा बजाकर हर एक घंटे बाद समय की सूचना देते थे। ख़ास मौक़ो पर नवाब और उनके सम्मानित मेहमानों के आने की सूचना नगाड़ा बजाकर देते थे। इमारत में पूर्व और पश्चिम दिशा की तरफ़ भी दो दरवाज़े भी बनवाए गए थे।

इमामबाड़ा परिसर सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक खुला रहता है। यहां जाने के लिये टिकट लगता है। सैलानियों को सख़्त हिदायत है कि वे बिना गाइड के भूल भुलैया के अंदर न जाएं।

इमामबाड़े, लखनऊ की वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना हैं। इनके मीनार आसमान को चूमते नज़र आते हैं। आज भी यहां के अद्भुत स्मारक और वास्तुकला हमें नवाबों के स शहर के गौरवशाली इतिहास की कहानियां सुनाते है।

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