जम्मू में तवी नदी के बाएं किनारे पर एक बड़े क़िले से पुराने जम्मू शहर का सुंदर दृश्य नज़र आता है। ये क़िला अब जम्मू शहर की सीमा के भीतर आ गया है और शहर के केंद्र से सिर्फ़ पांच कि.मी. की दूरी पर है। आज ये क़िला है जहां है वहां एक समय घना जंगल हुआ करता था।
बाहु नाम के क़िले का निर्माण एक स्थानीय राजकुमार ने किया था। ये क़िला नदी के दूसरी तरफ़ राजकुमार के भाई के, क़रीब एक हज़ार साल पहले स्थापित जम्मू का गवाह रहा है। बाहु क़िला जम्मू के कई राजाओं का निवासस्थान रह चुका है। तवी नदी से लगा ये क्षेत्र राजनीति का केंद्र होता था।
इतिहास में जम्मू का पहला उल्लेख सन 1398-99 में तब मिलता है जब तुर्क-मंगोल हमलावर तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था। तैमूर ने आत्मकथा जैसे अपने संस्मरण मलफ़ुज़ात-ए-तैमूर में जम्मू का ज़िक्र किया है। उस समय जम्मू बाहरी पहाड़ियों में तवी और चैनाब नदी घाटियों में एक छोटा सा भू-भाग रहा होगा जो कुछ दूर पठार तक फैला हुआ होगा। माना जाता है कि 9वीं-10वीं शताब्दी में बाहु शहर इस क्षेत्र की राजधानी था जिसे तब डुर्गारा कहा जाता था। डुर्गारा नाम का उल्लेख हिमालय क्षेत्र की चंबा रियासत में मिले 11वीं शताब्दी के ताम्रपत्र पर अंकित अभिलेखों में भी है। कुछ विद्वानों का मानना है कि डोगरा शासकों का नाम डुर्गारा से ही पड़ा होगा। डोगरा शासकों ने जम्मू के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
जम्मू के डोगरा शासक राम के बड़े पुत्र कुश को अपना वंशज मानते थे और माना जाता है कि वे मूलत: अयोध्या के ही थे। डोगरा, राम को अपना कुल देवता मानते थे और ख़ुद को सूर्यवंशी राजपूत कहते थे।
जम्मू क्षेत्र के आरंभिक इतिहास के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है लेकिन ऐसा विश्वास किया जाता है कि क़िला और बाहु शहर राजा अग्निगर्भ के पुत्र बाहुलोचन ने बनवाया था। अग्निगर्भ सियालकोट (जम्मू से 40 कि.ममी. दूर और अब पाकिस्तान के पंजाब में) का राजा था। अग्निगर्भ अयोध्या के राजा के कुल सदस्य के भाई और रियासत के संस्थापक राजा अग्निबरन का पांचवां अत्तराधिकारी था। माना जाता है कि ये शासक सूर्यवंशी राजपूतों के वंश के थे। इन्हें कभी कभी प्रारंभिक दौर के डोगरा भी कहा जाता है।
राजा अग्निगर्भ के 18 पुत्रों में अधिकतर ने स्थानीय कबायली सरदारों को हराकर अपना साम्राज्य स्थापित किया था। बाहुलोचन ने इस क्षेत्र के संपन्न शहर धारानगरी के राजा को हराया था। बाहुलोचन इस क्षेत्र को बाहुकोट कहता था। माना जाता है कि बाहुलोचन ने तवी नदी के बाएं तट पर बाहु क़िला और शहर बनवाया था। बाहुलोचन ने इसे अपनी राजधानी बना लिया था।
इतिहासकारों का मानना है कि बाहुलोचन ने 9वीं शताब्दी में शासन किया था लेकिन उसके भाई जम्बू लोचन ने दरअसल नदी के दूसरे तरफ़ जम्मू शहर बसाया था। स्थानीय लोककथा के अनुसार जम्बू लोचन शिकार पर निकला हुआ था तभी उसने पहाड़ों की एक पोखर पर एक शेर और एक बकरी को एक साथ शांतिपूर्वक पानी पीते देखा। जम्बू लोचन ने इसे शुभ संकेत माना और तय किया कि उसे यहां अपनी राजधानी इसी जगहल बनानी चाहिये।
विद्वानों और अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि जम्मू के शासक 11वीं शताब्दी में मुस्लिम हमलावरों के आने के पहले तक बाहु क़िले में ही रहते थे। जम्मू और बाहु दोनों पर हमला करना आसान रहा होगा क्योंकि ये पठार के क़रीब थे इसलिये राजा पहाड़ियों के और भीतर चले गए होंगे। इस तरह राजधानी जम्मू में आज के समय के बाबोर पहुंच गई होगी जो उस समय दरबार के लिये सुरक्षित क्षेत्र रहा होगा।
