सुरंगों के ऊपर आबाद शहर : अमृतसर

सुरंगों के ऊपर आबाद शहर : अमृतसर

अमृतसर की पुरानी इतिहासिक दीवार के भीतर बसे शहर में किसी घर या गली की खुदाई के समय 150 या 200 वर्ष पुरानी कोई सुरंग मिले तो इस में ज्यादा हैरान होने वाली बात नहीं है, क्योंकि गुरूनगरी अमृतसर के ज्यादातर इलाके मिसल काल के समय अमृतसर में बसाए गए कटड़ों के ऊपर आबाद हैं, जिनके नीचे मिसलदारों ने अपने किलों तथा कटड़े की सुरक्षा के लिए पाँच से छः फुट ऊँची सुरंगों का निर्माण किया था। अमृतसर के किला लोहगढ़, कटड़ा भंगियां, कटड़ा बग्गयां (अब कटड़ा बग्गियां नाम से विख़्यात) और कटड़ा आहलुवालिया सहित शहर के अलग-अलग इलाकों में तीन दर्जन के करीब सुरंगें होने की पुष्टि पुस्तक ‘तवारीख लाहौर-अमृतसर’ में की गई है।

इन में से वर्ष 2006 के करीब श्री दरबार साहिब के साथ सटे क्षेत्र कटड़ा आहलूवालिया और उसके बाद वर्ष 2011 में नगर निगम की ओर से सीवरेज डालने के लिए की गई खुदाई के दौरान दरवाजा लोहगढ़ के पास से सुरंगें मिल चुकी हैं। खुदाई के दौरान जब ये सुरंगें एक-एक कर सामने आने लगीं तो पूरे शहर में अफरा-तफरी सी मच गई और साथ ही अफवाहों का बाजार भी गर्म हो गया। कोई इन सुरंगों को लाहौर से जोड़ने के कयाफे लगा रहा था तो कोई इनको महाराजा रणजीत सिंह के द्वारा बनवाई गईं बता रहा था। हालांकि गुरूकाल से लेकर सिख राज्य तक एक किले की भांति इस्तेमाल किए जाते रहे अमृतसर शहर में खुदाई के दौरान इस तरह से सुरंगों का मिलना न तो कोई नई बात थी और न ही कोई अचंभे वाली ही। क्योंकि इससे कुछ समय पहले भी अमृतसर के कटड़ा आहलुवालिया में से करीब 200 वर्ष पुराने मकान की खुदाई के दौरान करीब साढ़े पाँच फुट ऊँची नानकशाही ईंटों से बनाई गई सुरंग मिली थी, जोकि आहलुवालिया मिसल के रिहायशी किले की तरफ खुलती थी। परन्तु इससे पहले की उसके बारे में और ज्यादा जानकारी जुटाई जाती, वहां खुदाई करवा रहे ठेकेदार ने तुरंत सुरंग पर मलबा डलवाकर मामला रफा-दफा कर दिया।

इससे पहले इसी प्रकार की कुछ सुरंगें कटड़ा बग्गियां में कुचा दयाल सिंह क्षेत्र में से स. दयाल सिंह मजीठियां की हवेली की प्लाॅटिंग के दौरान मिली थीं। किला गोबिंदगढ़ में भी ऐसी कुछ सुरंगों के मिलने की पूरी संभावना है। परन्तु क्योंकि लोहगढ़ दरवाजे के पास से मिली सुरंगें उस किले के पास से मिली थीं, जो छठी पातशाही गुरु हरिगोबिंद साहिब ने स्वयं बनवाया था, इस लिए इस मामले को कुछ विषेष संजीदगी से लिया गया और मीडिया ने इस संबंध में कई विशेषज्ञों की राय लेकर इसे यकीनी बना दिया कि ये वाकई सुरंगंे ही हैं। शायद इसीलिए इन सुरंगों को पुनः ज़ाहिर करने के प्रयास में राज्य सरकार का टुरिज़्म विभाग करीब आठ वर्ष पहले आनन-फानन में बंद कर दी गईं अमृतसर के किला लोहगढ़ (अब गुरुद्वारा लोहगढ़) के चैराहे के समीप से मिलीं सुरंगों को नगर के हैरीटेज़ को प्रफुल्लित करने के इरादे से खोलने की योजना बना रहा है।

