हिमाचल प्रदेश में सैलानियों के पसंदीदा और ख़ूबसूरत शहर शिमला से क़रीब 40 कि.मी.के फ़ासले पर एक और ख़ूबसूरत शहर है जिसका नाम है अर्की। किसी समय में यह बाघल रियासत की राजधानी हुआ करती थी। यहां कई पुराने मंदिर हैं लेकिन अर्की का सबसे बड़ा आकर्षण है इसका क़िला। इसका निर्माण एक बाघल शासक ने सन 1695 और सन 1700 के बीच करवाया था। ये क़िला भित्ती चित्रों के लिये मशहूर है। हम आपको यहां इस रियासत और इसके क़िले के बारे में बताने जा रहे हैं।
भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में बाघल एक रियासत हुआ करती थी जो शिमला की बड़ी रियासतों में से एक थी। पश्चिमी हिमालय में क़रीब 28 रियासतों के नाम शिमला पर रखे गए थे जिन्हें “ शिमला हिल स्टेट्स” कहा जाता था। इन रियासतों पर प्रमुख रुप से राजपूतों का शासन होता था। बाघल अब हिमाचल प्रदेश के सोलन ज़िले में अर्की तहसील का हिस्सा है। माना जाता है कि इस साम्राज्य की स्थापना राणा अजी देव पंवार ने 13वीं शताब्दी में की थी जिन्होंने उज्जैन से यहां आकर अपने लिये साम्राज्य बनाया था। उनके छोटे भाई विजय देव पड़ौस में बाघट नाम की रियासत के शासक बन गया था।
रियासत के नाम को लेकर कई कहानियां हैं। एक किवदंती के अनुसार बाघल गाभल का विकृत रुप है जिसका अर्थ होता है किसी देश की केंद्रीय पार्टी या फिर राज्यों के समूह का केंद्र। एक अन्य कथा के अनुसार ये बाघर का बिगड़ा नाम है। बाघर शायद एक राजवंश था जिसने इस साम्राज्य की संस्थापना की थी।
लेखक मार्क ब्रेन्टनैल ने अपनी किताब “प्रिंसली एंड नोबल फ़ैमिलीज़ ऑफ़ द फ़ोरमर इंडियन एम्पायर-हिमाचल प्रदेश (2004)” में बताया है कि किस तरह साम्राज्य की स्थापना हुई। ब्रेन्टनैल के अनुसार पंवार राजपूत राणा अजय देव मालवा में धार के शासक राजा अमर देव के पुत्र थे। ये परिवार 9वीं शताब्दी में परमार शासकों के मातहत शायद सरदारों के रुप में शासन करता था। सन 1260 के आसपास तीर्थयात्रा के लिये अजय देव मालवा से पहाड़ों में बद्रीनाथ मंदिर गए थे। तीर्थ यात्रा के दौरान ही उन्होंने अपने पिता और मालवा से अलग होकर शिमला के पास पहाड़ों में ख़ुद की रियासत बनाने का फ़ैसला किया। अगले कुछ वर्षों में उनके उत्तराधिकारियों ने इस इलाक़े में अपनी स्थित मज़बूत कर ली।
पहली कुछ शताब्दियों में राजधानी कई बार बदली। शई, धुंदन, डार्ला और दम्रस जैसी जगहें राजधानी बनी थी। ये स्थान अब हिमाचल प्रदेश के हिस्से हैं। राणा कासस चंद नाम के शासक ने धुंदन को अपनी राजधानी बना लिया था जो सन 1643 तक राजधानी बनी रही। इसके बाद 1643 में एक ही अन्य शासक राणा साभा चंद ने अर्की को बाघल रियासत की राजधानी बना दिया। उनके बाद के शासकों ने एक शहर के रुप में अर्की की बेहतरी में बहुत योगदान किया।
बाघल की राजधानी बनने के बाद 17वीं शताब्दी में अर्की में क़िला-महल परिसर बना। पहाड़ के किनारे स्थित क़िले से शहर नज़र आता है। क़िले का श्रेय पृथ्वी सिंह को जाता है जिन्होंने सन 1695 और सन 1700 के दौरान ये क़िला बनवाया था।
19वीं शताब्दी के आरंभ में नेपाल के गोरखाओं ने कांगड़ा पर हमला किया था। उस समय उन्होंने बाघल रियासत और अर्की के क़िले पर कब्ज़ा कर लिया था। सन 1806 और सन 1815 के दौरान अर्की क़िला नेपाली जनरल अमर सिंह थापा का मज़बूत गढ़ बन गया था। थापा नेपाल साम्राज्य में गोरखा सैनिक जनरल, गवर्नर और सेनापति था। पश्चिमी प्रांतों पर हमले के समय थापा नेपाल सेना का कमांडर था। नेपाल साम्राज्य में वह कुमांयु, गढ़वाल का शासक था। कहा जाता है कि उसने कांगड़ा के और भीतर घुसने के लिये अर्की का इस्तेमाल किया था। इस दौरान बाघल के तत्कालीन शासक राणा जगत सिंह को सात साल के लिये पड़ौस की जगह नालागढ़ में निर्वासित कर दिया गया था।