16वीं शताब्दी में बाहु क़िला जग देव नामक राजा का दरबार हुआ करता था जबकि उसका भाई सामिल देव जम्मू से राजपाट चलाता था। जब उनके पिता कपूर देव का निधन हुआ तो दोनों भाईयों में सत्ता संघर्ष हो गया था तथा क्षेत्र को दो हिस्सों में बांट दिया गया था। तवी नदी को इन दो क्षेत्रों की सीमा रेखा मान लिया गया था। जो राजा बाहु से राज करता था उसे बाहुवाल और जो जम्मू से राज करता था उसे जामवाल कहा जाता था।
महत्वपूर्ण बात ये है कि 17वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर कई छोटे मोटे डोगरा क़बायली सरदारों का शासन हुआ करता था। ये राजा हरि देव (1656-1692) थे जिन्होंने पड़ोसी रियासतों को जीतकर जम्मू को एक महत्वपूर्ण साम्राज्य में तब्दील कर दिया। हरि देव के शासनकाल में बाहुवाल राजाओं ने या तो वहीं शरण ले ली थी या फिर उन्हें वहां से बेदख़ल कर दिया गया था। इसके बाद दोनों क्षेत्रों को भी मिला दिया गया था।
बाहु क़िला कई बार ढ़हाया और दोबारा बनाया गया, ख़ासकर डोगरा शासनकाल के दौरान। कुछ स्रोतों का कहना है कि अवतार देव नामक राजा ने सन 1585 में क़िले का पुनर्निमाण करवाया था। ऐसा भी माना जाता है कि महान सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह (1801-1820) ने सन 1820 में क़िले का बड़े स्तर पर नवीनीकरण करवाया था। महाराजा रणजीत सिंह ने सन 1808 में जम्मू पर फ़तह हासिल की थी और इसे अपने साम्राज्य में मिला लिया था।
आज जो क़िला हम देखते हैं वह महाराजा गुलाब सिंह (1822-1856) ने दोबारा बनवाया था। राजा गुलाब सिंह रणजीत सिंह के मातहात जागीरदार था जो बाद में जम्मू का सबसे महत्वपूर्ण शासक बन गया। उसे शाही डोगरा घराने के संस्थापक के रुप में जाना जाता है। उसी के शासनकाल में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ, सन 1846 में अमृतसर संधि हुई थी। तभी जम्मू-कश्मीर की सीमाएं निर्धारित हुईं थीं।
बाहु क़िले से तवी नदी के दूसरे तरफ़ पुराना जम्मू शहर नज़र आता है। अष्टभुजाकार ये क़िला पठार पर बना हुआ है और इसमें आठ मज़बूत बुर्ज हैं। इसका मुख्य द्वार बहुत भव्य है और ये हाथियों के आने जाने के लिये बनवाया गया था। क़िले के अंदर पानी की एक टंकी भी है जिसमें बरसात का पानी जमा किया जाता था। यहां पिरामिड की तरह एक भवन है जिसका शस्त्रागार के रुप में इस्तेमाल किया जाता था। तलघर में एक कमरा है जो जेल हुआ करती थी। यहां से क़िले से बाहर निकलने का गुप्त मार्ग यानी सुरंग भी हुआ करती थी।
क़िले की ऊपरी मंज़िल बहुत सजीधजी हुई थी। यहां ज़नान ख़ाना, सभाकक्ष और अन्य महत्वपूर्ण कमरों जैसे शाही कमरे होते थे। क़िले के अंदर शाही उस्तबल भी होती थे।
बाहु क़िला अब अपने ऐतिहासिक महत्व और धार्मिक कारणों से एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल बन गया है। क़िले के अंदर जम्मू की अधिष्ठातृ देवियों में से एक महाकाली देवी का मंदिर है। ये एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। स्थानीय लोग इसे बावे वाली माता मंदिर कहते हैं। कहा जाता है कि काली की मूर्ति क़िला बनने के बहुत पहले अयोध्या दरबार से यहां लाई गई थी। कहा जाता है कि जिस मंदिर में ये मूर्ति स्थापित है वो महाराजा गुलाब सिंह ने बनवाया था।
लोकप्रिय हिंदू त्यौहार नवरात्र पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु इस मंदिर में आते हैं। एक त्यौहार बाहु मेला भी साल में दो बार, मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर लगाया जाता है। क़िले के परिसर में आधुनिक समय में मुग़ल शैली का बाग़ बनवाया गया था जिसे बाग़-ए-बाहु कहते हैं। यहां सैलानी आराम करते हुए शहर के गौरवशाली अतीत में डूब सकते हैं।
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