दरअसल, चैक लोहगढ़ जहां से ये सुरंगें मिलीं थीं, वहां सन् 1614 में गुरु हरिगोबिंद साहिब ने शहर के संरक्षण और दुश्मन मुगल सेना का मुकाबला करने के लिए किला लोहगढ़ का निर्माण करवाया था और इसके आस-पास पक्की दीवार भी बनवाई थी। इस किले से सीधा रास्ता गुरू के महलों को जाता था।

किला लोहगढ़ की पुरानी तस्वीर।

गुरु बाज़ार के पास गुरु के महल गुरु जी का रिहायशी मकान है, जिसका निर्माण गुरु रामदास जी ने शुरू करवाया और गुरु अर्जुन देव जी ने इसे मुकम्मल किया। गुरू हरिगोबिंद साहिब भी यहाँ निवास करते थे।

सन् 1629 में गुरु साहिब ने किला लोहगढ़ के स्थान पर ही शाही मुगल सेना से मुकाबला किया। गुरु साहिब के समय किले में कुछ बेरियों के पेड़ थे। उन्होंने उन बेरियों के वृक्षों में बनाए बड़े से छिद्र में बारूद भर कर युद्ध के दौरान उन्हें जंगी तोपों की तरह इस्तेमाल किया। बेरी के पेड़ की लकड़ी की बनी एक तोप आज भी किले (गुरुद्वारे) के अंदर शो-केस में रखी हुई है।

संभवतः जब गुरु साहिब ने उक्त किले और किले के बाहर मजबूत दीवार का निर्माण करवाया था, उसी दौरान उन्होंने गुरु के महलों से लेकर किला लोहगढ़ तक उक्त सुरंगों का भी निर्माण करवाया होगा। इस संबंध में एक और विशेष बात जो सामने आई है, वह यह है कि उक्त सुंरगों के निर्माण में जो ईंटें इस्तेमाल की गई हैं, ये वे नानकशाही ईंटें नहीं है जो महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के समय भवन निर्माण में इस्तेमाल की जाती थीं, बल्कि इनकी लंबाई और रूप-रेखा उन मुगलईया ईंटों से मिलती-जुलती है, जो गुरुकाल के दौरान बनाई गई थीं।

इस संबंध में एक और ऐतिहासिक तथ्य समझने की आवश्यकता है कि सन् 1802 में जब महाराजा रणजीत सिंह अपनी सेना और तोपखाना लेकर अमृतसर पर चढ़ाई करने का लिए पहुँचे तो उस समय अमृतसर पर स. गुलाब सिंह भंगी के पुत्र स. गुरदित्त सिंह का अधिग्रहण था, जिसके नाबालिग होने के कारण उसकी माँ माई सुखा उसकी सलाहकार और सरपरस्त बनी हुई थी। महाराजा से उसका आमना-सामना पहले किला गुज्जर सिंह भंगी (नया नाम किला गोबिंदगढ़) के मुकाम पर हुआ। उसने महाराजा की फौज से जंग की, पर किला कच्चा होने के कारण वह अपनी फौज की छोटी सी टुकड़ी सहित वहां से भाग कर शहर की नमक मंडी वाले किला झंडा सिंह (किला भंगिया नाम से विख्यात) में जा पहुँचा। यह पूरी तरह संभव है कि बाहर चारों ओर महाराजा की फौज का घेरा होने के कारण उस समय उसने भागने के लिए किसी गोपनीय रास्ते अर्थात सुरंग का इस्तेमाल किया होगा। यह भी संभव है कि वे सुरंगें किला गुज्जर सिंह भंगी (किला गोबिंदगढ़) के भीतर से किला लोहगढ़ तक जाती होंगी और अगर किला लोहगढ़ के पास से खुदाई करवाई जाए तो वे गुप्त सुरंगें भी अवश्य मिल सकती हैं।