एंग्लो-नेपाल युद्ध के बाद बाघल रियासत वापस उनके शासकों को सौंप दी गई। ये युद्ध सन 1814-1816 के दौरान नेपाल साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था। अंग्रेज़ जनरल ओशटरलोनी ने बाघल के राणा जगत सिंह और नालागढ़ के राजा राम सरण सिंह की मदद से गोरखाओं को बाहर खदेड़ दिया था।
राणा शिव सरण के शासनकाल में अर्की शहर में संपन्नता आई थी। राणा शिव सरण ने सन 1828 से लेकर सन 1840 औऱ उनके पुत्र राजा कृष्ण सिंह ने सन 1840 से लेकर सन 1867 तक शासन किया। अर्की क़िले में मुग़ल और राजपूत वास्तुकला की झलक मिलती है। अर्की क़िले का दीवानख़ाना सभागार आज परिसर का सबसे आकर्षक हिस्सा है जिसे सन 1830-1835 के दौरान राणा शिव सरण ने बनवाया था। लेकिन सभागार में भित्ति चित्रों की शुरुआत उनके पुत्र राजा कृष्ण सिंह ने की थी। ये भित्ति चित्र आज भी दर्शनीय हैं।
राजा कृष्ण सिंह को दूरअंदेश शासक माना जाता था जो कला और शिक्षा के बडे संरक्षक थे। उन्होंने अर्की को पड़ौसी शहरों से जोड़ा तथा शहर के और विकास के लिये इन शहरों से शिल्पकारों, विद्वानों और व्यापारियों को अपने यहां बसाया।
दीवानख़ाना भित्ति चित्रों से सजा हुआ है जो चित्रकारी की विभिन्न शैलियों को दर्शाते हैं। इनमें सबसे प्रभावशाली पहाड़ी चित्रकाला शैली है। पहाड़ी चित्रकारी गूलर, कांगड़ा, बशोली, चंबा, नूरपुर, बिलासपुर, मंडी और कुल्लु जैसे कई साम्राज्यों की चित्रकारी से संबंधित है। अर्की इस मायने में भी ख़ास है क्योंकि चित्रकारी के एक स्कूल का नाम इसी के नाम पर रखा गया है। दीवानख़ाने की दीवारों पर सजी पैंटिग भारतीय लोककथाओं से लेकर उस समय के प्राकृतिक नज़ारों को दर्शाती हैं यानी पेंटिंग के विषय विविध हैं। इन पेंटिंग्स में युद्ध के कई दृश्यों को भी दिखाया गया है।
कांगड़ा पेंटिग पर लिखने वाले लेखक और कला इतिहासकार डॉ. एम.एस. रंधावा के अनुसार “अर्की भित्ति चित्र 19वीं शताब्दी के मध्य में पंजाब के पहाड़ों के समकालीन जनजीवन का दस्तावेज़ हैं। ये चित्र धार्मिक विषयों के अलावा हमें बताते हैं कि कैसे उस समय लोग अपना मनोरंजन करते थे और उनकी भौगोलिक अवधारणा क्या थी। कुल मिलाकर विषय और डिज़ाइन के मामले में ये भित्ति चित्र इन्हें देखने वालों के भीतर रहस्य और असमंजस का भाव पैदा करते हैं। इन चित्रों में विषय संबंधी विविध रुप और रंग की वजह से कहीं भी दोहराव नहीं दिखता है लेकिन इनमें रंग और डिज़ाइन के संतुलन को भी बरक़रार रखा गया है।”
सन 1948 में बाघल रियासत का भारत में विलय हो गया। क़िला अब बाघल के पूर्व शासकों की मौजूदा पीढ़ी की निजी संपत्ति है। क़िले का ज़्यादातर हिस्सा अब टूट-फूट चुका है। क़िले के एक छोटे हिस्से को हेरिटेज रिज़ॉर्ट में तब्दील कर दिया गया है। अर्की में लुटरु महादेव मंदिर की तरह कई पुराने मंदिर हैं। लुटरु मंदिर 17वीं शताब्दी में बाघल के राजों ने बनवाया था। बहरहाल, अतीत को दर्शाने वाली पहाड़ी शैली ये भित्ति चित्र इतने ख़ूबसूरत हैं कि अगली बार जब आप शिमला जाएं तो अर्की शहर और अर्की क़िला देखना न भूलें।
मुख्य चित्र: अर्की महल का एक हिस्सा – हरविंदर चंडीगढ़ -विकिमीडिआ कॉमन्स
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