किला गोबिंदगढ़ की वह इमारत] जहां सुरंग होने का दावा किया जा रहा है। | आशीष कोछड़

बाद में किला भंगी में से निकल कर गुरदित्त सिंह अपनी माँ रानी माई सुखा के पास किला लोहगढ़ में पहुँच गया और फिर वे दोनों माँ-पुत्र यहां से किसी गोपनीय रास्ते की मार्फत भाग कर स. मंगल सिंह रामगढ़िया की हवेली में पहुँच गए, जो श्री दरबार साहिब के निकट चैक परागदास के पास थी। संभव है, उस समय पूरे शहर को महाराजा की फौज की ओर से अपने घेरे में लिया गया होने के कारण गुरदित्त सिंह और उसकी माँ माई सुखा इस सुरंग (किला लोहगढ़) के रास्ते गुरू के महलों तक और वहां से मंगल सिंह रामगढ़िया की हवेली पहुँचे होंगे।

सरदार मंगल सिंह रामगढ़िया की हवेली] जहां माई सुखा और उनके सुपुत्र स- गुरदित्त सिंह सिख फौज से छुपकर सुरंग के रास्ते पहुँचे थे। | आशीष कोछड़

उक्त के अलावा अमृतसर के कटड़ा बग्गियां (कटड़ा बगीयां) की गली कूचा दयाल सिंह में जहां आज भी स. लहिणा सिंह मजीठिया की हवेली (लहिणा सिंह के देहांत के पश्चात यह हवेली उसके पुत्र स. दयाल सिंह मजीठिया को मिल गई थी) का बचा-खुचा थोड़ा सा हिस्सा मौजूद है; के बारे में इतिहास में दर्ज है कि कटड़ा बग्गियां को अमर सिंह बग्गा ने आबाद किया। इस कटड़े में स. अमर सिंह बग्गा के तीन अन्य सांझीदारों स. जै सिंह कन्हैया, हकीकत सिंह कन्हैया तथा अमर सिंह कांगड़ा का हिस्सा था। इन्होंनेे उक्त कटड़े में अपनी अलग-अलग हवेलियां तथा एक किला बना रखा था। इन हवेलियों के गुप्त तहखानों को आपस में जोड़ने के लिए हवेलियों के नीचे सुरगें बनाई गई थीं।

कुछ वर्ष पहले जब इन हवेलियों को गिराकर वहां नए घर बनाए गए, तो उस वक्त यहां सुरंगें होने के प्रामाणिक प्रमाण मिले थे, परंतु उक्त सुरंगों को भी जल्दी खत्म कर दिया गया।

यह एक इतिहासिक तथ्य है कि अमृतसर लंबे समय तक सेना की बड़ी छावनी और किले के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है। बाहरी हमलावरों का मुकाबला करने के लिए तथा दुश्मन सेना से छिप कर एक कटड़े से दूसरे कटड़े तक जाने के लिए (जिन कटड़ों के सरदारों की आपस में संधि थी) उस समय इन गुप्त सुरंगों को बनाया जाना कटड़े के हाकिमों के लिए बेहद जरूरी था।

खैर, सैंकड़ों वर्ष पहले बाहरी तथा अंदरूनी हमलावरों का मुकाबला करने के लिए बनाई गईं सुरंगों के प्रामाणिक सुबूत मिल चुके हैं। भले ही इन सब की खोज कर इन्हें संरक्षण देना संभव नहीं है, क्योंकि पुराना शहर और शहर की ऊँची-ऊँची खस्ताहाल इमारतंे इन्हीं सुरंगों पर खड़ी हैं। निःसंदेह सुरंगों की शोध के लिए खुदाई करना पुराने नगर को सम्पूर्णतः धराशाही करने के समान होगा। परंतु पहले से मिल चुकी सुरंगों तथा कुछ अन्य सुरक्षित जगहों की निशानदेही कर वहां से धरती के नीचे दफन सुरंगों को ज़ाहिर कर आकर्षण का केंद्र जरूर बनाया जा सकता है। इससे जहां एक ओर टुरिज़्म में वृद्धि होगी, वहीं इतिहास के जानकारों को भी लाभ मिलेगा।

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